सिद्धार्थ ताबिश-
ग्यारहवीं शताब्दी के शुरुवात में महमूद गज़नवी का भांजा, जिसका नाम “मसूद” था, जो कि उम्र में बहुत छोटा था, अपने मामा के साथ कई लड़ाईयों में हिस्सा लेता था.. जब मामा महमूद गज़नवी का वज़ीर हसन इस बात के लिए तैयार नहीं था कि प्रसिद्द सोमनाथ के मंदिर की मूर्तियों को तोड़ा जाना चाहिए तो इसके लिए “मसूद” ने अपने मामा को मनाया.. और उसने उकसाया.. इसके उकसाने पर महमूद ने सोमनाथ की मूर्तियों को तोड़ा.. 16 साल की उम्र में मसूद ने भारत के विभिन्न क्षेत्रों पर अपने हमले शुरू किये इस उद्देश्य से कि उसे यहाँ “शैतान” को हराकर “इस्लाम” लाना है.. ये उसका एकमात्र मकसद था।
लड़ते मारते अंत में “मसूद” उत्तर प्रदेश के बहराइच में पहुंचा.. वहां एक बड़ी सी झील के किनारे सूर्य देव का मंदिर था.. तुक्रों ने हमले में उस मंदिर को बहुत नुक्सान पहुंचाया था.. कहते हैं वो मंदिर कोर्णाक के सूर्य मंदिर के आधार पर वैसा ही बना था.. बहुत भव्य था.. मदिर के टूटे होने बावजूद वहां सूर्य देवता की पूजा होती थी.. बहराइच और आसपास के लोगों की उस मंदिर में बड़ी श्रधा थी.. मसूद जब भी वहां से गुज़रता तो यही कहता था कि अगर ख़ुदा ने चाहा तो मैं इस मूर्ति को तोड़कर यहाँ एक मस्जिद बनाऊंगा.. अंत में जब श्रावस्ती के राजा सुहैल देव से मसूद की लड़ाई होती है तो वो उस लड़ाई में “मसूद” घायल हो जाता है.. अपनी अंतिम इच्छा में वो ये कह के मरता है कि सूर्य देव की जहाँ मूर्ति है उसे तोड़कर उसकी क़ब्र वहां बनायीं जाय और और जहाँ वो मूर्ति थी वहां उसका सर रखा जाय ताकि “शैतानी अँधेरे” का अंत हो और “इस्लाम का सवेरा” हो।
उसकी सेना ने यही किया.. आज बहराइच के जिस सूफी संत की दरगाह पर मेला लगता है वो यही “मसूद” हैं.. इनका पूरा नाम “सय्यद सलार मसूद गाज़ी” है.. गाज़ी टाइटल उस व्यक्ति को दिया जाता है जिसने “काफ़िरों” को युध्ह में हराया होता है.. वो सूफ़ी नहीं था.. मिलिट्री कमांडर था।
ऊपर लिखी इस घटना को अब्दुर्रहमान चिश्ती ने अपनी किताब मीरत-उल-मसूदी में लिखा जो कि जहाँगीर के समय के इतिहासकार थे.. चिश्ती ने अपनी किताब को मुल्ला मुहम्मद गज़नवी की किताब, तवारीख़-ए-महमूदी के आधार पर लिखा है.. ये मेरा लिखा इतिहास नहीं है.. ये हमारे सेक्युलर इतिहासकारों से भी पुराने इतिहासकारों का लिखा इतिहास है।
आप में से कितने लोगों को इस इतिहास का इल्म था? कितने लोग ये जानते थे कि कभी बहराइच ज़िले, जो की लखनऊ के पास ही है, में सूर्य देव का भव्य मंदिर था? हमारी किस किताब में लिखा गया कि सुहेलदेव ने मसूद गाज़ी को मारा? जो कह रहे हैं कि नार्थ इंडिया में सिर्फ़ मुग़ल थे इसलिए उन्ही का इतिहास लिखा गया तो ये सब इतिहास में क्यूँ नहीं लिखा गया? सुहेलदेव जैसे तमाम राजा कहाँ गए गायब हो गए इतिहास से?
आपके हिसाब से इस इतिहास पर बात करना नफ़रत फैलाना है? सच्चे इतिहास पर बात करना नफ़रत फैलाना होता है?
जो विजेता था वो किसी को याद ही नहीं रहा और जो हारा उसकी दरगाह एक तीर्थस्थल के रूप में बन गयी? ये आपके हिसाब से हमारे इतिहासकारों का इन्साफ है? ये सब कुछ लिखा हुवा है मगर क्या कभी इस सब को हमारे किसी भी अध्याय में सम्मिलित किया गया? औरंगज़ेब टोपी सिलकर अपना खर्चा चलाता था ये जानना हमारे लिए ज्यादा ज़रूरी था? राजा सुहेलदेव हमारे हीरो होने थे कि “मसूद गाज़ी?” किसने राजा सुहेलदेव जैसों को हमारी किताबों में दर्ज ही नहीं किया कभी?
विश्व हिन्दू परिषद् ने २०१७ में योगी आदित्यनाथ से मिलकर वहां फिर से सूर्य मंदिर बनाने का आग्रह किया था जिसके लिए योगी जी तैयार हो गए थे… आप में से कितनों ने ये न्यूज़ पढ़ी थी और इस इतिहास को जानने की कोशिश की थी?
इस्लामिक मुल्क मिस्र के लोग अपने मूर्ति पूजक पूर्वजों को सम्मान देते हैं…
मिस्र के पिरामिड में जो ममी, मंदिर, मूर्तियां, देवता मिलते हैं वो उन्हें गर्व से कहते हैं कि ये हमारे “पूर्वज” हैं.. और वो उनको उतनी ही इज्ज़त देते हैं जितना कोई भी अपने पूर्वजों को देता है.. जबकि मिस्र अब एक इस्लामिक मुल्क है.. फिर भी वो अपने मूर्तिपूजक पूर्वजों को अपना पूर्वज कहते हैं, उन्हें सम्मान देते हैं और अरब के खलीफाओं और हमलावरों को अपना वंशज नहीं बताते हैं।
भारत और पाकिस्तान के मुसलमान महमूद गजनवी और अरबी खलीफाओं को अपना वंशज बताते हैं.. अपने नाम के आगे अरबी खलीफाओं के टाइटल या सर नेम लगाते हैं और ख़ुद को उनका परिवार बताते हैं.. जाने ये “कुंठा” इनमे कहां से आई इतनी कि अपने को ये चंद्रगुप्त, पृथ्वीराज, अशोक, विक्रमादित्य, अग्रसेन इत्यादि का वंशज बोलने में शर्म करते हैं.. और शर्म ही नहीं, अपने पूर्वज को हिंदुस्तानी और हिंदू बताना इनके लिए एक गुनाह जैसा होता है.. ये एकदम आगबबूला हो जाते हैं और मार पीट पर उतर आते हैं.. इनको इस बात में कहीं ज़्यादा आनंद मिलता है कि शिवाजी इनके हमलावर पूर्वजों से डरकर जंगल जंगल घूम रहे थे.. ये इसे बड़ा चटकारा ले कर बताते हैं।
जबकि हिंदुओं का सब कुछ यहीं का है.. उनके सारे पूर्वज, उनके नामों के आगे लगे टाइटल, उनका सर नेम.. हिंदुओं की हर एक जाति यहां के किसी न किसी राजा या कबीले से संबंधित होती है.. हिंदुओं के पूर्वजों की फैमिली ट्री हजारों साल के इतिहास से भरी होती है जबकि किसी मुसलमान के घर की फैमिली ट्री या शिजरा हद से हद गजनवी, शाहजहां या अकबर के ज़माने तक का होता है.. वो भी ऊंची जाति के मुसलमानों में फैमिली ट्री होती है.. उसके आगे का इतिहास न तो इनकी फैमिली ट्री में दर्ज होता है और न ही ये उसको दर्ज करने या जानने में उत्सुक होते हैं.. नीची जाति के पसमांदा, जो कि 85% होते हैं कुल मुस्लिम आबादी के, उनकी कोई फैमिली ट्री, कोई पूर्वज और कोई इतिहास नहीं होता है.. यहां तक कि भारत के हर आदिवासी का भी अपना पूर्वज है मगर इनका नहीं.. इन्हें ऐसा इनकी जड़ों से काटा गया है।
जब आपका कुछ भी इस देश से संबंधित होता ही नहीं है सिवाए रहने, खाने और हगने के तब आप जानते हैं कि आपको किस तरह का व्यवहार मिलता है? बिल्कुल ठीक सोचा.. एक “रिफ्यूजी” जैसा.. और सारी उम्र आप अपनी आइडेंटिटी की लड़ाई लड़ते रहते हैं क्योंकि दिल्ली का लालकिला आपको अपने पूर्वज का लगता है और शिवाजी का रायगढ़ का किला आपको अपने पूर्वज द्वारा हराए गए किसी दुश्मन का.. ये फ़र्क आपको कभी भी हिंदुस्तानी बनने ही नहीं देता है।
इस बात पर बहुत प्रसन्न न हो जाया कीजिए कि जूलिया वही धर्म मानती है जो आप मानते हैं…
हॉलीवुड की मशहूर अभिनेत्री जूलिया रॉबर्ट “हिंदू” धर्म मानती हैं.. वो हिंदू धर्म में आईं नीम करौली बाबा की शिक्षाओं के द्वारा.. क्या आपको ये लगता है जिस तरह के हिंदू धर्म को जूलिया मानती हैं या उनकी जो समझ है इस धर्म को लेकर वही भारत के 99% हिंदुओं की भी समझ है अपने धर्म को लेकर?
नहीं.. 99% हिंदुओं के हिंदू होना मतलब कथा, जगराता, माता की चौकी, नवरात्र, करवाचौथ और तमाम तरह के त्योहार और कर्मकांड.. एक हिंदू की सारी उम्र इसी सब को मनाते हुवे, जीते हुवे बीत जाती है.. वो बस ख़ुद को हिंदू इसलिए कहता है क्योंकि वो एक हिंदू परिवार में पैदा होता है.. 99% तो मरते दम तक जान ही नहीं पाते हैं कि हिंदू होने का अर्थ क्या है.. महाभारत और रामायण वो अपने घरों में बचपन से इतना सुनते आते हैं कि उनके लिए उसमे न तो कोई अर्थ बचता है और न ही रस बचता है.. अपना धर्म हिंदू के लिए एक “रूटीन” से ज़्यादा कुछ नहीं होता है
जूलिया और विल स्मिथ जैसे लोग जब महाभारत या रामायण पहली बार पढ़ते हैं तो वो उसका एक एक अर्थ और रस समझ कर पढ़ते हैं.. उनका बचपन रामलीला देखते हुवे नहीं बीता होता है.. वो सब कुछ उनके लिए नया होता है जहां उनके लिए अपने रूटीन से हटकर एक नया आयाम और अध्याय जानने का अवसर मिलता है.. और फिर वो उसे जीते हैं.. उनकी पूजा से लेकर उनके द्वारा किए हर कर्मकांड में मन समर्पित होता है क्योंकि वो अर्थ समझकर अब कुछ कर रहे होते हैं.. आपकी तरह रूटीन वाला सूर्य नमस्कार नहीं
इसलिए इस बात पर बहुत प्रसन्न न हो जाया कीजिए कि जूलिया वही धर्म मानती है जो आप मानते हैं.. दरअसल आपको दुःखी होना चाहिए इस बात को सोचकर कि अगर आप ईसाई या मुस्लिम होते तो क्या आप जुलिया की तरह हिंदू धर्म अपनाते? नहीं, क्योंकि आपको हिंदू रहते हुवे भी हिंदू धर्म वैसा समझ नहीं आया जैसा जूलिया ने समझा.. आपकी उम्र जगराता और बड़ा मंगल मनाते हुवे बीत जाएगी और जो मर्म या अर्थ जूलिया जैसे लोगों ने हिंदू होने का समझा है वो शायद आप कभी समझ न पाए
ये वीडियो देखें-
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डाक्टर पथिक की ये प्रतिक्रिया पढ़ें-
मेरा एक झोला छाप डॉक्टर मित्र है। कक्षा 8 तक की शिक्षा दीक्षा प्राप्त कर रखी है उसने। हर मरीज को सबसे पहले डेक्सामेथासोन और जेंटामाइसिन का इंजेक्शन लगाता है।
यही उसका रामबाण इलाज है। और उसके बाद एक आयुर्वेदिक लिवर टॉनिक और होम्योपैथिक की कुछ गोलियां देते हुए हर मरीज से कहता है कि अंग्रेजी दवाएं नुकसान करती हैं इसलिए मैं देसी दवाई देता हूं। यही सब करके वह डॉक्टर हर मरीज का ढाई तीन सौ का बिल बना दिया करता है। मैं अक्सर सोचता हूं कि नीम हकीम खतरा ए जान की कहावत शायद इसी व्यक्ति के लिए बनाई गई है।
कल रात मुझे वह झोला छाप डॉक्टर मिला। सस्ती शराब पिया हुआ था। मिलते ही मुझे बोला कि “यार ये अपनी किताबों में केवल मुगल बाबर अकबर औरंगजेब को क्यों पढ़ाया गया है?
चोल चालुक्य और राष्ट्रकूट जैसे सच्चे हिन्दू राजाओं के विषय में क्यों नहीं पढ़ाया गया? मुंशी प्रेमचंद की ईदगाह कहानी क्यों पढ़ाई गई है जिहाद कहानी क्यों नही पढ़ाई गई?
मैं सोच रहा था उससे बोलूं कि “भोसड़ी के यदि तूने 12 वी तक इतिहास और साहित्य पढ़ा होता तो देखता कि सब पढ़ाया गया है। तू आठवी में फ़ैल हो गया तो इसमें नेहरू का क्या कसूर”। पर ये सब मैं उससे नही बोला। क्योंकि मैं महंगी शराब पिए हुआ था। और सर अल्बर्ट आइंस्टीन का कथन है कि “महंगी शराब पीने वालों को सस्ती शराब पीने वालों से नही उलझना चाहिए”