एक सरल, सहज, संजीदा और संवेदनशील संपादक….वीरेन डंगवाल

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Shailesh Awasthi-

उनमें निराला जैसा फक्कड़पन, बाबा नागार्जुन जैसी गंभीरता, मुक्तिबोध जैसी बेचैनी और बुद्धिमत्ता थी, वह राष्ट्रीय स्तर के कवि, साहित्यकार और बेहद संवेदनशील संपादक थे। गुस्सा भी ऐसा कि गज़ब के हास्य और तंज़पुट के साथ मुस्कुराकर भौयें चढ़ाकर बात कहते कि सामने वाला पानी-पानी हो जाता। जो मिलता, उनका कायल हो जाता। कभी किसी को आभास भी न होता कि वह देश के जाने-माने साहित्यकार से बात कर रहा है।

वह इतने सहज-सरल थे कि कोई अदना से ट्रेनी रिपोर्टर भी उनके केबिन में बिना अनुमति पहुच जाता। हर खबर पर पैनी नज़र, न्यूज़रूम का तनावरहित माहौल। आते ही खुद हर रिपोर्टर के पास जाते और पूछते क्या खास खबर लाए हो….। अच्छी खबर सुनते ही रिपोर्टर की कॉपी लेते, एडिट करते और दमदार हेडिंग लगाकर खबर चमका देते , मामूली सी खबर में उनका हाथ लग जाये तो शानदार हो जाती।

उनकी दी हेडिंग खूब चर्चित हुईं, एक तरह से आम बोलचाल और स्थानीय बोली में हेडिंग लगाकर एक ट्रेंड सेट किया। कुछ बानगी….”साझेदारी दुई टुकड़ा”…”अबकी चुनाव फागुन में”…”अंतरिक्ष का बूढ़ा सैलानी उत्तरी-पूर्वी क्षितिज पर”…”हरितक्रान्ति का सूत्रधार बूढ़ा वैज्ञानिक भूखा सो रहा है”…”सबके दीदे लगे अंध विद्यालय पर”…”गेहूं-आटा बेचकर भले बने हो नाथ”..”हवा हुये बुलबुल लड़ाने वाले दिन”…”कानून के हांथ से लंबे हैं बिलैया के ख़ूनी पंजे”….”फेथफुलगंज की आयशा को सलाम”…..”लालू अंदर”…।

कानपुर “अमर उजाला” में उनके तीन साल के कार्यकाल के दौरान मुझे उनके सानिध्य में काम करने का सौभाग्य मिला, बहुत सीखा जो खूब काम आया। विजय त्रिपाठी, राजीव सिंह, देशपाल पवार, विशेश्वसर कुमार, प्रदीप शुक्ला, जो उस दौरान कानपुर “अमर उजाला” में थे, कुछ समय बाद संपादक हो गए। विजय त्रिपाठी, जो इनदिनों लखनऊ “अमर उजाला” के संपादक हैं, उनके कार्यकाल में पहले पेज के इंचार्ज रहते खूब निखरे। उनके सिखाए न जाने कितने पत्रकार बड़े पदों पर हैं। अपनों के बीच वह “डंगवाल जी” नाम से प्रिय रहे। खुद्दारी, स्वाभिमान और सम्मान से रहे और पत्रकारों को ऐसा ही बनने की सीख देते। स्वाभिमान पर आई तो इस्तीफा दे दिया।

पत्रकारिता उनका शौक था लेकिन उनके भीतर आत्मा एक शिक्षक और कवि की ही थी। उनका काव्यसंग्रह “दुष्चक्र में दृष्टा”…बेहद लोकप्रिय हुआ। वह शमेशर पुरस्कार ही नहीं साहित्य के सर्वोच्च पुरस्कार “साहित्य अकादमी” पुरस्कार सहित कई सम्मान से नवाजे गए। उनकी रचना…”हमने यह कैसा समाज रच डाला है, ऊपर से जो चमकता अंदर से शर्तिया काला है”…, बेहद लोकप्रयि हुई। न जाने कितने कवि सम्मेलन मंच देश के चोटी के कवियों के साथ साझा किए, पर चमक-दमक से दूर रहे। उनकी महफिल में छोटे-बड़े का भेद न था। बेहद विनोदी स्वभाव के डंगवाल जी कवि, सहित्यकारों और पत्रकारों की महफ़िल की जान थे। वह “अमर उजाला” बरेली के संपादक और फिर अरसे तक समूह सलाहकार रहे। 2015 में उनका निधन हुआ तो साहित्य और पत्रकार जगत हतप्रभ था। वह कभी न भूलने वाले अभिभावक और ट्रेंडसेटर संपादक के रूप में याद आते हैं……।


Rakesh Dwivedi
आदरणीय डंगवाल जी की एक हेडिंग मुझे आज भी याद है। वह हेडिंग थी – ” सरकार गई ” । बहुत असरदायक थी। इसके सामने उस दिन दैनिक जागरण की हेडिंग बहुत फीकी लगी थी। उनके समय “मध्यमा “पेज भी शुरू हुआ था। मेरी कई खबरों को मध्यमा में स्थान मिला। इन खबरों के बदले में चेक मिले थे। रकम भले छोटी होती थी पर उत्साह बढ़ने की कीमत बहुत ज्यादा होती थी। डंगवाल जी का हर प्रयोग अत्यंत कारगर रहा। वैसे हेडिंग विजय त्रिपाठी सर के भी बहुत प्रभावशाली होते थे। मेरी कुछ खबरों पर उन्होंने बाई लाइन के साथ हेडिंग दी दी थीं, जो मुझे अभी तक याद हैं – बम्बई से खरीदकर लाई गईं दुल्हनियां रामपुरा में ला रहीं है एड्स” , ” कुत्तों वाले राजा की कहानी ” आदि।

Vishweshwar Kumar
डंगवाल जी के साथ काम करना पत्रकारिता जीवन की बड़ी उपलब्धि रही। उनकी डांट में भी मिठास होती थी।

अवध दीक्षित
बड़े भाई! अमर उजाला कानपुर में आ.बीरेन द (डंगवाल जी) ने अखबार में संपादकीय पेज पर “अलग कोना” कालम निकाला था। उसी समय ड्रॉप्सी रोग भी तेजी के साथ फैला था। जिस पर काफी कुछ लिखा गया था। अलग कोना कालम में मेरे भी चार पांच लेख प्रकाशित हुए थे जो काफी चर्चित रहे थे। डंगवाल जी से जो एक बार मिला। समझो उनका कायल हो गया। उनके सरल स्वभाव को कोई नहीं भूल सकता। यह संयोग ही है कि अभी कल ही (सोमवार) को घाटमपुर में डंगवाल जी की चर्चा हुई। मौका था उनके साथ बरेली में हिंदुस्तान में फोटोग्राफर रहे रोहित उमराव का घाटमपुर आना हुआ। बातों ही बातों में डंगवाल जी की चर्चा चलने लगी। और संयोग से आपने आज उनके बारे में लेख प्रस्तुत किया। जो सराहनीय है। इसके लिए आभार और धन्यवाद।

Sanjay Maurya
सर वीरेन डंगवाल जी जब मैं पत्रकारिता का डिप्लोमा कर रहा था उस दौरान क्लास लेने आते हैं वे उस वक्त अमर उजाला कानपुर में रेजिडेंट एडिटर के पद पर थे वह बहुत ही साहित्यिक मिजाजी पत्रकार रहे उनके समय में हम लोगों को अमर उजाला अखबार में संपादक के नाम पत्र में सभी से लिखने के लिए प्रेरित करते थे और उसे अमर उजाला में प्रकाशित भी करते थे उन्हीं के दौर में” क्रांतिकारी का बेटा दाने-दाने का मोहताज”नाम से इंदेब्थ स्टोरी हमने और विष्णु तिवारी जी के सहयोग से उस स्टोरी को तैयार किया था और वह अमर उजाला में बाई लाइन छपी थी। उनकी प्रेरणा हम सभी को मिलती रही। हालांकि वे हम लोगों के बीच में नहीं हैं । उनके साथ बिताए गए पल आज भी याद आते हैं।
ऐसी शख्सियत को सादर नमन

Misra Sarvesh
डंगवाल साहब ने मेरी भी कई खबरें चमकाई थीं। उनमें से एक थी-13 साल में बूढ़ी हो गई रेलवे की रानी । डंगवाल साहब की एक हेडिंग -अबकी चुनाव फागुन में खूब चर्चित हुई थी। ऐसे लोग विरले होते हैं, उनका सानिध्य मिलना किसी पुण्य फल से कम नहीं होता। संस्मरण पर उनका मुस्कुराता चेहरा आंखों के सामने घूम गया। उनको कोटि-कोटि नमन..

Vijay Tripathi
वो हमारे संपादक न होते तो हम संपादक न होते…

इसके पहले का पार्ट पढ़ें-

जब विशेश्वर कुमार ने अमर उजाला में मुझे क्राइम रिपोर्टिंग की जिम्मेदारी दी…

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