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सुख-दुख

यूं ही कोई रवीश कुमार नहीं बन जाता!

प्रभाकर मणि तिवारी, कोलकाता

बीते एक सप्ताह के दौरान अगर मीडिया की कोई खबर सुर्खियों में रही तो वह था एनडीटीवी का बिकना और उसके स्टार पत्रकार रवीश कुमार का इस्तीफा देना. रवीश के इस्तीफे को भुनाने के लिए लोग-बाग और खासकर यूट्यूब चैनल चलाने वाले ऐसे पिल पड़े थे मानों वे उनके लंगोटिया हों. शायद उनकी व्यावसायिक मजबूरी रही होगी अपनी दुकान चलाने के लिए. इनमें कुछ लोग तो ऐसे भी थे जो पहले पानी पी-पी कर कोसते थे और अब उनकी शान में लगातार कसीदे पढ़ रहे थे. ऐसा नहीं है कि रवीश को खुद अपने इन शुभचिंतकों के बारे में जानकारी नहीं होगी.

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मैंने सोचा कि जब यह गुबार थम जाए तो मैं भी इस मुद्दे पर अपनी राय जताऊं. दरअसल, रवीश कुमार का इस्तीफा अगर हाल में सुर्खियों में रहा है तो यह बेवजह नहीं है. कोई भी यूं ही रवीश कुमार नहीं बनता. इसके लिए वर्षो की लगन, मेहनत और अपनी धुन का पक्का होना जरूरी है. यह बात जरूर है कि इसके लिए एक ठोस मंच जरूरी होता है. वह मंच उनको मुहैया कराया एनडीटीवी और उसके मालिक प्रणय रॉय ने. लेकिन महज मंच से कुछ नहीं होता. एनडीटीवी में तो सैकड़ों दूसरे स्वनामधन्य पत्रकार भी काम करते रहे हैं. और उनके सबके पास आईआईएमसी की डिग्री वगैरह भी थी. लेकिन आखिर कोई दूसरा रवीश कुमार क्यों नही बन सका? दरअसल, रवीश को रवीश बनाया उनकी जनपक्षधर पत्रकारिता ने. वह चाहे गंदी बस्तियों में साफ-सफाई और रहन-सहन के स्तर का मामला हो या फिर नौकरी के लिए मारे-मारे फिर रहे देश के लाखों-करोड़ों बेरोजगारों का. अपनी रिपोर्टिंग के दौर में रवीश हमेशा उनके साथ खड़े नजर आए.

किसी भी व्यक्ति के अर्श तक पहुंचने के दौरान उसके दामन पर कुछ छींटे पड़ना स्वाभाविक है. रवीश भी इसका अपवाद नहीं हैं. उन पर कई तरह के आरोप लगते रहे. कभी कांग्रेस के समर्थन या उसके नेताओं से तीखे सवाल नहीं पूछने का तो एनडीटीवी में बड़े पैमाने पर हुई छंटनी के दौरान चुप्पी साधने का. इन आरोपों में कितना दम है, यह तो मैं नहीं जानता. रवीश भी हाड़-मांस से ही बने हैं. एक इंसान में जितने गुण-अवगुण हो सकते हैं, कमोबेश उनमें भी होंगे. ऐसे में हो सकता है वे कइयों की उम्मीदों पर खरे नहीं भी उतर सके हों. लेकिन कोई भी व्यक्ति दुनिया में सबको खुश तो नहीं रख सकता न.

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अब यह जरूर देखने में आ रहा है कि कभी पानी पी-पी कर रवीश और उनकी पत्रकारिता या आचरण को कोसने वाले कुछ लोग भी उनसे मित्रता का दंभ भरते हुए उनकी शान में लगातार कसीदे पढ़ने में जुटे हैं. मुझे नहीं लगता कि रवीश कुमार को इसमें कोई आपत्ति होगी. अगर उनकी सराहना करने से आपके सब्सक्राइबर बढ़ते हों या आपकी इमेज निखरती हो तो भला रवीश को क्या आपत्ति हो सकती है?

हां, एनडीटीवी के बिकने और रवीश के इस्तीफे से एक तबका जरूर खुश है. शायद उनको लगता है कि नौकरी जाते ही रवीश के सामने भूखों मरने की नौबत आ जाएगी. ऐसे लोगों के लिए ही गालिब बहुत पहले कह गए हैं—दिल को बहलाने का गालिब ये ख्याल अच्छा है. एक वक्त था जब सैकड़ों में से एक पत्रकार के रूप में रवीश कुमार बनने का सफर पूरा करने के लिए उनको एनडीटीवी जैसा मंच मिला था. लेकिन अब वो जिस मुकाम तक पहुंच चुके हैं वहां वह खुद ही एक मंच बन चुके हैं.

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आखिर में, साफ कर दूं कि मैं रवीश को निजी तौर पर नहीं जानता, कभी उनसे नौकरी नहीं मांगी, उनके किसी कार्यक्रम में नहीं गया और न ही भविष्य में मुझे कहीं नौकरी करनी है. इसलिए जो कुछ लिखा हूं वह मन की बात है, दिल की बात है, किसी स्वार्थ से प्रेरित नहीं.

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