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सुख-दुख

पचास के सचिन और एक रिपोर्टर की पहली मुलाक़ात!

मनु पंवार-

जब मैं सचिन के सामने नि:शब्द था.…

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सचिन तेंदुलकर पचास बरस के हो गए हैं। उनसे जुड़ा एक पुराना किस्सा सुबह से दिमाग़ में घूम रहा था। दिनभर की व्यस्तताओं से निपटने के बाद अब जाकर शेयर करने का मौका मिला है।

किस्सा है साल 2002 का। नवम्बर महीने की बात है। उस समय मैं उत्तर भारत के एक प्रमुख अख़बार ‘अमर उजाला’ के हिमाचल प्रदेश ब्यूरो में शिमला में बतौर संवाददाता कार्यरत् था। उन दिनों वेस्टइंडीज़ की क्रिकेट टीम भारत दौरे पर आई हुई थी। लेकिन मांसपेशियों में खिंचाव की वजह से सचिन तेंदुलकर एक दिवसीय क्रिकेट मैचों की उस सीरीज़ से बाहर थे।

उनके फिजियोथेरेपिस्ट ने उन्हें आराम की सलाह दी, तो सचिन परिवार समेत निकल पड़े शिमला की वादियों में। शोर-शराबे से दूर इस पहाड़ी शहर में उन्होंने 6 दिन की छुट्टियों का भरपूर लुत्फ उठाया। ओबरॉय ग्रुप के होटल ‘वाइल्ड फ्लावर हॉल’ में उन्होंने पत्नी अंजलि, बेटी सारा और बेटे अर्जुन के साथ वो दिन बिल्कुल घरेलू अंदाज़ में बिताए। शिमला प्रवास में वह बेटे अर्जुन और बेटी सारा के दुलार में क्रिकेट की व्यस्तताओं की थकान उतारते रहे। शिमला ही इक शहर है जहां ओबरॉय ग्रुप के तीन बड़े होटल हैं…ओबरॉय सेसिल, ओबरॉय क्लार्क्स और वाइल्ड फ्लावर हॉल…। ओबरॉय ग्रुप के संस्थापक मोहन सिंह ओबरॉय ब्रिटिशकालीन होटल सेसिल में क्लर्क थे। बाद में मालिक बने।

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बहरहाल, शिमला के सचिन प्रवास के दौरान हमारी बेचैनी बढ़ी रही। ‘क्रिकेट का भगवान’ हमारे ही शहर में पहुंचा था। उस दौरान अपनी रुटीन बीट पर जाते-जाते बस यही जुगत करता रहा कि काश, किसी तरह सचिन तेंदुलकर का इंटरव्यू हो जाए। प्राय: हर पत्रकार इस ताक में रहता है कि वह किसी बड़ी सेलिब्रिटी को लपक ले और उसका इंटरव्यू करे। फिर सिलेब्रिटी भी सचिन जैसा!

लेकिन तमाम कोशिशों के बावजूद शुरुआती पांच दिन सचिन से मुलाकात कराने को कोई राजी ही नहीं हुआ। हमने अपने सारे संपर्क और सारे सूत्र झोंक लिए थे लेकिन मायूसी हाथ लगी। हमें होटल प्रबंधन से मालूम हुआ कि सचिन ने उनसे अपनी निजता का ख़्याल रखने की गुजारिश की है। हालांकि शिमला में एक फोटो जर्नलिस्ट, शायद Anil Dayalथे, बड़ा जिगर वाला निकला। उसने एक दिन बड़ा जोखिम उठाकर ओबरॉय ग्रुप के होटल ‘वाइल्ड फ्लावर हॉल’ के पास वाले जंगल में सचिन और उनके बेटे अर्जुन की तफरीह करती तस्वीर खींच ली, लेकिन सचिन को किसी रिपोर्टर से बात करने का मौका नसीब नहीं हुआ।

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हमारी कोशिशें रंग लाईं आखिरी दिन। सचिन के दौरे के पांचवीं शाम को होटल प्रबंधन से मालूम हुआ कि सचिन तेंदुलकर अपने प्रवास के आखिरी दिन हमसे मिल सकते हैं। मेरी वो रात कैसे गुजरी इसका बयां करना मुश्किल है। सर्दियों की वो रात मुझे इतनी लम्बी कभी नहीं लगी। कल सचिन से मिलना है, यह बात सोच-सोचकर सो नहीं पाया सारी रात। मैंने सवालों का एक बड़ा ज़खीरा तैयार किया। सोचा- क्रिकेट के भगवान से पूछूंगा कि करोड़ों लोगों की उम्मीदें कैसे ढो रहे हो इतने बरस से?

16 नवम्बर 2002। यही वह तारीख़ थी जब पहली बार सचिन तेंदुलकर मेरे सामने थे। पहाड़ के एक छोटे से कस्बे से आए मेरे जैसे एक निम्म मध्यमवर्गीय परिवार के लड़के के लिए यकीन करना मुश्किल था कि मैं सचिन तेंदुलकर से मिल रहा हूं। वो सचिन जिसकी धुरी पर भारतीय क्रिकेट घूम रही थी। 1989 में जब वह पहली बार सचिन पाकिस्तान दौरे पर गए, सचिन के क्रिकेट को तब से टीवी पर देख रहा था। उस वक़्त 16 साल के उस चमत्कारी बालक ने लेग स्पिनर अब्दुल कादिर के एक ओवर में 4 छक्के जड़ दिए थे, तब से तेंडुलकर के साहसिक खेल पर अभिभूत रहा हूं।

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नब्बे के दशक में जब न्यूज़ीलैण्ड दौरे पर भारतीय क्रिकेट टीम गई होती थी तो सचिन को खेलते देखने के लिए मध्य रात्रि 2 बजे का अलार्म लगाकर जगता था क्योंकि रात ढाई बजे से मैच शुरू हो जाता था। मैंने टीवी पर वह मैच भी देखा था, जब पहली बार सचिन ने वनडे मैचों में ओपनिंग की थी और न्यूज़ीलैण्ड के तेज़ गेंदबाज़ डैनी मॉरिसन की गेंदों की धज्जियां उड़ा डाली थीं।

मैकग्रॉ, वसीम अकरम, वकार यूनुस, एलन डोनल्ड जैसे तमाम समकालीन तूफानी गेंदबाज़ों की सचिन के हाथों धुनाई और सचिन की तमाम अन्य करिश्माई पारियां मेरे मानस पटल पर फ्लैशबैक की तरह घूमने लगीं। उसी करिश्माई क्रिकेटर से मुलाकात थी। सचिन से वह मुलाक़ात अब भी आंखों में क़ैद है।

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बहरहाल मैं 16 नवम्बर 2002 को अपने ब्यूरो चीफ़ राजेन टोडरिया जी के साथ शिमला के होटल ‘वाइल्ड फ्लावर हॉल’ पहुंचा। जिस जगह पर सचिन से मुलाकात तय थी मैं वहां बैठा लेकिन धड़कनें बढ़ी हुई थीं। अजीब तरह की उत्सुकता, अज़ीब तरह की बेचैनी, अजीब तरह का उत्साह था। अपने नायक से मिल रहा हूं। सचिन से मिल रहा हूं। न जाने कितनी बार मैं मेरी नज़रें उस लिफ्ट को निहारती रहीं जहां से सचिन को नीचे आना था। मैं एक नज़र अपनी नोट बुक में दर्ज सवालों पर दौड़ाता और एक नज़र उस लिफ्ट की तरफ।

आखिर वो पल आया। सचिन हमारी ओर आ रहे थे। ब्लैक कलर की राउंड नेक टी-शर्ट पहले, होंठों पर मुस्कान बिखरते। एक भद्र सी आवाज़ कानों में गूंजी- हैलो… ! यह सचिन तेंदुलकर थे। ठीक मेरे सामने। मैं एकदम अवाक् था। मेरे लिए बेहद विस्मयकारी क्षण थे। क्या मैं वाकई सचिन से मिल रहा हूं? मैं विस्मय से उन्हें निहारता रहा। मन ही मन सोचता रहा- क्या ये वही बालक है जिसने दुनिया के गेंदबाज़ों की नींद उड़ा रखी है।

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यकीन मानिए मैंने तब सचिन के व्यक्तित्व में एक अलग तरह का सम्मोहन पाया। मेरा तो प्रश्नों की ओर ध्यान ही नहीं गया जी। मैं सचिन के सामने एकदम नि:शब्द था। बस एकटक निहारता रहा ‘क्रिकेट के भगवान’ को। ऐसी सिचुएशन को हमारे यहां गढ़वाली में ‘बगबौळ’ कहते हैं। ऐसी बयार जिसकी चपेट में आकर आपके कहीं अटक जाते हैं। आप अवाक् रह जाते हैं।

कुछ सवाल पूछे भी लेकिन ज़्यादातर समय उन्हें बस देखते रहने का मन किया। बाद में मेरे बॉस ने पूछा भी कि भाई, रातभर तुमने इतनी तैयारी की थी। कह रहे थे कि ये पूछूंगा- वो पूछूंगा। मौन क्यों हो गए? आप इसे किसी बड़ी शख्सियत के सामने स्वाभाविक मनोवैज्ञानिक दबाव कह सकते हैं लेकिन ऐसा नहीं था कि मैं पहली बार किसी बड़ी शख्सियत से मिल रहा था। उससे पहले भी मैं कई बड़ी हस्तियों का बड़े आत्मविश्वास के साथ इंटरव्यू कर चुका था। लेकिन सचिन के सामने मैं नि:शब्द था, एकदम नि:शब्द। इस किस्से को आज करीब 21 साल हो रहे हैं..सचिन भी पचास के हो गए हैं। लेकिन लगता है मानो कल की ही बात हो।

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