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सुख-दुख

गोरखपुरिया सर्किल वाले एक वरिष्ठ पत्रकार प्रमोद झा नहीं रहे

Raghvendra Dubey-

एक गोरखपुरिया टोली ( सर्किल ) थी , तड़ित कुमार , प्रमोद झा , विनय श्रीकर और जय प्रकाश शाही की जो तब , बारूदी गंध वाले इस शहर को नये और मानवीय ढंग से देखना प्रस्तावित करती थी । सब कुछ जस का तस चलते रहने देने के खिलाफ ये लोग अपने समय के सर्वाधिक नई तर्ज के पत्रकार थे । ये सभी एक्टिविस्ट और कवि भी थे इसलिये मानते थे कि एक बेहतर रपट और एक अच्छी कविता दोनों ही लिखने में एक सी ही प्रसव वेदना से गुजरना होता है । वरिष्ठ पत्रकार आलोक जोशी , प्रमोद झा के नजदीक अमृत प्रभात में आये । यह स्तब्ध कर देने वाली सूचना भी मुझे उन्हीं से मिली ।

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इस दुनिया से कमाल खान की रुखसती की भी सूचना मुझे आलोक जोशी जी से ही मिली थी । उनकी आवाज रुंधी थी और एक से दूसरे शब्दों के बीच बहुत उदास ‘ पॉज ‘ था ।

धारदार शब्द – भंगिमा , अर्थों की बारीक प्रस्तुति , अंतरदृष्टि पर बेहतर नियंत्रण के साथ जीवन में गहरे धंसने और किसी भी विधा को अपनी संवेदना का हिस्सा बना लेने का शऊर , सच कहिए तो मेंने , तड़ित कुमार , प्रमोद झा और विनय श्रीकर से सीखा । झा जी मार्क्सिस्ट थे । कहा जाता है कि उस समय पूर्वांचल में कोई पूरी अर्थवत्ता में एकेडमिक मार्क्सिस्ट था तो प्रमोद झा । इसके अलावा झा जी इतिहास , दर्शन , धर्म , संस्कृति और विश्व सिनेमा के इतिहास के भी गंम्भीर स्कॉलर थे ।
बहुत कुछ याद आ रहा है । यह 1993 – 94 होगा शायद । झा जी की दैनिक जागरण के स्थानीय संपादक , निदेशक मंडल के एकमात्र गैर परिवारी सदस्य और महाप्रबंधक भी , पंडित विनोद शुक्ल जी से बातचीत बन गयी थी । वह दैनिक जागरण के स्टेट ब्यूरो में ज्वॉइन करने वाले थे । एक दिन पहले तब दैनिक जागरण में पहले पन्ने ( डेस्क ) पर कार्यरत झा जी के एक गोरखपुरिया मित्र से ही पंडित विनोद शुक्ल ने पूछा –

कैसा रहेगा प्रमोद झा का चुनाव .. आप तो उनको बेहतर जानते होंगे ?

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देखिये डेस्क वर्क का इतना अनुभवी और शानदार परफार्मर तो पूरी हिंदी पत्रकारिता में नहीं है ।

पंडित विनोद शुक्ल जी ने अपना निर्णय बदल दिया और स्टेट ब्यूरो ज्वॉइन करने आये प्रमोद झा को डेस्क पर ज्वॉइन करा दिया । बहुत दिन तक प्रमोद झा मुझसे पूछते रहे — भाऊ , मेरे मित्र ( नाम नहीं ) ने मुझसे कब का बदला लिया ? मैंने उनका कुछ बिगाड़ा तो नहीं था ।

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आरके बैनर की फ़िल्म हिना की कोई मनौती बाकी रह गयी थी । दरअसल रजत पट या रील पर नेहरूवीयन समाजवाद का रूपक गढ़ने वाले जाने – माने शोमैन राजकपूर का पूरा परिवार , पिता पृथ्वीराज कपूर भी , शिव भक्त रहे हैं । रणधीर कपूर और ऋषि कपूर बाबा विश्वनाथ के दर्शन के लिये वाराणसी आये थे ।

आचार्य अशोक द्विवेदी जी ने मुझे वाराणसी बुलाया था ताकि दोनों अभिनेताओं की प्रेस से बातचीत में सहूलियत हो । यह भी कि मैं दोनों को थोड़ा सन्दर्भ समृद्ध कर दूं । मेरे साथ मेरे मित्र स्व. मनोज श्रीवास्तव भी थे । हम लोगों ने ऋषि कपूर के साथ दारू भी पी । अच्छी – खासी बातचीत हुई । विनोद शुक्ल जी ने वाराणसी जाने की अनुमति देते कहा था — लौटना तो कुछ लेते आना यानी ऑफबीट कॉपी ।

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दूसरे दिन मैं लखनऊ लौटा । कॉपी का कोई एंगिल सूझ ही नहीं रहा था । भागा दफ्तर गया , प्रमोद झा जी डेस्क पर बैठे हुए थे ।

अगर 10 मिनट की फुर्सत हो तो आपको चाय – पान करा दूं और कुछ बातचीत भी

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प्रमोद झा जी के साथ साहू सिनेमा वाली दुकान पर गया । उन्हें पूरी बात बताई । एकदम धारा प्रवाह शुरू हो गये वह । राजकपूर के फिल्मों की शिल्पगत और वैचारिक संरचना से लेकर उनकी कल्पनाशील रचनात्मकता पर । मेरी कॉपी बन गयी । जो पहले पन्ने पर फ्लायर या कहें टॉप बॉक्स थी । बाइलाइन पंडित विनोद शुक्ल ने खुद अपनी कलम से लगाई ।

प्रमोद जी को विनम्र श्रद्धांजलि।

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