अभिषेक श्रीवास्तव-
हमारी प्रिय पत्रिका ‘समयांतर’ ने अपने मई अंक में हंस पत्रिका के संजय सहाय कृत ताज़ा संपादकीय को अविकल छाप दिया है, बस उप-शीर्षक बदल कर और एक लाइन का इंट्रो दे कर: “बीमारी का निजी आख्यान” और “…पांच सितारा दास्तान”!
इसे कहते हैं शिष्ट पत्रकारिता का शऊर, जिसे हम लोग भूलते जा रहे हैं।
कुछ मित्रों ने हंस का ताज़ा संपादकीय साझा किया है संजय सहाय का लिखा हुआ। क्या सोच कर, पता नहीं। दो हजार शब्दों के इस संपादकीय में हजार से ज्यादा शब्द यानि आधा अपनी बीमारी और भर्ती का वर्णन है। बाकी आधा कोरोना से फैली तबाही पर एक बेहद सामान्य सी टिप्पणी। वही सब घिसी-पिटी बातें, जो हम रोज पढ़ते आ रहे हैं। न तो कोई दृष्टि, न कोई कल्पनाशीलता, न कोई नई सूचना, न ही कोई बात जैसी बात। और भाषा भी ऐसी कि क्या कहा जाय! एक बानगी देखिए:
“आम जन के हमदर्द होने का स्वांग रचते ये लोग बेशक कोवैक्सीन का टीका लगवाते दिख जाएं- जैसा कि फिल्मों में देसी सरसों का तेल रगड़वाती कोई चमकदार हिरोइन- तो रोमांचित हो सहसा विश्वास कर लेने की ज़रूरत नहीं है”.
मैं नहीं जानता ऐसी कोई फिल्म। पता नहीं हंस के संपादक किसी फिल्म के आधार पर ऐसा लिख मारे हैं या यह उनकी कल्पना की उड़ान है। सोचता हूँ राजेन्द्र यादव होते तो इस समय क्या लिखते! जो भी लिखते, इतना औसत से खराब संपादकीय तो नहीं ही लिखते। इसके बावजूद अगर यह संपादकीय यहाँ कोट करने और साझा करने लायक बन पड़ा है, तो यह हिन्दी के लोकवृत्त में बौद्धिक पतन, कल्पनाहीनता, भ्रष्ट रचनाधर्मिता और तदर्थवाद का सबसे बढ़िया उदाहरण है। हंस तो जाने कब का उड़ चुका है। बस सड़े हुए कुछ अंडे बच रहे हैं उसके जो अब बुरी बास मारते हैं।