Connect with us

Hi, what are you looking for?

सियासत

ज्यादातर सीनियर पत्रकार, अफसर, प्रोफेसर, वकील और जज कांग्रेस के लिए सॉफ्ट कार्नर रखते हैं!

रंगनाथ सिंह-

कुछ दिन पहले प्रीतम ठाकुर जी ने पूछा था, “मुझे समझ नहीं आया आज तक कि कांग्रेस ने क्या और कौन सी जड़ी बूटी खिला रखी है स्वघोषित बुद्धिजीवियों को जिनको कांग्रेस सर्वगुण संपन्न और बीजेपी दुर्गुणों की खान नजर आती है और देश में हो रहे अभूतपूर्व विकास नज़र ही नहीं आता?”

मैंने प्रीतम जी से कहा था कि इसका जवाब अलग पोस्ट लिखकर दूँगा क्योंकि वह लम्बा होगा। प्रस्तुत है मेरी राय-

Advertisement. Scroll to continue reading.

तमाम नरेटिव और ट्रोप के इतर, इसकी बुनियादी वजह यह है कि कांग्रेस 100 साल से ज्यादा समय तक देश की सत्ता में है। आजादी से पहले वह भारतीयों की सबसे बड़े प्रतिनिधि के तौर पर पॉवर बारगेन करती थी। आजादी के बाद उसे विभाजन के बाद बचे हुए भारत पर एकाधिकार प्राप्त हो गया। यह एकाधिकार कई दशकों तक बना रहा। पंचायत से लेकर पर्लियामेंट तक कांग्रेस ही कांग्रेस सत्ता में रही।

हर सत्ता एक रूलिंग क्लास (सत्ताधारी वर्ग) तैयार करती है। जिसे आजकल पेट्रोनेज नेटवर्क भी कहते हैं। कांग्रेस का पेट्रोनेज नेटवर्क 100 साल पुराना है। वह पीढ़ी दर पीढ़ी चला आ रहा है। पिछले 75 साल में देश के ज्यादातर प्रथम श्रेणी के अफसर, प्रोफेसर, एडिटर इत्यादि किसी न किसी रूप में कांग्रेस द्वारा अनुकम्पा प्राप्त रहे हैं। कुछ लोगों की तीन-चार पीढ़ियाँ कांग्रेस के पेट्रोनेज नेटवर्क की लाभार्थी रही हैं।

Advertisement. Scroll to continue reading.

देश के सिस्टम को नियंत्रित करने वाले ज्यादातर नॉन-पोलिटिकल पॉवर पोजिशन पर वही लोग विराजमान हैं, जो कांग्रेस के जमाने में सिस्टम का हिस्सा बने। उनका “कॉमन सेंस” कांग्रेस के ईकोसिस्टम में फलाफूला है। वह उसी लकीर के फकीर हैं। मीडिया, अकादमिया, अफसरशाही, कचहरी इत्यादि में सीनियर पोजिशन पर पहुँचने के लिए कम से कम 15-20 साल का अनुभव चाहिए होता है। पोलिटिकल पॉवर एक चुनावी लहर की सवारी से हासिल की जा सकती है लेकिन सत्ता को चलाने वाले अन्य इदारों पर नियंत्रण बनाने में लम्बा वक्त लगता है।

यही कारण है कि ज्यादातर सीनियर पत्रकार, सीनियर अफसर, प्रोफेसर, सीनियर वकील, जज इत्यादि कांग्रेस के प्रति सॉफ्ट कार्नर रखते हैं। पिछले 10 साल में जो लोग गैर-राजनीतिक पदों पर प्लेस हुए होंगे, वह अभी जूनियर या मिड लेवल तक ही पहुँचे होंगे। समाज द्वारा “बुद्धिजीवी” मान लिए जाने के लिए भी उम्र की एक सीमा पार करने के साथ ही, पॉवर सेंटर का सपोर्ट और नेटवर्क की जरूरत होती है। यही कारण है कि 40+ वाले ज्यादातर बुद्धिजीवी एंटी-बीजेपी और प्रो-कांग्रेस नजर आते हैं।

Advertisement. Scroll to continue reading.

10 साल पहले तक दिल्ली के बौद्धिक गलियारों में किसी का करियर खराब करने का अचूक तरीका था, उसपर “संघी” की चिप्पी चिपका देना। किसी मामूली बात पर सिस्टम के किसी लाभार्थी से असहमत होते ही आप संघी का सर्टिफिकेट पा जाते थे। आज भी बौद्धिक वर्ग में संघी होना एक तोहमत ही है, जो व्यक्ति की बौद्धिकता को संदिग्ध बनाने के काम आती है। संघी की चिप्पी जिसकी पीठ पर चिपक जाए, उसका बौद्धिक समाज चुपचाप सामाजिक बहिष्कार कर देता है।

यह ध्यान रखना चाहिए कि “बुद्धिजीवी” भी सिस्टम ही तैयार करता है। टीवी चैनल, अखबार, पत्रिकाएँ, लिट फेस्ट, प्रोफेसरी, एडिटरी, अफसरी इत्यादि के नेटवर्क से ही बुद्धिजीवी तैयार होते हैं। मसलन, एक नेशनल टीवी चैनल सिनेमा पर पीएचडी करने वाले को इंटरनेशनल अफेयर के विशेषज्ञ के तौर पर, हिन्दी साहित्य में पीएचडी करने वालो को सिनेमा विशेषज्ञ, राजनीति विज्ञान में पीएचडी करने वालों को साहित्य विशेषज्ञ के रूप में स्थापित कर सकता है। सच कहें तो ये सारे उदाहरण वास्तविक हैं।

Advertisement. Scroll to continue reading.

स्टेट पॉवर जिन संस्थानों के माध्यम से नरेटिव तैयार करती है, उन्हें तैयार होने में भी वक्त लगता है। पुराने संस्थानों में निर्णायक पदों पर अपने लोगों को प्लेस करने में वक्त लगता है। जिन पदों पर पोलिटिकल नियुक्ति होती है, वहाँ आप टॉप पर किसी को बैठा सकते हैं लेकिन उसके नीचे का पूरा अमला आप रातोंरात रिप्लेस नहीं कर सकते।

हिन्दी के बौद्धिक वृत्त में आज भी रजा फाउंडेशन, राजकमल प्रकाशन, रेख्ता फाउंडेशन इत्यादि “भाजपा” से बड़े पॉवर सेंटर हैं। पहल, आलोचना, संधान, हंस इत्यादि पत्रिकाओं में छपना आज भी बुद्धिजीवी का तमगा दिलवाता है। इन सारे संस्थानों में एंट्री के लिए एंटी-बीजेपी होना अलिखित शर्त है। संस्थागत जरूरतों और मजबूरियों की वजह से इन संस्थानों के भाजपा से बैकडोर रिलेशन हो सकते हैं लेकिन इनका फ्रंटफेस या शोरूम आज भी हार्डकोर एंटी बीजेपी वाला ही है।

Advertisement. Scroll to continue reading.

प्रो-बीजेपी होते हुए इनके शोरूम में आपकी एंट्री तभी होगी जब आप आपके पास सचमुच सत्ता के करीबी होने का ठोस प्रमाण होगा क्योंकि पोलिटिकल पॉवर से सभी को काम पड़ता है तो मौजूदा निजाम से काम निकलवाने के लिए कुछ चोर दरवाजों की जरूरत पड़ती है। जैसे एक कड़क कम्युनिस्ट प्रकाशक एक एनडीए नेता के माध्यम से अपनी पोती और फिर पोते का एडमिशन करवाते पाये गये। एक अन्य कट्टर भाजपा विरोधी लेखक एनडीए सरकार द्वारा पुरस्कार प्राप्त करते पाए गये। कट्टर एंटी बीजेपी लेखक प्रो बीजेपी मीडिया हाउस से पुरस्कृत होते देखे गये।

ऐसा भी नहीं है कि पुराने सिस्टम में प्रो बीजेपी लोग नहीं थे और नए सिस्टम में प्रो कांग्रेस, प्रो कम्युनिस्ट लोग नहीं आ रहे हैं। 100% शुद्ध फिल्टर बनाना लगभग नामुमकिन है। कुछ लोगों के विचार सिस्टम में रहते-रहते भी बदल जाते हैं। इसके अलावा सिस्टम में हर जगह कास्ट, रिलीजन, प्रदेश, भाषा, बाप-दादा के एंगल काम करते हैं। सबसे भरोसेमंद एंगल है पैसे का एंगल। पैसा देकर आप किसी भ्रष्ट नेता से वह काम करा सकते हैं, जो वैचारिक आधार पर कराना मुश्किल होगा।

Advertisement. Scroll to continue reading.

पुराने सिस्टम में भी इन चोर दरवाजों का इस्तेमाल करके लोग सिस्टम में जगह पाते रहे हैं। आज भी यही हो रहा है। लेकिन 100 में 20-30 लोग चोर दरवाजे से भले घुस जाएँ, ज्यादातर पोलिटिकल सिस्टम 70-80 प्रतिशत लोगों को फिल्टर करके ही एंट्री देता है। पहले भी यही होता था, आज भी यही हो रहा है, आगे भी यही होगा।

अतः कथित बुद्धिजीवियों द्वारा कांग्रेस को सर्वगुण सम्पन्न और भाजपा को सर्वगुण विपन्न मानना यही बताता है कि ये सारे लोग पुराने सिस्टम की पैदाइश हैं। हर सिस्टम ऐसे लोगों को पैदा करता है जो उसके नरेटिव को स्थापित कर सकें। जर्मन दार्शनिक कार्ल मार्क्स ने इसे सटीक शब्दों में यूँ कहा है, “The ideas of the ruling class are in every epoch the ruling ideas.” रूलिंग क्लास केवल राजनेताओं से नहीं तैयार होता है। देश में करीब 5000 सांसद-विधायक हैं। वे सिस्टम के शीर्ष पर हैं लेकिन करीब पाँच हजार जज, सीनियर एडवोकेट, एडवोकेट ऑन रिकॉर्ड, करीब सात हजार आईएएस, कुछ हजार राजपत्रित अधिकारी, कमीशंड सैन्य अधिकारी, कुछ हजार प्रोफेसर, कुछ हजार कारोबारी इत्यादि मिलकर रूलिंग क्लास बनाता है। इतने बड़े सिस्टम को रिप्लेस करने के लिए 10 साल बहुत कम हैं। 20-30 साल कम से कम चाहिए होंगे।

Advertisement. Scroll to continue reading.

यह भी ध्यान रखना चाहिए कि दशकों तक रही कांग्रेस की मोनोपोली आजादी के आन्दोलन की उपज थी। 1960 के दशक में उस मोनोपोली को गम्भीर चुनौती मिलनी शुरू हुई। भारत में लोकतंत्र दशक दर दशक पहले से मजबूत होता जा रहा है तो अब ऐसा नहीं होगा कि पहले की तरह किसी एक पॉवर सेंटर की मोनोपोली हो जाएगी। सत्ता का स्वभाव है कि उसके चैलेंजर जरूर पैदा होते हैं। यह भी तय है कि जितने पॉवर सेंटर होंगे, उतने तरह के बुद्धिजीवी होंगे।

भाजपा 10 साल और सत्ता में रह गयी तो संघी बौद्धिक जमात में “गाली” नहीं रह जाएगा। अगर भाजपा भी कांग्रेस की तरह 50 साल सत्ता में रह जाए तो बहुत सम्भव है कि बौद्धिक इदारों में तब “सेकुलर” उसी तरह की “चिप्पी” बन जाए जैसे पहले संघी हुआ करता था। पोलिटिकल डोमेन में तो यह शुरू भी हो चुका है।

Advertisement. Scroll to continue reading.
Click to comment

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *

Advertisement

भड़ास को मेल करें : [email protected]

भड़ास के वाट्सअप ग्रुप से जुड़ें- Bhadasi_Group

Advertisement

Latest 100 भड़ास

व्हाट्सअप पर भड़ास चैनल से जुड़ें : Bhadas_Channel

वाट्सअप के भड़ासी ग्रुप के सदस्य बनें- Bhadasi_Group

भड़ास की ताकत बनें, ऐसे करें भला- Donate

Advertisement