अभिषेक श्रीवास्तव-
कभी-कभी ऐसा होता है कि कोई पत्रकार जब लंबे समय तक एक आंदोलन को कवर करता है, तो उस आंदोलन के नेतृत्व के साथ उसका सुबह शाम का उठना-बैठना, हालचाल और दुआ सलाम का रिश्ता बन ही जाता है। फिर आंदोलन को नेता के आईने से वह देखने लगता है। एक ऐसा भी वक्त आता है जब पत्रकार खुद को आंदोलन का अघोषित प्रवक्ता और प्रॉपराइटर समझने लग जाता है। फिर एक दिन एक्शन होता है…
उस दिन पत्रकार को समझ नहीं आता कि जो तय हुआ था, उसके मुताबिक सब कुछ क्यों नहीं हो रहा। वो आंदोलनकारियों से एक्शन के बीचोंबीच सवाल पूछने लगता है इस अंदाज में गोया आंदोलनकारी लोग अपने नेतृत्व के किए समझौतों के प्रति जवाबदेह हों। उसे एक भी कनविनसिंग जवाब नहीं मिलता। वो और ज़ोर से वही सवाल दुहराता है। आंदोलनकारी नाराज हो जाते हैं। पत्रकार को लगता है ये तो धोखा हुआ है। आंदोलनकारियों ने नेतृत्व को ठग लिया है! वास्तव में, एक्शन के इस क्षण में खुद पत्रकार ही आंदोलनकारियों से ठगा हुआ महसूस करता है क्योंकि वो बैक ऑफ द माइन्ड खुद को ही नेतृत्व समझ रहा था।
ये समस्या स्वाभाविक है। इसके पीछे बुनियादी लोचा ये समझदारी है कि नेतृत्व के किए फैसलों के हिसाब से आंदोलन चलता है। ऐसा नहीं है। आंदोलन की दिशा और मंशा ही नेतृत्व को गढ़ती और बदलती है। अगर नेतृत्व ने कोई समझौता सरकार से किया था, तो सरकार के प्रति जवाबदेह वह नेतृत्व था। आंदोलनकारी जनता नहीं। नेतृत्व का काम अपनी जनता को कनविन्स करना था। नहीं कर सका, तभी जनता ने अपनी अलग राह ले ली। मूल बात ये है कि कोई भी आंदोलन और उसकी ताकत आंदोलनकारी जनता न तो सरकार के प्रति जवाबदेह है, न अपने नेतृत्व के कृत्यों के प्रति। आंदोलनकारी की जवाबदेही अपने instinct के प्रति होती है। नेता का काम उस instinct को समझना और संबोधित करना है।
इसीलिए पत्रकार द्वारा ऐसे चरम क्षणों में सवाल आंदोलनकारी से किया जाना न केवल टेक्निकली गलत है, बल्कि जन विरोधी भी है। पत्रकार को सवाल नेता से करना चाहिए, सरकार से करना चाहिए। आंदोलनकारी से नहीं। किसी भी सूरत में।