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सुख-दुख

हिंदी अखबार के उप संपादक छोकरे और अंग्रेजी अखबार की कन्या का लव जिहाद!

साल 1988 की बात है। मैं तब जनसत्ता में मुख्य उप संपादक था और उसी साल संपादक प्रभाष जोशी ने जनसत्ता के राज्यों में प्रसार को देखते हुए एक अलग डेस्क बनाई। इस डेस्क में यूपी, एमपी, बिहार और राजस्थान की खबरों का चयन और वहां जनसत्ता के मानकों के अनुरूप जिला संवाददाता रखे जाने का प्रभार मुझे सौंपा। तब तक चूंकि बिहार से झारखंड और यूपी से उत्तराखंड अलग नहीं हुआ था इसलिए यह डेस्क अपने आप में सबसे बड़ी और सबसे ज्यादा जिम्मेदारी को स्वीकार करने वाली डेस्क बनी। अब इसके साथियों का चयन बड़ा मुश्किल काम था। प्रभाष जी ने कहा कि साथियों का चयन तुम्हें ही करना है और उनकी संख्या का भी।

साल 1988 की बात है। मैं तब जनसत्ता में मुख्य उप संपादक था और उसी साल संपादक प्रभाष जोशी ने जनसत्ता के राज्यों में प्रसार को देखते हुए एक अलग डेस्क बनाई। इस डेस्क में यूपी, एमपी, बिहार और राजस्थान की खबरों का चयन और वहां जनसत्ता के मानकों के अनुरूप जिला संवाददाता रखे जाने का प्रभार मुझे सौंपा। तब तक चूंकि बिहार से झारखंड और यूपी से उत्तराखंड अलग नहीं हुआ था इसलिए यह डेस्क अपने आप में सबसे बड़ी और सबसे ज्यादा जिम्मेदारी को स्वीकार करने वाली डेस्क बनी। अब इसके साथियों का चयन बड़ा मुश्किल काम था। प्रभाष जी ने कहा कि साथियों का चयन तुम्हें ही करना है और उनकी संख्या का भी।

मैंने आठ लोग रखे- Sunil Shah (संप्रति अमर उजाला हल्द्वानी के स्थानीय संपादक) Sanjaya Kumar Singh, Arihan Jain (इस समय वे बिजनेस स्टैंडर्ड में संपादकीय प्रभारी हैं), अजय शर्मा (संप्रति एनडीटीवी में संपादक हैं) Sanjay Sinha (आजतक समूह के में संपादक हैं) अमरेंद्र राय बहुत दिनों से मिले नहीं पर वे विजुअल मीडिया के बिग गन हैं। सातवां साथी प्रभाष जी ने दिया प्रदीप पंडित। वे चंडीगढ़ जनसत्ता से आए थे और पद में तो मुझसे ऊपर थे ही पैसा भी अधिक पाते थे। अब प्रभाष जी की इच्छा। कौन किन्तु-परन्तु करे इसलिए स्वीकार किया। उनसे मुझे भी कुछ कहने में संकोच होता पर वे थे सज्जन आदमी कभी भी कोई भी काम सौंपा ऐतराज नहीं किया बस जिम्मेदारी लेने से कतराते थे इसलिए इस डेस्क पर डिप्टी इंचार्ज मैने बेहद पढ़ाकू और जिम्मेदार तथा जिज्ञासु पत्रकार सुनील शाह को बनाया। अब बाकी का तो ठीक था लेकिन संजय सिन्हा और संजय सिंह से काम कराना बहुत कठिन।

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ऐसा नहीं कि वे नाकारा थे अथवा काम नहीं करना चाहते थे बल्कि वे सबसे ज्यादा काम करते लेकिन अपनी मर्जी से। एक घंटे काम किया और दो घंटे एक्स्प्रेस बिल्डिंग के पीछे टीटू की दूकान में जाकर अड्डेबाजी करने लगे। अथवा शाम आठ बजे पीक आवर्स में जामा मस्जिद के पास वाले करीम होटल में चले गए। कभी-कभी वे अपने साथ सुनील शाह को भी ले जाते। डांट-डपट से उन्हें भय नहीं था और उन दोनों के बीच कोई भेद उत्पन्न करना भी संभव नहीं था। मेरा सारा कौशल और श्रम उनकी मान-मनौवल में चला जाता। यह देखकर मेरे समकक्ष साथी मजे लेते क्योंकि इस डेस्क का भौकाल देखकर सभी उसमें आना चाहते थे। यह एक ऐसी डेस्क थी जिसमें किसी की कुछ न चलती सिवाय मेरे व संपादक श्री प्रभाष जोशी जी के। बड़े-बड़े जनसत्ताई तीसमार खाँ इस डेस्क से बेजार थे। इसलिए ऐसे में उनके पास एक उपाय था डेस्क के साथियों को फोड़ लेना। तब मैने एक आखिरी दांव फेंका संजय सिंह और संजय सिन्हा के पास। संजय सिन्हा नरम थे और जल्दी समझाए जा सकते थे। मैने कहा कि संजय देखो मैं भी चला करूंगा तुम लोगों के साथ करीम। अकेले-दुकेले जाते हो कुछ झगड़ा वगड़ा कर बैठे तो मुश्किल होगा। एक गार्जियन नुमा कद-काठी में भारी आदमी रखना जरूरी है। संजय सिन्हा ने यह बात संजय सिंह को बताई और दोनों राजी हो गए। अब दस साढ़े दस बजे जब मैं फारिग होता तो कहता चलो। तब तक वे भी थक जाते और टाल जाते तथा कहते कि शंभू जी अब सारा काम निपटा ही लेते हैं। इस तरह मैं उनको काम पर वापस लाया।

इसी बीच बेहद दर्शनीय, मनोहारी और लड़कियों के बीच बहुत लोकप्रिय संजय सिन्हा ने शादी करने की ठानी इंडियन एक्सप्रेस की उप संपादक दीपशिखा सेठ से। अब दोहरी मुसीबत लड़का खाँटी बिहारी और कन्या ठेठ पंजाबी। ऊपर से तुर्रा यह कि लड़का हिंदी अखबार में उप संपादक और कन्या अंग्रेजी अखबार में। यह अलग बात है कि बिहार के एक अभिजात्य कायस्थ परिवार में जन्में संजय सिन्हा का पारिवारिक माहौल अंग्रेजी दां था। उनके दादा ब्रिटिश काल में कानपुर के एडीएम थे और पिता बिहार बिजली बोर्ड के निदेशक, मामा मध्यप्रदेश के पुलिस महानिदेशक। संजय की पढ़ाई विदेश में हुई थी। पर अंग्रेजी अखबार इंडियन एक्सप्रेस के पत्रकारों को लगा कि अंग्रेजी पत्रकार कन्या हिंदी अखबार के पत्रकार से ब्याही जाए यह तो उनके लिए लव जिहाद टाइप का मामला हो गया। तत्काल इंडियन एक्स्प्रेस और जनसत्ता की डेस्क के बीच दीवाल चिनवा दी गई। लेकिन “जब मियाँ-बीवी राजी तो क्या करेगा काजी” सो शादी तो होकर रही। चोरी-चोरी घर से छिपाकर भी और दफ्तरी लोगों से भी। फिर भी वह शादी ऐतिहासिक थी। शादी तो हुई आर्य समाज मंदिर में और भात हुआ नेशनल स्पोट्स क्लब आफ इंडिया (एनएससीआई) के लान में। खूब खाया भी गया और पीया भी। बाद में इंडियन एक्सप्रेस वालों ने वह दीवाल खुद ही तुड़वा दी।

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कल दिल्ली के छतरपुर स्थित जी समूह के मालिक श्री जवाहर गोयल के फार्म हाउस में संजय सिन्हा का पुनर्विवाह हुआ। मैं तब भी मौजूद था और कल भी। चौंकिए नहीं दरअसल मौका था उन्हीं संजय सिन्हा की फेसबुक पुस्तक रिश्ते का जब विमोचन हुआ तो वहां एकत्र करीब हजार के आसपास फेसबुक मित्रों और उनके मित्रों को बताया गया कि यह साल संजय व दीपशिखा सेठ की शादी के 25 साल पूरा होने का है तो सब ने कहा कि तिथि की कौन जाने आज ही संजय सिन्हा और दीपशिखा सेठ का फिर से जयमाल कार्यक्रम हो। और हुआ। मैं ये दोनों फोटो अपनी पुरानी यादों के साथ रख रहा हूं। संजय सिंह और मेरे अलावा वहां वे लोग ही थे जिन्होंने संजय व दीपशिखा का वह जयमाल कार्यक्रम नहीं देखा था जो 24 साल पहले हुआ था पर यकीनन यह आयोजन ज्यादा भव्य और ज्यादा उत्साह के साथ मनाया गया। संजय सिन्हा और दीपशिखा सेठ के नवजीवन की बधाई और शुभकामनाएं कि अचल रहे अहिवात तुम्हारा जब लौं गंग-जमन की धारा।

मित्रों मेरा यहां यह चिठठा लिखने का आशय यह है कि अगर आप चाहते हो कि परस्पर प्रेम के बीच आने वाले अवरोधों और दीवालें तोड़नी हैं तो पहली क्रांति सामाजिक रिश्तों की करो। रिश्ते बनाओ प्रेम से, स्नेह से परस्पर के मेल-मिलाप से। खुदा तो सिर्फ मां-बाप ही देता है और बाकी के रिश्ते तो इंसान खुद तलाशता है। रिश्तों के अवरोधों को ध्वस्त करो।

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लेखक शंभूनाथ शुक्ल वरिष्ठ पत्रकार और स्तंभकार हैं. उनका यह लिखा उनके फेसबुक वॉल से साभार लिया गया है.

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