ख़ुशदीप सहगल-
स्वस्थ लोकतंत्र की पहचान होती है सत्ता पक्ष के साथ मज़बूत विपक्ष…इसलिए विपक्षी पार्टियों के गठबंधन (राजनैतिक दलों को अपनी ओर से इंडिया कह कर प्रचारित करने का मैं अनुमोदन नहीं करता) की ओर से 14 एंकर्स का बहिष्कार किए जाना किसी के लिए खुशी या किसी के लिए दु:ख की बात नहीं बल्कि समस्त भारतीय पत्रकारिता के लिए शर्म की बात है, आत्मचिंतन की बात है…
ये उसका पत्रकार है, ये हमारा पत्रकार है…जैसे घरों का बंटवारा होता है ऐसे ही देश में अब हर चीज़ बांटने के प्रयास होते नज़र आते हैं…जाति, धर्म को दूर ही रखो, आज जिस तरह बॉलिवुड बांट दिया गया, उत्तर दक्षिण बंटा है, भारत इंडिया बांटा जा रहा है, पत्रकारिता भी उसी ढर्रे पर है…
ग़लती दोनों तरफ़ से हो रही है…जिन एंकर्स के नाम विपक्षी गठबंधन ने गिनाए, वो इसे सीने पर बैज की तरह प्रचारित कर रहे हैं…कह रहे हैं, हमें विपक्ष से सवाल पूछने का ये सिला मिला…यानि किसी भी लोकतंत्र का अहम हिस्सा विपक्ष मिल कर आपको कटघरे में खड़ा कर रहा है, तो भी आपको कोई मलाल नहीं…दिल पर हाथ रख कर ये सोचने की जगह हमने सत्तापक्ष से पिछले नौ साल में कितने सवाल पूछे, हमने क्यों नहीं कर्ताधर्ता को पिछले नौ साल में एक भी प्रेस कॉन्फ्रेंस करने के लिए मजबूर किया…उलटे इन 14 में से कई एंकर्स कोई शर्म दिखाने की जगह चौड़े होकर अपनी शान में ट्वीट कर रहे है…हम तो नूं ही चलेंगे…
वहीं हर सिक्के की तरह तस्वीर का दूसरा पहलू भी है…विपक्ष ने ये क्यों नहीं सोचा, ये एंकर्स तो किसी की नौकरी बजा रहे हैं, जो संस्थान उन्हें ऐसा करने की छूट दे रहे हैं, उनका बहिष्कार करने की हिम्मत क्यों नहीं दिखाई…रवीश कुमार जिस तरह की पत्रकारिता करना चाहते थे, वो कर पाए क्योंकि एनडीटीवी इंडिया में उनके पीछे डॉ प्रणय रॉय मज़बूती से खड़े थे…उनके हरी झंडी दिए बिना क्या रवीश ऐसा कर पाते…
खांचों में बंटी पत्रकारिता के दूसरे छोर पर खड़े यूट्यूब पत्रकारों को भी सिर्फ मोदी विरोध में ही अपनी दुकान चलती नज़र आती है…अरे भाई लोगों देश में एक अरब चालीस करोड़ लोग हैं तो उतनी ही कहानियां भी होंगी…उस ओर तुम्हारी नज़र क्यों नहीं जाती…
पत्रकारिता के पितामह गणेश शंकर विद्यार्थी ने कहा था- पत्रकार को हमेशा सत्ता के ख़िलाफ़ रहना चाहिए तभी वो जनता का हित कर सकता है, उसे ये देखना चाहिए कि सरकार छुपाना क्या क्या चाहती है…जो बताना चाहती है उसे बताने के उसके पास तो सौ तरीके हैं…
लेकिन विद्यार्थी जी ने ये रास्ता देश में आखिरी पायदान पर खड़े व्यक्ति की भलाई के लिए सुझाया था, अपने स्वार्थ या हित साधने के लिए नहीं…
प्यार को प्यार ही रहने तो कोई नाम न दो,
पत्रकारिता को पत्रकारिता ही रहने दो,
इसे किसी से रिश्ते रखने का इल्ज़ाम न दो…