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सुख-दुख

बीबीसी लंदन में एक ट्रेनिंग के दौरान हमसे कहा गया कि अपनी कहानी दो मिनट में बताओ!

सर्वप्रिया सांगवान-

आज बीबीसी में 6 साल पूरे हुए. उतना ही वक़्त जितना एनडीटीवी में बिताया. पिछले कई दिन से फ़ेसबुक में वे सारी यादें सामने आ रही थी जो एनडीटीवी के आखिरी दिनों की थी. वहां से जाने के फ़ैसला शायद अब तक का सबसे मुश्किल फ़ैसला रहा. मैं एक बेहतरीन शो के लिए काम कर रही थी. बेहतरीन टीम के साथ थी. बेहतरीन सीनियर्स के साथ. एंकर भी हो चुकी थी. जो लोगों का सपना होता है, वो मैं सब जी रही थी. लेकिन, मैं एक बरगद के नीचे उग आया पौधा थी.

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वो पौधा जो आत्मनिर्भर होना चाहता था, सीखना चाहता था, अपना रास्ता खोजना चाहता था. लेकिन मैं ये फ़ैसला लेते हुए बहुत अकेली थी और इसके लिए बहुत हिम्मत की ज़रूरत थी.

किसी तरह भावुक मन से बीबीसी में आई. लेकिन यहां आना ज़ीरो से शुरू करने जैसा था. अपनी जगह बनाना तो एक चुनौती थी ही, साथ ही पूर्वाग्रहों का बोझ अलग. अपने फ़ैसले को सही साबित करने के लिए दिन-रात एक करना ही विकल्प था. दिन-रात एक करना मुहावरा नहीं है यहां. कभी नाइट शिफ़्ट के बाद सीधा कोई लाइव करने चली गई. कभी दिन की शिफ़्ट पूरी करने के बाद रात को ब्रेकिंग न्यूज़ कवर करने चली गई और फिर सुबह अपने वक़्त से ऑफ़िस आ गई. हर मौक़े के लिए अप्लाई किया, हर आइडिया मीटिंग में तैयारी से पहुंची. एक बिस्किट के पैकेट और बहुत सारी मीठी चाय पर कई-कई दिन निकाले.

सही बताऊं तो अकेले होकर अपना रास्ता बनाना क्या होता है, वो यहीं पता चला. अपने कामकाज में बीबीसी और एनडीटीवी लगभग एक जैसे थे. लेकिन काम के साथ-साथ बहुत कुछ नया देखने को मिला. एक लड़की सहकर्मी ने तो मेरे ज्वाइन करते ही मेरे लिए पूरा ऑफ़िस ही हॉस्टाइल करना शुरू कर दिया और तीन सालों तक ये चलता रहा. मनगढ़ंत बातें, अफवाहें. मुझे पता तो था, लेकिन इसकी गहनता समझने में बहुत देर कर दी. ये सब दफ़्तर तक ही सीमित नहीं था. वो मुझे सोशल मीडिया पर स्टॉक करती थी. जो कोई मेरी तारीफ़ कर दे, उसको इनबॉक्स में जाकर झूठी बातों से मेरे ख़िलाफ़ भड़काने लग जाती थी. अमूमन लोग अपने सीनियर्स या बॉस के बारे में ऐसी बातें बताते हैं लेकिन मेरे साथ मुझसे उम्र और अनुभव में काफ़ी छोटी लड़की ऐसा कर रही थी. मैंने उससे बात भी की, उसने मुझसे माफ़ी भी मांगी. लेकिन इसके बावजूद वो वही सब करती रही. इस सबका नतीजा बहुत ख़राब रहा. मुझे बहुत कुछ झेलना पड़ा. ये भी वो वक़्त था जो मैंने अकेले काटा. लेकिन ख़ुशनसीबी रही कि काम में नतीजा शानदार था.

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बीबीसी ऐसी जगह है, जहां आप अपने काम में अच्छे हैं, काम करना भी चाहते हैं तो कोई रोक नहीं सकता है. बॉस सब अच्छे हैं. सिस्टम लोकतांत्रिक है. पत्रकारिता ज़िंदा है. पिछले 12 सालों में कितनी ही बार लोगों ने मेरी कहानी पूछी. कैसे मैं एकदम डॉक्टरी के बाद पत्रकारिता में आ गई. क्यों मैंने एनडीटीवी छोड़ दिया. लेकिन मैं आज भी यही चाहती हूं कि लोग मुझे मेरे काम और विचारों से पहचानें ना कि मेरी किसी कहानी से. ये जितना बताया है वो इसलिए ताकि पता चले कि सफलता के पीछे कितनी मेहनत और चुनौतियां होती हैं. हां, कई लोगों को शॉर्टकट मिल जाता है, लेकिन मुझे लगता है कि बदलाव और सफलता एक प्रक्रिया है. इस प्रक्रिया में वक़्त लगता है.

मुझे लगता भी नहीं था कि मेरी कोई कहानी है. लंदन में एक ट्रेनिंग के दौरान हमसे कहा गया कि अपनी कहानी दो मिनट में बताओ. दुनिया के संघर्ष के सामने मैं तो अपनी कहानी को बौना ही समझती थी और समझती हूं. लेकिन जब कहानी ख़त्म हुई तो मेरी ट्रेनर अवाक और प्रभावित सी मेरी तरफ़ देख रही थी. उन्होंने कहा कि उनका कोई सवाल ही नहीं है. अवाक मैं भी थी क्योंकि मुझे तब पहली बार मेरी कहानी मिली. इस कहानी का अंत था जो मेरी मां की देन है कि हमेशा देखो कि गिलास आधा भरा है. गिलास आधा खाली नहीं है. इस फ़लसफ़े ने ही मुझे बनाया है. मैंने अपने लिए लोगों की दुआएं ही देखी, लोगों का सपोर्ट ही देखा, जो मिला उसी को अपने लिए अच्छा बनाने की कोशिश की.

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शुक्रिया बीबीसी, शुक्रिया मेरे सीनियर्स और साथियों का. बेहतरीन मौकों के लिए, मेरे लिए न्यूज़रूम में तालियां बजाने के लिए, मुझे इतना सब सिखाने के लिए.

…और मुझे मेरी कहानी देने के लिए.

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