पूर्वी दिल्ली के मधु विहार स्थित अपने आवास पर सोमवार की सुबह एक फ्रीलांस जर्नलिस्ट सौमित सिंह ने फांसी लगाकर आत्महत्या कर ली। खबर को जब मैंने फेसबुक पर इस स्टेटस के साथ शेयर किया…
”ध्वस्त हो चुकी पत्रकारिता की दुनिया में वाकई सर्वाइव करना बेहद मुश्किल है। कनेक्शन से कलेक्शन होता है यहां। दुनिया भर की औपचारिकताओं में बांधकर काबिलियत को जमींदोज करके कीमत तय की जाती है। और मां-बहन हो चुकी उस कीमत को जानकर दर्द होता है उसमें आप नवरत्न तेल खरीदिए..रोज सिर पर मलिए तो शायद ठंडक आपको कुछ राहत दे। फिर जब आप किसी दूसरे संस्थान की ओर पलायन करने की सोचते हैं तो आपकी विचारधारा काफी मायने रखती है। इसके इतर सैलरी स्लिप। अगर नहीं तो फिर से चंपादक अलग अलग तरह से आंकलन करते हैं। और शोषण आपको अवसाद का रास्ता दिखा देता है। पत्रकारिता की दुनिया के अलग ही दर्द हैं, जिसे न कोई सुनता है, न समझता है। हां ये जरूर देखता है कि आपमें कुत्ते बनने की काबिलियत है या नहीं। नहीं तो आपको कोई टायरों के नीचे कुचलने वाला है।”
मेरे इस स्टेटस पर कई कमेंट्स आए। इसमें से एक कमेंट ऐसा भी था जिसमें कहा गया था कि हर कोई रवीश कुमार नहीं बनता। चलिए ये मान लिया मैंने और मैं कोई रवीश कुमार सरीखे बनने को कह भी नहीं कह रहा क्योंकि वो अंधेरा दिखा देते हैं तो भी लोग वाह-वाह करते हैं, कुछ नया बताने लगते हैं लेकिन वहीं जब एक शुरूआती पत्रकार रवीश कुमार से भी बड़ा करता है तो भी उसको तवज्जो नहीं दी जाती। वजह है उसका कद। उसकी कीमत। समाज का एक बड़ा हिस्सा अपनी अपनी सुविधा के अनुसार बेहतर पत्रकार और घटिया पत्रकार, बिकाऊ पत्रकार और टिकाऊ पत्रकार, रंगबाज पत्रकार, लफ्फाज पत्रकार चुन चुका है। जो अब तैयार हो रहे हैं उनके के लिए कोई जगह नहीं। क्योंकि उन्हें इस बात के आधार पर नजरंदाज कर दिया जाता है कि इन्होंने पत्रकारिता की पढ़ाई की है।
लेकिन साहब आपको बता दूं कि रवीश कुमार भी गर्भ से सीखकर नहीं आए। न ही दीपक चौरसिया, दो साल की उम्र इतनी जोर जोर से चिल्लाते हुए आसाराम पर डीबेट करते थे। यहां तक कि पुण्य प्रसून वाजपेई जी भी सत्ता के गलियारे के परिचित जन्म लेने के तुरंत बाद से ही नहीं हो गए थे। पत्रकारिता घिस घिसकर परचून की दुकान बन चुकी है। सबको अपना हल्दी धनिया बेचना है। नहीं बिक रहा तो गरम मसाले के तौर पर मॉल फंक्शन का शिकार, क्लीवेज आदि बातों से खबर बनाकर परोस दी जाती हैं।
आज खुद को नंबर वन बताने वाला कोई भी समाचार पत्र उठाकर देख लीजिए…बाबा बंगाली, टॉवर लगवाएं एक लाख रूपये रेंट मिलेगा आदि आदि विज्ञापन तो होता है और पूरा फायदा जाता है मालिकान को। मैं ये नहीं कह रहा कि फायदा लेना गलत है लेकिन साहब जी तोड़ मेहनत करने वालों के लिए भी नमक की व्यवस्था तो करा ही दीजिए, पुराने पत्रकारों के पास अनुभव माना जाता है…चाहे हों बड़ी सी कटोरी जो कि खाली है। आज रिज्यूमे भेजिए तो कूड़े के भाव जाता है। होता जुगाड़ के आधार पर है। तो मृत्यु कम उम्र में ही दिमाग में उपज जाती है और झूल जाती हैं सारी उम्मीदें, आशाएं, अपेक्षाएं। सच कहूं तो पत्रकारिता में भी जमीनी बदलावों की जरूरत है। अगर नहीं होते हैं तो मरते रहिए, आज आप कल हम…..और आने वाली पीढ़ी भी।
हिमांशु तिवारी आत्मीय
पत्रकार
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