Shambhunath Shukla मोहन बाबू को भुलाया नहीं जा सकता! दैनिक जागरण के प्रसार की सीमाओं को कानपुर शहर से लेकर पूरे उत्तर, पूर्व और मध्य भारत में फैलाने वाले स्वर्गीय श्री नरेंद्र मोहन की कल 20 सितंबर को 16 वीं पुण्यतिथि है. उन्हें सब लोग प्यार से मोहन बाबू कहते थे. एक कामयाब मालिक और …
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अखिलेश यादव से मुलाकात के लिए वरिष्ठ पत्रकार ने फोन किया तो उधर से सोनू भैया बोले- ‘एक हफ्ते बाद आओ!’
Shambhu Nath Shukla : एक बार नेता जी (मुलायमसिंह यादव) कहीं जा रहे थे गेट से उनकी गाड़ी निकली कि दो पत्रकार लपक कर उनकी गाड़ी के सामने आ गए और बोले- नेताजी आपसे बात करनी है. नेता जी गाड़ी से उतरे और कहा- ‘अंदर चलौ, कपिल सिब्बल ते मिलन जात ते, अब नहीं जात, तुमहीं से बात करे लेत हैं’. पत्रकार नेता जी की बात से शरमा गए, बोले- नहीं नेता जी आप जाओ. पर नेता जी ने कहा नहीं अब हम नहीं जात. यह नेता जी की अदा थी जो सबको उनका मुरीद बनाती थी.
पत्रकारिता की राह पर शंभूनाथ शुक्ला का सफर… कुछ यादें, कुछ बातें
देख लीजिए, कैसे-कैसे लोग पत्रकारिता में आकर संपादक बन गए…
Shambhunath Shukla : हमारे एक परिचित पत्रकार थे। पहले चाकूबाज़ के रूप में उनकी प्रतिष्ठा हुआ करती थी फिर एक संपादक की नज़र उन पर पड़ी वे पर पड़ी। उस समय वे किसी को चाकू मार कर भाग रहे थे। संपादक ने पकड़ लिया बोले बेटा मेरे साथ काम कर, चाकू भी चला और कलम भी। पुलिस तुझे छू नहीं सकती। चाकूबाज़ मान गया। फिर एक मालिक ने उसकी काबिलियत को पहचाना और एक ऐसे राज्य में उसे रेजीडेन्ट संपादक बना दिया जहाँ का मुख्यमंत्री घोटालेबाज़ जोकर था।
अतुल माहेश्वरी की पुण्य स्मृति : इतनी विनम्रता और संकोच शायद ही किसी मालिक में रहा होगा…
Shambhunath Shukla : नौकरी छोड़े भी चार साल हो चुके और अमर उजाला में मेरा कुल कार्यकाल भी मात्र दस वर्ष का रहा पर फिर भी उसके मालिक की स्मृति मात्र से आँखें छलक आती हैं। दिवंगत श्री अतुल माहेश्वरी को गए छह वर्ष हो चुके मगर आज भी लगता है कि अचानक या तो वे मेरे केबिन में आ जाएंगे अथवा उनका फोन आ जाएगा अरे शुक्ला जी जरा आप यह पता कर लेते तो बेहतर रहता। इतनी विनम्रता और संकोच शायद ही किसी मालिक में रहा होगा।
प्रॉपर्टी डीलरों को सदस्यता, पत्रकारों की बेदख़ली… यह है प्रेस क्लब ऑफ इंडिया का सच!
कल दिल्ली स्थित प्रेस क्लब ऑफ इंडिया की वोटिंग है। मुझे एक संजीदा पत्रकार मानते हुए लोगबाग मुझे भी अप्रोच कर रहे हैं कि मैं उनके पैनल को वोट करूं। मगर मैं करूं तो कैसे, मेरा वोट ही कहां है? आज तक मुझे प्रेस क्लब के पदाधिकारियों ने यह जवाब नहीं दिया कि मुझे इस क्लब का सदस्य नहीं बनाने के पीछे उनका तर्क क्या है। क्या मैं उनके मानकों को पूरा नहीं करता? पिछले 33 साल से मैं पत्रकार हूं और वह भी श्रमजीवी। इंडियन एक्सप्रेस समूह में बीस साल रहा। 12 साल अमर उजाला में और पिछले 17 वर्षों से मान्यताप्राप्त पत्रकार हूं तथा आज भी यह मान्यता है। क्लब के मानकों के अनुरूप मेरी नियमित मासिक आय जो पहले दो लाख के करीब थी अब रिटायर होने के बाद घट अवश्य गई लेकिन पत्रकारीय पेशे से ही मुझे 50 हजार रुपये मासिक की आय तो आज भी है।
दवा कंपनियों की माफियागिरी के खिलाफ बोलने की अखबारों और सरकारों में हिम्मत नहीं
Shambhunath Shukla : एलोपैथी दवा कंपनियां बड़े पूंजी घरानों के पास हैं और एलोपैथी के चिकित्सक उनके क्रीत दास। ये कंपनियां ही दिल्ली तथा समस्त मेट्रो टाउन्स के हाई-फाई अस्पताल भी चलाती हैं। नतीजा यह होता है कि इनके पालक डॉक्टर कम बीमार को घोर बीमार बता देते हैं और जिसका आपरेशन करने की जरूरत नहीं है उसे अपने चहेते अस्पताल के गंदे व इन्फैक्टेड ओटी में लिटा देते हैं। नतीजा यह होता है कि दस प्रतिशत रोगी इनके ओटी से बाहर आने के कुछ समय बाद दम तोड़ देते हैं।
रवीश की यही समझ उन्हें बड़ा बनाती है
Shambhunath Shukla : टीवी न्यूज चैनलों में Ravish Kumar एक शानदार एंकर ही नहीं है या वे महज न्यूज चयन में सतर्कता बरतने वाले बेहतर टीवी संपादक ही नहीं अथवा आम आदमी के सरोकारों के प्रति आस्था जताने वाले पत्रकार ही नहीं है वरन उनकी असल खूबी है उनकी सामाजिक सरोकारों के प्रति आस्था। एक ही उदाहरण काफी होगा जब कल उन्होंने एक वृद्घ से बात करते हुए कहा कि बेटियां न होतीं तो क्या होता! इस एक वाक्य ने हम पति-पत्नी को भिगो दिया। मुझे खुशी हुई यह सुनकर।
स्वप्न दासगुप्ता, रजत शर्मा और रामबहादुर राय को पद्म पत्रकारिता के नाम पर मिलता तो खुशी होती
Shambhunath Shukla : जिन तीन पत्रकारों को पद्म पुरस्कार मिला है उनका योगदान साहित्य व शिक्षा क्षेत्र में बताया गया है। मगर तीनों में से किसी ने भी जवानी से बुढ़ापे तक कोई चार लाइन की कविता तक नहीं लिखी। यहां तक कि नारे भी नहीं। ये तीन पत्रकार हैं स्वप्न दासगुप्ता, रजत शर्मा (दोनों को पद्म भूषण) और रामबहादुर राय को पद्म श्री। पत्रकारों को पद्म पत्रकारिता के नाम पर मिलता तो खुशी होती।
वरिष्ठ पत्रकार शंभूनाथ शुक्ल के फेसबुक वॉल से.
एनडीटीवी प्राइम टाइम में Ravish Kumar और अभय दुबे ने भाजपा प्रवक्ता नलिन कोहली को पूरी तरह घेर लिया
Shambhunath Shukla : एक अच्छा पत्रकार वही है जो नेता को अपने बोल-बचन से घेर ले। बेचारा नेता तर्क ही न दे पाए और हताशा में अंट-शंट बकने लगे। खासकर टीवी पत्रकार के लिए यह एक बड़ी चुनौती है। बीस जनवरी को एनडीटीवी पर प्राइम टाइम में Ravish Kumar और अभय दुबे ने भाजपा प्रवक्ता नलिन कोहली को ऐसा घेरा कि उन्हें जवाब तक नहीं सूझ सका। अकेले कोहली ही नहीं कांग्रेस के प्रवक्ता जय प्रकाश अग्रवाल भी लडख़ड़ा गए। नौसिखुआ पत्रकारों को इन दिग्गजों से सीखना चाहिए कि कैसे टीवी पत्रकारिता की जाए और कैसे डिबेट में शामिल वरिष्ठ पत्रकार संचालन कर रहे पत्रकार के साथ सही और तार्किक मुद्दे पर एकजुटता दिखाएं। पत्रकार इसी समाज का हिस्सा है। राजनीति, अर्थनीति और समाजनीति उसे भी प्रभावित करेगी। निष्पक्ष तो कोई बेजान चीज ही हो सकती है। मगर एक चेतन प्राणी को पक्षकार तो बनना ही पड़ेगा। अब देखना यह है कि यह पक्षधरता किसके साथ है। जो पत्रकार जनता के साथ हैं, वे निश्चय ही सम्मान के काबिल हैं।
रवीश कुमार, ओम थानवी और वीरेंद्र यादव ने फेसबुक को अलविदा कहा!
Shambhunath Shukla : नया साल सोशल मीडिया के सबसे बड़े मंच फेस बुक के लिए लगता है अच्छा नहीं रहेगा। कई हस्तियां यहाँ से विदा ले रही हैं। दक्षिणपंथी उदारवादी पत्रकारों-लेखकों से लेकर वाम मार्गी बौद्धिकों तक। यह दुखद है। सत्ता पर जब कट्टर दक्षिणपंथी ताकतों की दखल बढ़ रही हो तब उदारवादी दक्षिणपंथियों और वामपंथियों का मिलकर सत्ता की कट्टर नीतियों से लड़ना जरूरी होता है। अगर ऐसे दिग्गज अपनी निजी व्यस्तताओं के चलते फेस बुक जैसे सहज उपलब्ध सामाजिक मंच से दूरी बनाने लगें तो मानना चाहिए कि या तो ये अपने सामाजिक सरोकारों से दूर हो रहे हैं अथवा कट्टरपंथियों से लड़ने की अपनी धार ये खो चुके हैं। इस सन्दर्भ में नए साल का आगाज़ अच्छा नहीं रहा। खैर 2015 में हमें फेस बुक में खूब सक्रिय साथियों- रवीश कुमार, ओम थानवी और वीरेंद्र यादव की कमी खलेगी।
आज ये कहना कि वे हमारे माल हैं, आरएसएस की बेहयाई है
सांप्रदायिकता पूंजीवाद और औद्योगिक सभ्यता की देन है। बाजार हथियाने के लिए बाजारवादी शक्तियां सांप्रदायिकता का हथकंडा अपनाती हैं। अपनी सांप्रदाकियता की धार को तेज करने के लिए वे अतीत को भी सांप्रदायिक बनाने का कुत्सित प्रयास करती हैं। इसमें कोई शक नहीं कि सामंती काल में भी मंदिर-मस्जिद ढहाए गए पर उसके पीछे सोच सांप्रदायिक नहीं विजित नरेश के सारे प्रतीकों को ध्वस्त करना था। हिंदू शासकों ने भी जब कोई राज्य जीता तो वहां के मंदिर तोड़े और पठानों व मुगलों ने भी जब कोई मुस्लिम राजा को हराया तब मस्जिदें भी तोड़ीं।
अटल बिहारी वाजपेयी ने ‘झाड़े रहो कलेक्टर गंज’ का अर्थ कुछ यूं समझाया…
कई लोगों ने मुझसे अनुरोध किया है कि फ्रेज झाड़े रहो कलेक्टर गंज का मतलब बताऊँ। तो खैर सुनिए। यह मुहावरा मैं भी बोला करता था। लेकिन मुझे नहीं पता था कि यह शुरू कहां से हुआ। इसलिए पूरा किस्सा सुनाता हूं। बात 1990 की है। राम मंदिर विवाद के चलते पूरा यूपी दंगे की आग में सुलग रहा था। मुझे अपने चचेरे भाई की शादी में शामिल होने के लिए कानपुर जाना था। तब नई दिल्ली स्टेशन से रात पौने बारह बजे एक ट्रेन चला करती थी प्रयागराज एक्सप्रेस। चलती वह अभी भी है लेकिन समय बदल गया है। तब नई-नई ट्रेन थी और सीधे बोर्ड द्वारा चलवाई गई थी इसलिए सुंदर भी थी और साफ-सुथरी भी। इसके थ्री टायर सेकंड क्लास में मेरा रिजर्वेशन था। और वह भी एक सिक्स बर्थ वाले कूपे में।
व्यापार मेला देखने अवश्य जाएं और इस एडवाइजरी पर गौर करें
कुछ संभलकर ही ट्रेड फेयर जाएं क्योंकि जो दिखता है वही सुंदर नहीं है! यह पोस्ट मैं नहीं भी डाल सकता था क्योंकि यह एक सामान्य-सी निजी घुमक्कड़ी है जिसे आप चाहें तो विंडो शापिंग भी कह सकते हैं। लेकिन डाल रहा हूं। दरअसल मुझे इस बात से कभी संतोष नहीं होता कि एक सामान्य दर्शक की भांति एक पत्रकार व्यवहार करे। पत्रकार के कुछ सामाजिक दायित्व होते हैं और चुनौतियां भी। वह महज एक प्रचारक या जस का तस दिखाने वाला, बताने वाला संजय नहीं कि हर धृतराष्ट्र उससे पूछे कि बताओ संजय क्या हुआ कुरुक्षेत्र में।
शताब्दी और राजधानी का किराया पिछली सरकार के मुकाबले ड्योढ़ा हुआ, सुविधाएं निल, नाश्ते-भोजन की क्वालिटी जस की तस
आज रिजर्वेशन कराया। यकीनन रेलवे कर्मचारियों का मिजाज सुधरा है पर रेलवे का मिजाज बिगड़ा है। शताब्दी व राजधानी का किराया डॉक्टर मनमोहन सिंह के जमाने से करीब-करीब ड्योढ़ा हो गया है। और सुविधाएं निल। नाश्ते व भोजन की क्वालिटी जस की तस है। वही पुराने दो पीस ब्राउन ब्रेड के और उतने ही बासी कटलेट नाश्ते में। मैले कप में घटिया-सी चाय और पनियल सूप।
संत रामपाल : ….यूं ही कोई इतना लोकप्रिय नहीं हो सकता!
मैं संत रामपाल को नहीं जानता न ही उनके दर्शन और अध्यात्म की उनकी व्याख्या से। पर वे खुद कहते हैं कि वे हिंदू नहीं हैं और खुद को ही परमेश्वर मानते हैं। हिंदुओं के लगभग सभी सेक्ट उनके खिलाफ हैं खासकर आर्य समाज से तो उनकी प्रतिद्वंदिता जग जाहिर है। वे कबीर साहब के आराधक हैं और मानते हैं कि वे इस दुनिया में आने वाले पहले गुरु थे। इसमें कोई शक नहीं कि संत रामपाल अपार लोकप्रिय हैं। उनके भक्त उनके लिए अपनी जान तक दे सकते हैं। संत परंपरा वैदिक अथवा ब्राह्मण परंपरा नहीं है। संत परंपरा श्रावक व श्रमण परंपरा तथा पश्चिम के सेमेटिक दर्शनों का घालमेल है। पर जो व्यक्ति संत की पदवी पा जाता है उसके भक्त उसको ईश्वर अथवा ईश्वर का दूत मानने लगते हैं।
हिंदी अखबार के उप संपादक छोकरे और अंग्रेजी अखबार की कन्या का लव जिहाद!
साल 1988 की बात है। मैं तब जनसत्ता में मुख्य उप संपादक था और उसी साल संपादक प्रभाष जोशी ने जनसत्ता के राज्यों में प्रसार को देखते हुए एक अलग डेस्क बनाई। इस डेस्क में यूपी, एमपी, बिहार और राजस्थान की खबरों का चयन और वहां जनसत्ता के मानकों के अनुरूप जिला संवाददाता रखे जाने का प्रभार मुझे सौंपा। तब तक चूंकि बिहार से झारखंड और यूपी से उत्तराखंड अलग नहीं हुआ था इसलिए यह डेस्क अपने आप में सबसे बड़ी और सबसे ज्यादा जिम्मेदारी को स्वीकार करने वाली डेस्क बनी। अब इसके साथियों का चयन बड़ा मुश्किल काम था। प्रभाष जी ने कहा कि साथियों का चयन तुम्हें ही करना है और उनकी संख्या का भी।
गैंग रेप के आरोपी निहालचंद को मोदी ने मंत्रिपद पर कायम रखकर क्या संदेश दिया है?
Om Thanvi : नरेंद्र मोदी के मंत्रिमंडल फैलाव में स्वागतयोग्य बातें हैं: पर्रीकर और सुरेश प्रभु जैसे काबिल लोग शामिल किए गए हैं। बीरेंद्र सिंह, जयप्रकाश नड्डा, राजीवप्रताप रूडी और राज्यवर्धन सिंह भी अच्छे नाम हैं। सदानंद गौड़ा से रेलगाड़ी छीनकर उचित ही सुरेश प्रभु को दे दी गई है। लेकिन स्मृति ईरानी का विभाग उनके पास कायम है। गैंग रेप के आरोपी निहालचंद भी मंत्रिपद पर काबिज हैं। अल्पसंख्यकों को लेकर प्रधानमंत्री की गाँठ कुछ खुली है, मगर मामूली; मुख़्तार अब्बास नक़वी को महज राज्यमंत्री बनाया है। वे वाजपेयी मंत्रिमंडल में राज्यमंत्री रह चुके हैं, जैसे रूडी भी।
क्यों मनाते हैं दिवाली?
शंभूनाथ शुक्ल : भाई Siddharth Kalhans ने पूछा है क्यों मनाते हैं दीवाली? मेरी मोटी बुद्धि में जो समाया है, वह यह है कि …
पीएम, सीएम, डीएम और लोकल थानेदार को बचा लेना, बाकी किसी के भी खिलाफ लिख देना
आज से 35 साल पहले जब आज के ही दिन मैने अखबार की नौकरी शुरू की तो अपने इमीडिएट बॉस ने सलाह दी कि बच्चा पीएम, सीएम, डीएम और लोकल थानेदार को बचा लेना। बाकी किसी के भी भुस भरो। पर वह जमाना 1979 का था आज का होता तो कहा जाता कि लोकल कारपोरेटर, क्षेत्र के एमएलए और एमपी के खिलाफ भी बचा कर तो लिखना ही साथ में चिटफंडिए, प्रापर्टी दलाल और मंत्री पुत्र रेपिस्ट को भी बचा लेना। इसके अलावा डीएलसी, टीएलसी, आईटीसी और परचून बेचने वाले डिपार्टमेंटल स्टोर्स तथा पनवाड़ी को भी छोड़ देना साथ में पड़ोस के स्कूल को भी और टैक्सी-टैंपू यूनियनों के खिलाफ भी कुछ न लिखना। हां छापो न गुडी-गुडी टाइप की न्यूज। पास के साईं मंदिर में परसाद बटा और मां के दरबार के भजन। पत्रकारिता ने कितनी तरक्की कर ली है, साथ ही समाज ने भी। सारा का सारा समाज गुडी हो गया।
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‘अच्छे दिन’ का नारा लगा मोदी केंद्र की सत्ता तक पहुंचे पर इन साढ़े चार महीने में हालात बद से बदतर हुए हैं
Shambhu Nath Shukla : केंद्र में नरेंद्र मोदी की सरकार बने साढ़े चार महीने होने को जा रहे हैं। मैने आज तक मोदी के कामकाज पर कोई टिप्पणी नहीं की और न ही कभी उनके वायदों की खिल्ली उड़ाई। मैं न तो हड़बड़ी फैलाने वाला अराजक समाजवादी हूं न एक अभियान के तहत मोदी पर हमला करने वाला कोई माकपाई। यह भी मुझे पता था कि मेरे कुछ भी कहने से फौरन मुझ पर कांग्रेसी होने का आरोप मढ़ा जाता। लेकिन अब लगता है कि मोदी के कामकाज पर चुप साधने का मतलब है कि आप जानबूझ कर मक्खी निगल रहे हैं। ‘समथिंग डिफरेंट’ और ‘अच्छे दिन आने वाले हैं’ का नारा लगाकर मोदी केंद्र की सत्ता तक पहुंचे पर असलियत यह है कि इन साढ़े चार महीने में हालात बद से बदतर हुए हैं।