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सियासत

राहुल गांधी की सहजता और हमारा हिंदी समाज!

अविनाश पांडेय ‘समर’-

राहुल गांधी की भारत जोड़ो यात्रा में लोग बहुत कुछ देख रहे हैं पर मेरी निगाह राहुल और साथियों की सहजता पर ही टिकी रहती है।

दादी की उमर की कोई स्त्री आईं और बाहों में भर लिया। राहुल एकदम सहज।

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पेंट से एकदम काली हो गई शर्ट पहने मैकेनिक आया, गले लग गया, राहुल एकदम सहज।

कोई छोटी सी बिटिया आई, जूतों के फ़ीते खुल गए, राहुल एकदम सहजता से बैठ बांधने लगे।

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राहुल की उमर की, प्रेम कर सकने वाली उमर की कोई लड़की आई, ज़ोर से राहुल को भींच लिया, राहुल एकदम सहज।

मुझे उनको देख कर अपनी ख़ुद की यात्रा याद आ रही है- उस समाज से निकल कर जिसमें जवान हो जाने के बाद आप अपनी सगी बहन को भी गले नहीं लगा सकते थे क्योंकि यही असहजता हमारे समाज का स्थाई भाव है। कुल मिला के एक अपवाद होता था बहन की विदाई- जिसमें दर्द इस असहजता के पार हो जाता था और एक बार आप बहन को ज़ोर से भींच लेते थे।

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उसमें भी कोई भाभी चाची बुआ मामी तुरंत हटा देती थीं, रिश्तों की सारी पवित्रता के बावजूद।

मेरी असहजता मुझे पहली बार समझ आई जब इलाहाबाद से जेएनयू आया और एक पुरानी, तमाम संघर्षों/सेमिनारों में मिलती रही दोस्त ने गले लगा लिया। उसे कोई फ़र्क़ नहीं पड़ रहा था उसकी स्त्री देह का और मैं घूमा जा रहा था कि कहीं “इधर उधर” टच ना हो जाए।

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ख़ैर, धीरे धीरे वह असहजता दूर होती गई, समझ आया कि “स्त्री होने के बावजूद कोई दोस्त हो सकती है” और देह हर रिश्ते में निर्णायक नहीं है।

फिर तो वहाँ तक गए कि तमाम स्त्री मित्र कमरे में सो सकती थीं, घूमने जा सकती थीं, पुरुष मित्रों की तरह ही मज़ाक़ भी कर ही सकती थीं और इनमें से कुछ भी “आमंत्रण” नहीं होता था। दोस्त दोस्त है, प्रेम प्रेम और सबसे बड़ा- सहमति सहमति।

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इसका भी सबसे बड़ा पाठ एक छुटकी ने सिखाया- एक दोस्त जो जूनियर था उसके साथ मिली। देर रात तक गोदावरी ढाबे पर बात करती रही। भैया आपको पढ़ना अच्छा लगता है, ये वो। फिर बोली अब फ्लैट में क्या जाऊँगी बहुत देर हो गई। जूनियर के रूम पर आ गई और बोली आप दोनों ज़मीन पर सो जाओ, मैं बेड पर सो जाती हूँ। मैं देखता रह गया था उसे- एक, सिर्फ़ एक वाक्य में उसने कितने क़िले तोड़ दिए- मैं सीनियर था, बड़ा था, पुरुष था। जीवन भर स्त्रियों को पुरुषों के बाद खाते, सबसे दुष्कर जगहों में सोते देखा था। यहाँ मैडम बोलीं ज़मीन पर सो जाइए आप दोनों। (नोट 1- जेएनयू इसी वजह से उनकी आँखों में गड़ता है। नोट 2- सोचा पहले ये हिस्सा लिखूँ या नहीं, पर फिर लगा ज़रूरी है।)

राहुल मेरी तुलना में बेशक बहुत प्रिविलेज्ड लोकेशन से हैं- पर उनकी ये सहजता बहुत मानीखेज़ है उस देश के लिए जहाँ न्यायपालिका भी बहुत बार निराश करती है- समाज का तो कहना ही क्या- जिसे लड़कियों की जीन्स छोड़िए, चाऊमिन तक से दिक़्क़त है!

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