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सुख-दुख

पीपी सर की आख़िरी तस्वीर : माता पिता के सामने संतान का चले जाना…

ममता मल्हार-

माता-पिता के सामने संतान का जाना… इससे त्रासद कुछ नहीं होता। जीवन भर की फांस रह जाती है। सादर नमन आपको सर लेकिन धैर्य, सब्र, हिम्मत ईश्वर शक्ति दे जैसे शब्द उन माता-पिता के दुख आगे खोखले लगते हैं। अस्तित्व आपको अपनी शरण में ले।

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प्रियंका दुबे-

You cannot teach from distance / आप दूर खड़े होकर किसी को नहीं पढ़ा सकते – यह कहने वाले Pushpendra Pal Singh वास्तव में ऐसे दुर्लभ शिक्षक थे जिनका पूरा जीवन उनके डिपार्टमेंट में पढ़ने वाले बच्चों के लिए समर्पित रहा. अच्छे एक्स्पर्ट्स को बुलाना हो, गेस्ट लेक्चर हों, पढ़ाई हो या चौबीस घंटे के लिए लैब खुलवानी हो – हफ़्ते के सातों दिन सुबह से लेकर रात तक अपने स्टूडेंट्स के लिए जुटे रहने वाला, इतना उत्साहित और जुनूनी शिक्षक मैंने कभी नहीं देखा. छुट्टियों में जो बच्चे घर नहीं जा पाते, वो पीपी सर के साथ उनके घर पर होली/दिवाली मनाते.

यूनिवर्सिटी से निकलने के दशकों बाद भी अपने बीमार स्टूडेंट्स को देखने अस्पताल जाने से लेकर उनकी शादियों या उनके परिजनों के संसार छोड़ने तक जैसे मौक़ों पर मौजूद रहने वाला यह शक्स सही मायने में एक people’s person था- लोगों का आदमी. वे अपने छात्रों के जीवन में इस कदर involved रहते थे कि कोर्स ख़त्म होने के बाद भी बरसों उनके जीवन का हिस्सा रहते. मैंने उनसे लोगों के बीच में रहना और मेहनत करना सीखा. मुझ पर उनका विशेष स्नेह था – हमेशा कहते की प्रियंका को कुछ कहने-टोकने की ज़रूरत नहीं पड़ती …सेल्फ़ मोटिवेटेड लड़की है.

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हमारे हिंदी विश्वविद्यालय में जब मैंने अंग्रेज़ी में एक student paper निकालने का प्रस्ताव रखा तो उन्होंने उसे न सिर्फ़ माना, बल्कि बहुत प्रोत्साहित किया. मैं और मेरी सहेली Khushboo Joshi – हमने मिलकर अपनी यूनिवर्सिटी का पहला अंग्रेज़ी स्टूडेंट पेपर निकाला. यह तस्वीर 2010 की है …यहाँ तत्कालीन वाइस चांसलर के साथ पीपी सर दस पन्नों में फैले हमारे इस प्रयोग का विमोचन जैसा कुछ कर रहे हैं. वो मुझे सामने आकर उनके साथ खड़े होने को कह रहे हैं लेकिन अपने वर्तमान स्वभाव के अनुसार ही संकोच तब भी मुझ पर हावी था.

बाद के सालों में पीपी सर हमेशा बहुत प्रेम से मिलते रहे. दशक भर बाद भी सभाओं में लोगों से अपने पुराने छात्रों का परिचय कराते वक्त उनकी आँखों में ऐसी चमक होती जैसे हम उन्ही के घर के बच्चे हों. ऐसा था भी शायद – यूनिवर्सिटी उनका घर था और छात्र उनका परिवार. वे अब जा चुके हैं, इस बात पर हम में से किसी को अब भी विश्वास नहीं होता.

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