शिक्षामित्र, पुलिसमित्र…. और अब प्रेसमित्र !

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आज आप को तीन मित्रों की कहानी बताता हूं. दो मित्र तो पहले से हैं लेकिन तीसरे मित्र की एंट्री मैं कराऊंगा. एंट्री कराना लाजमी भी है क्योंकि तीसरे मित्र की विशेषता भी पहले दो मित्रों की ही तरह है. वह दो मित्र हैं शिक्षामित्र और पुलिसमित्र। जिस मित्र की एंट्री हो रही है, वह है प्रेसमित्र. शुरुआत करते हैं शिक्षामित्र से.

शिक्षको के सहयोग में कुछ दिन पहले भर्तियाँ की गयीं जो पार्षदों द्वारा हुईं, जिनको नाम मिला शिक्षामित्र. स्वाभाविक है पार्षद उन्ही को फायदा दिलाएंगे जिनसे उनका फायदा हो. यह वो लोग  हैं जो क्षेत्र के दबंग और इलाके में दबदबा रखने वाले होते हैं, जो पार्षदों के वोटबैंक पर असर डाल सकते है. लेकिन बदलते परिवेश में शिक्षामित्र मेहनत करते हैं और पठन-पाठन पर ध्यान भी देते है. अब बात आती है पुलिसमित्र की. पुलिसमित्र बनना बिलकुल ही आसान है. कहा तो यह भी जा रहा है कि पुलिस के मुखबिरों को ही तमगा दिया गया है पुलिसमित्र का. फिर धीरे-धीरे समाज संगठन से जुड़े लोग भी पुलिसमित्र बनाए गए और कुछ लोगो को बनाने की कवायद चल रही है. यह वही समाज संगठन से जुड़े लोग हैं जो त्यौहारो पर चौराहे, धर्मस्थलों या भीड़-भाड़ वाले जगहों पर डंडा या माइक से जनता से पुलिस का सहयोग करने के लिए अपील करते दिखते है. अब स्थिति यह है कि कई पुलिस चौकियों पर समाज संगठन या पुलिस मित्रो का दबदबा है. पुलिसमित्र पुलिस के भ्रमण दस्ता (फैंटम ) पर होमगार्डो का स्थान लेते दिख रहे है. कांस्टेबल होमगार्डो के स्थान पर अब पुलिसमित्र के साथ क्षेत्र भ्रमण में खुद को सहज महसूस कर रहे है. फैंटम दस्ता पर बैठने के बाद पुलिसमित्र वायरलेस सेट और पुलिस डंडे से लैस हो जाते हैं, मानो पूरे कानून को कांस्टेबल ताख पर रख देता है. अब कांस्टेबलों की वसूली के स्थान पर यही पुलिसमित्र ही जाने लगे हैं. यदि सरसरी निगाह दौड़ाएं तो पता चलता है कि अधिकांश पुलिसमित्र वही हैं जो अव्वल दर्जे के आवारा या फिर अपने इलाके का बदनाम. खैर अब बारी प्रेसमित्र की. 

अब तक प्रेसमित्र का कोई पद नही है मगर आप सोच रहे होंगे कि मै प्रेसमित्र की एंट्री क्यों करा रहा हूं. तो आइए आप को गहराईयों तक ले चलते हैं. यह सब देख रहे हैं कि प्रत्येक शहर में “प्रेस” लिखी गाड़ियों की भरमार है. प्रत्येक शहर में झोले में पत्रकार संगठन चल रहे हैं. जिनका पत्रकारों के हित से कोई वास्ता नही है. बस इनके घर की सब्जी आने से मतलब है. ऐसे संगठन और छोटे अखबार के लोग प्रेस कार्ड बेचकर आसानी से पैसे कमा लेते हैं. ऐसे लोग चाय, पान, सब्जी, दूध बेचने वालों और इलाके के बदनामों को भी चन्द पैसों के लिए आसानी से प्रेस कार्ड उपलब्ध कराते हैं. ऐसे लोगों का अखबार की खबरों, अख़बार के विकास से कोई मतलब नहीं, इनको चाहिए सिर्फ भौकाल. आज पत्रकारों की जो भी प्रतिष्ठा धूमिल हो रही है, उनके पीछे मुख्य कारण यही है. ऐसे ही कार्डधारक गाड़ी पर मोटे अक्षर में “प्रेस” लिखवाकर अवैध कार्य करते हैं और थाने – चौकियों की दलाली करते हैं. कई जनपदों में प्रेस लिखी गाड़ियों से दूध और कपडे़ भी ढोए जाते हैं. अब कुल लाकर ऐसे कार्डधारक को आप भी कहेंगे- यह है प्रेसमित्र.



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Comments on “शिक्षामित्र, पुलिसमित्र…. और अब प्रेसमित्र !

  • तारिक आजमी says:

    बात तो सही है परन्तू इसके जिम्मेदार हम खुद है हमने इतनी आज़ादी दी है मै तो एक ऐसे महान को भी जानता हू ज्नके सम्पादक हमेशा सच की लडाई लडते है मगर वो सज्जन सच पर माडवाली करते हुवे पुलिस के अगल बगल नजर आते है

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