Shailesh Awasthi-
कानपुर : उनकी लाल मारुति कार ऑफिस की तरफ आते देख रिपोर्टर अखबार इस तरह पलटने लगते जैसे किसी परीक्षा से पहले परीक्षार्थी तैयारी करता है। सुबह 10.30 पर रिपोर्टर्स की मीटिंग में उनका पहला सवाल होता कि अखबार पढ़ा ? इसके बाद पहले से आखिरी पेज तक कोई भी खबर पर पूछते और फिर सही जवाब न मिलने उस रिपोर्टर की जमकर खिंचाई करते। उनका कहना था कि जो पढ़ेगा नहीं, वो लिखेगा क्या। अखबारनवीस को देश-दुनिया का ज्ञान ज़रूरी है, तभी वह खबरों की तह तक जाएगा, बेहतरीन एंगल सेट करेगा और किसी से बातचीत के दौरान सार्थक सवाल पूछ सकेगा। इसका नतीजा हुआ रिपोर्टर और सभी न्यूज़ डेस्क के साथी अखबार पढ़कर ही दफ्तर आते।
माला उतारते संपादक प्रदीप कुमार। मौका है संपादक वीरेन डंगवाल जी की विदाई समारोह का…
वह ख़बरों के आइडिया देते, एडिट करते और वर्तनी दुरुस्त करते। कहते कि गलती करो,लेकिन उसे रिपीट मत करो। वर्तनी, वाक्य और तथ्यहीन खबरों पर खूब क्लास लेते। “न काहू से दोस्ती न काहू से बैर”…। न तो किसी खबर से समझौता और न ही किसी से पूर्वाग्रह। सीधी बात, बिल्कुल मिर्च मसाला नहीं। न तो किसी नेता से मिलते न ही किसी अफसर से, कोई आया भी तो उसे चीफ रिपोर्टर के पास भिजवा देते। हां, कोई शिक्षक या बुद्धिजीवी मिलने आया तो उसका स्वागत। उन्हें अंतरराष्ट्रीय और राष्ट्रीय मामलों का गज़ब ज्ञान है। देश के चोटी के कूटनीतिज्ञों और विदेश मामलों के जानकारों से उनके निकट संबंध थे, जिसका लाभ अखबार को मिलता।
उनके लेख और सामयिक विषयों पर उनकी टिप्पणी अखबार में छपतीं थीं। एक रिपोर्टर तो मीटिंग के दौरान घबराहट में कम्प्यूटर के पीछे छिपने की कोशिश करते तो सबसे पहले उनकी आंखें उसे ही खोजतीं। एक-दो तो नौकरी छोड़ कर चले गए, लेकिन ज्यादातर उनके सानिध्य में निखरे और अभी भी बड़े अखबारों में संपादक की कुर्सी पर हैं। इसमें विश्वेश्वर कुमार, विजय त्रिपाठी, राजकिशोर, प्रदीप शुक्ल, पूनम मेहता भी हैं। उन्होंने कई को नौकरी दी।
गलती पर खिंचाई करते तो अच्छी खबर, अच्छे काम की जमकर तारीफ भी करते। खुद कोई श्रेय नहीं लिया, जिसने अच्छा काम किया, उसे नगद इनाम के साथ प्रशस्तिपत्र भी देते। उनके सानिध्य में काम करने के दौरान मुझे अखबार पढ़ने की आदत पड़ी, लिखने में सुधार हुआ और खबरों को एंगल देना सीखा। वह अखबार में गलतियों में गोले बनाकर लाते और दिखाते। नोटिस भी देते पर बाद में पता लगा कि उन्हें कभी “ऊपर” नहीं फारवर्ड किया। बेहद कड़क पर अंदर से उदार।
उनकी कलम से ही मुझे वरिष्ठ उपसंपादक पद पर तरक्की मिली। वह यहां तीन साल रहकर फिर “दैनिक भास्कर” चले गए। इसके पहले भी वह देश के नामी अखबारों में काम कर चुके थे। उनके लेख अभी भी देश के प्रमुख अखबारों में छपते हैं। एक हफ्ते पहले उनसे बात हुई तो वैसा ही जोश दिखा। साथियों के बारे में जानकारी ली और शुभकामनाएं दीं। ऐसे संपादक के साथ काम करना सौभाग्य है।
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