राहुल गांधी का आज का भाषण उन्हें बहुत आगे ले जाएगा। उन्होंने दिल्ली में खड़े होकर जो लाइन कांग्रेस और बीजेपी के बीच खींची है अगर उसे कायम रख पाए तो कोई वजह नहीं कि कांग्रेस की अगली जीत के नायक वही हों। कई और ठीक-गलत बातों से हट कर उन्होंने आज जो बार-बार कहा, वो था ‘डरो मत’। ना राहुल ने यूपीए के विकास कार्य गिनाए, ना राहुल ने हिंदू-मुस्लिम की बात की, ना राहुल ने एनडीए के घोटाले बताए… उन्होंने जो कहा वो सिर्फ इतना था कि बीजेपी- संघ परिवार ‘डराओ’ की लाइन पर चलते हैं जबकि कांग्रेस का हाथ ‘डरो मत’ कहता है। वोटर ऐसी सीधी बात ही समझता है, जबकि सीधे-सादे इन दो शब्दों के अर्थ कहीं ज़्यादा गहरे और सच्चे हैं।
राहुल ने आज सुबह के भाषण में मीडिया का हवाला दिया था। दोपहर भी वही दोहराया। उन्होंने जो ऊपर-ऊपर कहा लेकिन समझा दिया वो इतना ही था कि पत्रकार सरकार के खिलाफ लिखते हुए डरने लगा है। इसके अलावा उन्होंने कहा कि आज़ादी के बाद कांग्रेस ने जहां संस्थानों को इज़्ज़त दी और उनको बनाए रखा वहीं बीजेपी ने उनके अधिकार छीनकर उन्हें अपाहिज (बीजेपी के अपने शब्दकोष के मुताबिक दिव्यांग) बना दिया। मीडिया हो या आरबीआई सभी सरकार से थोड़ा डर कर चल रहे हैं। यही सब संस्थाएं कांग्रेस के शासन में भी थीं लेकिन इनका काम खुलकर जारी था। किसे याद नहीं कि मीडिया राहुल और सोनिया पर कैसे-कैसे तंज करता था। बिलो द बेल्ट जाकर सोशल मीडिया में कहानियां बांची जाती थीं। पर्सनल अटैक की तो कोई सीमा तय ही नहीं की गई। उस वक्त कोई पीएम पद की प्रतिष्ठा की बात करता ही नहीं था, सोनिया को भी महिला होने के नाते सम्मान नहीं दिया गया।
कांग्रेस लाठी-डंडे लेकर प्रभात फेरी और पथ संचलन नहीं करती थी। ना उसके कार्यकर्ता किसी खास दिन मारपीट करके बाज़ार बंद करवाने सड़कों पर उतरते थे। कोई भावना दुखने पर भी कांग्रेस के चमचे सोशल मीडिया पर गालियों की बाढ़ नहीं लाए। इनमें से किसी ने पत्रकारों और चैनलों के घटिया नाम नहीं रखे। असहिष्णुता का ऐसा माहौल नहीं था जिसमें कलाकार असहज महसूस करता हो। कौन सा फिल्म सेंसर बोर्ड का अध्यक्ष उस वक्त संस्कारी बॉस बनकर कलाकारों की मेहनत पर कट मार रहा था? वो सरकार करप्ट होगी .. लेकिन उसने इस्तीफे भी लिए और मंत्री पद से हटाकर लोगों को जेल भी भेजा। हालांकि मैं फिर भी यूपीए को बरी नहीं करता पर उस वक्त आलोचना करनेवालों की तरफ आंखें नहीं तरेरी गईं।
कैग की रिपोर्ट तक सरकारी दबाव के बिना आती थी और सरकार की ही पोल खोल कर धर देती थी। हो सकता है ये इमरजेंसी लगाने का भूत रहा हो जिसने हर कांग्रेसी सरकार को संस्थानों का सम्मान करने के प्रति अधिक कॉन्शियस रखा जबकि बीजेपी वाले इसी ओवर कॉन्फिडेंस में दूसरों की आज़ादी कम करते चले गए कि हमसे ज़्यादा लोकतंत्र के लिए भला कौन लड़ा है ? राहुल ने जिस ‘डर’ की भावना को आज लफ्ज़ दिए हैं वो उनका कल्याण कर सकती है बशर्ते आगे भी वो भ्रम में ना पड़कर सीधी बात करें। विरोधी तो मज़ाक अब भी बनाएंगे लेकिन उन्हें नज़रअंदाज़ करना मुश्किल हो रहा है। लोकतंत्र में एक कमजोर विपक्ष अगर अब ताकत जुटा रहा है तो ये लोकतंत्र के लिए अच्छा ही है। वैसे भी किसी पार्टी का मुकाबला कोई पार्टी ही कर सकती है, एनजीओ या मीडिया नहीं।
सोशल मीडिया के चर्चित युवा लेखक नितिन ठाकुर की एफबी वॉल से.