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सियासत

‘सरकार’ जी, आप अपना काम भी समझा दीजिये और वही कीजिये

संजय कुमार सिंह-


इंडियन एक्सप्रेस में पहले पन्ने पर छपी एक खबर के अनुसार, सेंटर फॉर पॉलिसी रिसर्च (सीपीआर) को तकरीबन 50 साल से मिली टैक्स मुक्ति की स्थिति खत्म हो गई है। आयकर विभाग ने सीपीआर पर आरोप लगाया था कि वह ऐसे काम कर रहा है जो उसके उद्देश्य और शर्तों के अनुकूल नहीं है। अब आयकर मुक्ति रद्द करने के आदेश में इन शर्तों को दोहराया गया है और कहा गया है कि वह अनुसंधान की बजाय शिकायतें और मुकदमेबाजी में पैसे खर्च करता है। खबर के अनुसार आयकर विभाग के तर्क की खास बात यह है कि मुकदमेबाजी का समर्थन लोकोपकारी गतिविधि नहीं है और इसलिए सीपीआर को कर मुक्ति नहीं मिलेगी।

संभावना है कि सीपीआर इन आरोपों से इनकार करते हुए 30 जून के इस आदेश के खिलाफ आयकर अपीलीय अधिकरण में अपील दाखिल करेगा। पर सवाल यह है कि किसी संस्था का काम क्या है और वह क्या कर रहा है इसे देखना आयकर विभाग का काम कैसे है और क्यों है? और अगर किसी संस्था का काम अपील और मुकदमेबाजी नहीं है तो वह इस मनमानी को चुनौती न दे? चुपचाप झेल ले? अगर ऐसा भी है तो आम जनता को इसे जानने का हक है और आयकर विभाग को चाहिए था कि इसकी सूचना आम लोगों के बीच प्रचारित-प्रसारित करवाता ताकि दूसरे संस्थान आयकर विभाग के इस नए अधिकार और कर्तव्य के बारे में जानते तथा जिनके खिलाफ ऐसी कार्रवाई हो सकती है वे संभल कर रहते।

मीडिया जब सरकारी विज्ञापनों के दबाव में सरकार के खिलाफ खबरें नहीं छापता है तो ऐसी सूचनाएं (या विज्ञापन) छापने के लिए उन्हें कौन कह या मजबूर कर सकता है? क्यों नहीं कह और कर रहा है? किसका काम है? जहां तक किसी संस्थान द्वारा मुकदमेबाजी करने या नहीं करने की बात है, मोदी सरकार ने तो इसका रिकार्ड बनाया है और जज लोया की संदिग्ध मौत की जांच का मामला हो या महाराष्ट्र में उद्धव ठाकरे की सरकार गिराने और बनाने का मामला हो या फिर महाराष्ट्र विधानसभा अध्यक्ष द्वारा दलबदल करने वाले विधायकों के मामले में निर्णय़ का मौका हो, राजनीतिक दलों और राज्य सरकारों को मुकदमेबाजी करने के लिए मजबूर होना पड़ रहा है। इसमें केंद्र और राज्य सराकरें जनता का पैसा और संसाधन तो खर्च कर ही रही हैं बचाव पक्ष का भी पैसा खर्च हो रहा है।

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जाहिर है, मुकदमा लड़ना शौक नहीं मजबूरी होती है। केंद्र सरकार चाहे तो विपक्षी सरकारों को मुकदमेबाजी से मुक्त रख सकती है लेकिन वह अपने मन की बात लागू करने के लिए दिल्ली सरकार के मामले में अध्यादेश ले आई है। यही नहीं, महाराष्ट्र का मामला संविधान पीठ ने निपटाया और उसके आदेश का पालन भी नहीं हुआ कि प्रभावित पक्ष को फिर सुप्रीम कोर्ट में जाना पड़ा और इधर कश्मीर की विशेष स्थिति खत्म करने वाले अनुच्छेद 370 को हटाने के फैसले पर सुनवाई के लिए एक नई पीठ बनाने की घोषणा हुई है। यह सब मुकदमेबाजी कोई ना कोई केंद्र सरकार के रवैये के कारण कर रहा है और सरकार उससे लड़ने की बजाय अगर उसके आय के स्रोत ही बंद करने के उपाय कर दे तो न्याय का क्या होगा?

यह स्थिति तब है जब महाराष्ट्र सरकार ने जज लोया के मामले में सरकार की ओर से पैरवी करने के लिए अधिवक्ता मुकुल रोहतगी को 1.21 करोड़ रुपये की फीस दी है ताकि उनकी मौत की जांच नहीं करानी पड़े जबकि जांच में इतना खर्च शायद नहीं होता। वैसे तो खर्च मुद्दा नहीं है पर यह मामला इतना संदिग्ध है कि जांच से बचने के लिए सरकार ने जनता के 1.21 करोड़ रुपए (कम से कम) तो फूंक ही दिये और जांच से भले बच गई उसपर पत्रकार निरंजन टाकले ने किताब लिख दी, हू किल्ड जज लोया? यह किताब हिन्दी और दूसरी भाषाओं में अनुवाद भी हो चुकी है और सब कुछ सार्वजनिक है। ऐसे में मुकदमेबाजी के करोड़ों रुपये का हिसाब कौन देगा? तीस्ता सीतलवाड का मामला ऐसा है कि सुप्रीम कोर्ट को उनके बचाव में खुलकर आना पड़ा है और इसी से इसमें सरकार की भूमिका सार्वजनिक हुई। पर सरकार को शायद ही इसकी परवाह है।

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सरकार अगर अपेक्षा करती है कि ऐसे सवाल नहीं उठाये जाने चाहिये या इनका जवाब देने की जरूरत नहीं है तो सीपीआर से भी ऐसे सवाल नहीं पूछे जाने चाहिए और उसपर कार्रवाई का कोई मतलब नहीं है। वैसे भी, मेरा मानना है कि विदेशी पैसे मांगने-लेने पर रोक नहीं होनी चाहिए, उसके गलत उपयोग पर जरूर रोक लगाई जा सकती है। हालांकि, यह चिन्ता भी पैसे देने वाले की होनी चाहिए, भारत सरकार की क्यों हो? वह अपना काम करे। दरअसल मोदी सरकार विरोध की हर संभावना को पूरी तरह बंद कर देना चाहती है। ज्ञान, शिक्षा, संवाद, अनुसंधान आदि से उसका संबंध वैसे भी कम या चलताऊ ही है। इसलिए विदेशी चंदे पर उसकी नजर सबसे ज्यादा है। आप समझ सकते है कि सरकार से पैसे पाने वाला कोई व्यक्ति सरकार के खिलाफ काम करे तो सरकार उसके पैसे रोक सकती है लेकिन विदेशी पैसे पाने वाला कोई व्यक्ति या संस्थान या ऐसे संस्थान में काम करने वाला कोई व्यक्ति सरकार के खिलाफ काम करे तो वह रोक नहीं पाएगी इसलिए संस्थान पर ऐसे प्रतिबंध लगाये जाते हैं।

यह देशहित या जनहित में तो नहीं ही है देश के लोगों, उनके पैसे या कमाई पर चोट भी है। यह सब इस तथ्य के बावजूद है कि इस सरकार के शासन में ज्यादातर लोगों की कमाई कम हुई है। कई तो बेरोजगार हो गये हैं। जहां तक सेंटर फॉर पॉलिसी रिसर्च की बात है, उसका काम है, नीति संबंधी अनुसंधान। सरकार ने चार महीने पहले विदेशी दान प्राप्त करने का उसका लाइसेंस रद्द कर दिया था। ऐसे में वह सरकारी दान पर निर्भर हो जाएगा और जाहिर है इसका असर उसके काम पर पड़ेगा। और हर किसी का काम कोई एक व्यक्ति तय नहीं कर सकता है। अगर कोई संस्था 50 साल से अपने स्तर पर कोई काम कर रही है तो रोक तभी लगाना चाहिए जब उसका काम स्पष्ट रूप से देश विरोधी हो, सरकार विरोधी नहीं। वैसे भी, सरकार अगर कारोबारियों, व्यावसायियों, अनुसंधानकर्ताओं आदि के काम में हस्तक्षेप करती रहेगी तो वे काम कैसे करेंगे और किसी को भी देशहित में काम करने से रोकना देश के खिलाफ काम करना है।

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अभी की स्थिति क्या है – आप कोई कारोबार – व्यवसाय करें तो तुरंत रंगदारी मांगने वाले आ जाएंगे, उनसे बचने का कोई उपाय नहीं है और लोगों को रंगदारी देनी ही पड़ती है। नहीं देने वाले कई लोग मारे और फंसाये जा चुके हैं, सरकार (पहले की भी) उन्हें सुरक्षा नहीं दे सकती है और इसके बावजूद अगर वे काम कर रहे हैं तो देश सेवा कर रहे हैं। कम से कम नौकरियां तो देते ही हैं। ऐसे में सरकार उनपर टैक्स और सरकारी नियमों के लिए दबाव डालने लगे, छापा पड़ने लगे, उनसे सवाल पूछे जाने लगें तो वह काम कैसे करेगा। सरकार भले कहती है कि आयकर, जीएसटी और दूसरे रिटर्न दाखिल करना आसान है और हर कोई खुद फाइल कर सकता है पर यह संभव नहीं है और आपको सड़क चलते सबकी रेट दीवारों पर लिखी मिल जाएगी। इससे पता चलता है कि यह काम कितना महत्वपूर्ण है और कितने लोग कर-करवा रहे हैं।

वैसे भी डिजिटल इंडिया में जीने के लिए कंप्यूटर जरूरी है और पकौड़े बेचने जैसे काम में अगर कंप्यूटर की जरूरत नहीं है और पकौड़े बेचने वाले को कंप्यूटर चलाना नहीं आता है तो उसके लिये डिजिटल होना कितना मुश्किल है, समझा जा सकता है। एक कंप्यूटर रखने और उसे चलाने वाला काम पर रखने के लिए लाखों का कारोबार होना चाहिए इसीलिए एक निश्चित राशि से कम का कारोबार करने वालों को ऐसे बंधनों से मुक्त रखा गया था। पर जीएसटी आने के बाद सबको इसका पंजीकरण कराने के लिए मजबूर किया गया और कई छोटे कारोबारियों ने धंधा बंद करने में भलाई समझी। इस तरह सरकार ने अगर छोटे कारोबारियों को मार दिया तो बड़ों पर आयकर और ईडी की रेड घातक है। बाकी के लिए विदेशी चंदे पर रोक या उसपर आयकर से मुक्ति खत्म होना। आखिर सरकार काम किसके लिए कर रही है और उसका काम क्या है? सिर्फ चुनाव लड़ना और जीतना तथा गोदी मीडिया के जरिये यह फैलाना कि, “मैं इसके लिए फिट नहीं हूं”?

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