शंभूनाथ शुक्ला के मुताबिक भारतीय आयुर्वेद में लीवर सिरोसिस का एकमात्र इलाज मांसाहार है

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Shambhu Nath Shukla : मैं यह पोस्ट लिखकर शाकाहारियों की भावनाओं को ठेस नहीं पहुंचा रहा है लेकिन यह विचारणीय तो है ही। मेरे एक दामाद कानपुर में रहते हैं। वे थोड़ा फक्कड़, अलमस्त तबियत के और सर्द मिजाज के आदमी हैं। मन आया तो काम किया नहीं मन आया तो नहीं किया। लेकिन वे मेडिकल के अदभुत जानकार हैं और अगर मौका मिले तो शीर्ष पर पहुंच सकते हैं। लेकिन कानपुर में कामबिगाड़ू और धूर्त लोग भी कम नहीं हैं। उनके श्रम और कौशल का फायदा उठाया और चलते बने।

वह मेडिकल के प्रोफेसन से जुड़े होने के कारण एक बार पास के जिले के एक मशहूर डॉक्टर खान साहब के पास गए हुए थे। खान साहब ने पूरी जिंदगी कनाडा में गुजारी पर अब अपने बेटे-बहू के पास आ गए हैं। डाक्टर वे लाजवाब हैं। एक रोज मेरा दामाद जब उनके पास पहुंचा तो वे लंच ले रहे थे। उन्होंने दामाद से भी आग्रह किया कि वह भी उनके साथ लंच ले। पर दामाद ने कहा कि सर मैने कुछ ही देर पहले लंच लिया है जो मैं अपने घर से लाया था। डाक्टर साहब ने सहज भाव से पूछा कि लंच में क्या लिया? वह बोला कि सर लौकी की सब्जी और रोटी। डॉक्टर साहब ने पूछा कि अब डिनर कित्ते बजे करोगे? उसने कहा कि कानपुर पहुंचने के बाद वही करीब रात 11 बजे। अब डॉक्टर खान बोले- “यानी बीच में करीब दस घंटे का गैप। तब क्या तुम समझते हो कि तुम्हारी लौकी दस घंटे तक के लिए जरूरी प्रोटीन और विटामिन तुम्हें दे पाएगी?”

इनके पास इसका कोई जवाब नहीं था। डॉक्टर साहब ने कहा कि शरीर को स्वस्थ रखने के लिए प्रोटीन, विटामिन और कैलोरी आदि सब चाहिए पर हिन्दुस्तानियों में से ज्यादातर बस लौकी, कददू, तरोई, खीरा खाकर बड़े हुए हैं और इसीलिए वे शारीरिक रूप से कमजोर होते हैं। दुनिया में गरीब सब जगह हैं लेकिन कुपोषित सिर्फ भारतवर्ष में क्योंकि यहां खानपान पर धार्मिक अंकुश इतने ज्यादा हैं कि यह खाओ वह न खाओ। मजे की बात कि लीवर सिरोसिस का एकमात्र इलाज अपना भारतीय आयुर्वेद भी मांसाहार ही बताता है। बल्कि चरक संहिता में तो गाय का मांस खाए जाने की बात भी लिखी है। खुद वेद भी बताते हैं कि गाय का मांस खाना कदापि गलत नहीं है। मुझे लगता है कि अब रोजाना मांस खाना शुरू करना चाहिए। मांस खाना धार्मिक भावनाओं का मजाक उड़ाना नहीं है। कलकत्ता में काली मंदिर में हर बुधवार को भैंसे काटे जाते हैं और सबसे ज्यादा मांस वहां का पुजारी ही ले जाता है। शाक्त ब्राह्मण धड़ल्ले से मांस खाते हैं। खुद फर्रुखाबाद में कनौजिए हर तरह का मांस खाते हैं। आयुर्वेद पढिए। लीवर सिरोसिस में आयुर्वेद हर भोजन में मांस खाने की सलाह देता है। रात को भी सुबह भी और दोपहर को भी।

वरिष्ठ पत्रकार शंभूनाथ शुक्ला के फेसबुक वॉल से.



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Comments on “शंभूनाथ शुक्ला के मुताबिक भारतीय आयुर्वेद में लीवर सिरोसिस का एकमात्र इलाज मांसाहार है

  • shambhunath shukla says:

    चरक संहिता के सूत्र स्थानम के अध्याय 27 के श्लोक संख्या 79 व 80 में कहा गया है-
    वाराहपिशितं बल्यं रोचनं स्वेदनं गुरु। गव्यं केवलवातेषु पीनसे विषमज्वरे॥ 79॥
    शुष्ककासश्रमात्यग्निमांसक्षयहितं च तत्। स्निग्धोष्णं मधुरं वृष्यं माहिषं गुरु तर्पणम्॥80॥
    अर्थात सूअर का मांस स्निग्धताकारक, स्थूल बनाने वाला, वीर्यवर्धक, थकावट और वातविकार को दूर करता है। बलकारक, रुचिकर, स्वेदनकारक और गुरुपाकी होता है। जबकि गोमांस- केवल वातरोग में, पीनस रोग में, विषम ज्वर में, सूखी खांसी में, थकावट में, भस्मक रोग में और मांसक्षयकारी रोगों में हितकर है।

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    • Narendra Singh says:

      अबे चुतिये मुल्ले की औलाद अपना नंबर दे अर सिद्ध कर वेद मे मांस खाने का प्रकरण है अगर सिद्ध कर दिया तो मै जिसका तु बोले उसका मांस खा लूंगा पर सिद्ध ना कर पाया तो तुझे सुवर की टट्टी खानी पड़ेगी,

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  • avdhesh kanojia says:

    हमारे वेद मांसाहार की अनुमति कदापि नही देते और गौमांस की तो बिलकुल भी नही. हमारे देश में आक्रमणकारियों ने हमारे ज्ञान को भ्रमित करने के लिए मूल ग्रंथो करके उसने छेड़छाड़ करके कुछ अशुध्द श्लोक जोड़ दिए. जिस हिन्दू ने गौमांस खा लिया वो उसी क्षण हिंदुत्व से भरषट हो जाएगा.

    कुछ उदहारण प्रस्तुत है मांसाहार निषेध के वेदों से.

    पशु बलि प्रथा- देवताओं को प्रसन्न करने के लिए बलि का प्रयोग किया जाता है। बलि प्रथा के अंतर्गत बकरा, मुर्गा या भैंसे की बलि दिए जाने का प्रचलन है। सवाल यह उठता है कि क्या बलि प्रथा हिन्दू धर्मका हिस्सा है?

    ”मा नो गोषु मा नो अश्वेसु रीरिष:।”- ऋग्वेद 1/114/8
    अर्थ : हमारी गायों और घोड़ों को मत मार।

    विद्वान मानते हैं कि हिन्दू धर्म में लोक परंपरा की धाराएं भी जुड़ती गईं और उन्हें हिन्दू धर्म का हिस्सा माना जाने लगा। जैसे वट वर्ष से असंख्य लताएं लिपटकर अपना अस्तित्व बना लेती हैं लेकिन वे लताएं वक्ष नहीं होतीं उसी तरह वैदिक आर्य धर्म की छत्रछाया में अन्य परंपराओं ने भी जड़ फैला ली। इन्हें कभी रोकने की कोशिश नहीं की गई।

    बलि प्रथा का प्राचलन हिंदुओं के शाक्त और तांत्रिकों के संप्रदाय में ही देखने को मिलता है लेकिन इसका कोई धार्मिक आधार नहीं है। बहुत से समाजों में लड़के के जन्म होने या उसकी मान उतारने के नाम पर बलि दी जाती है तो कुछ समाज में विवाह आदि समारोह में बलि दी जाती है जो कि अनुचित मानी गई है। वेदों में किसी भी प्रकार की बलि प्रथा कि इजाजत नहीं दी गई है।

    ”इममूर्णायुं वरुणस्य नाभिं त्वचं पशूनां द्विपदां चतुष्पदाम्।
    त्वष्टु: प्रजानां प्रथमं जानिन्नमग्ने मा हिश्सी परमे व्योम।।”

    अर्थ : ”उन जैसे बालों वाले बकरी, ऊंट आदि चौपायों और पक्षियों आदि दो पगों वालों को मत मार।।” -यजु. 13/50

    पशुबलि की यह प्रथा कब और कैसे प्रारंभ हुई, कहना कठिन है। कुछ लोग तर्क देते हैं कि वैदिक काल में यज्ञ में पशुओं की बलि दी जाती है। ऐसा तर्क देने वाले लोग वैदिक शब्दों का गलत अर्थ निकालने वाले हैं। वेदों में पांच प्रकार के यज्ञों का वर्णन मिलता है। जानिए, पांच प्रकार के यज्ञ…

    पशु बलि प्रथा के संबंध में पंडित श्रीराम शर्मा की शोधपरक किताब ‘पशुबलि : हिन्दू धर्म और मानव सभ्यता पर एक कलंक’ पढ़ना चाहिए।

    ” न कि देवा इनीमसि न क्या योपयामसि। मन्त्रश्रुत्यं चरामसि।।’- सामवेद-2/7
    अर्थ : ”देवों! हम हिंसा नहीं करते और न ही ऐसा अनुष्ठान करते हैं, वेद मंत्र के आदेशानुसार आचरण करते हैं।”

    वेदों में ऐसे सैकड़ों मंत्र और ऋचाएं हैं जिससे यह सिद्ध किया जा सकता है कि हिन्दू धर्म में बलि प्रथा निषेध है और यह प्रथा हिन्दू धर्म का हिस्सा नहीं है। जो बलि प्रथा का समर्थन करता है वह धर्मविरुद्ध दानवी आचरण करता है। ऐसे व्यक्ति के लिए सजा तैयार है। मृत्यु के बाद उसे ही जवाब देना के लिए हाजिर होना होगा।

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  • avdhesh kanojia says:

    1. चरक के अनुसार मांसाहार शरीर को पोषण देता है. ऋषि चरक ने कभी कभी मांस खाने का उल्लेख किया है. लेकिन वो मांस खाने के लिए कुछ विशेष अवस्थाओं में ही करते हैं. जैसे शारीरिक क्षय, अति क्षीण या कमजोरी के कारण मांसपेशियां कार्य करने में समर्थ हो जाएँ. परन्तु केवल और केवल मांसाहार मूल आयुर्वेदिक सिद्धांतों शामिल नहीं है.
    2. ये मांस भक्षण ऐसा नहीं है जैसा आजकल हो रहा है. ये रोग की गम्भीरता पर निर्भर था कि किसी रोगी को मांस दिया जाना चाहिए या नहीं. चरक के समय के जानवर फ़ार्म हाउस में नहीं रखे जाते थे और न ही उन्हें कृत्रिम रूप से सिर्फ मांस भक्षण के लिए पाला जाता था. उस समय जानवर जंगल में विचरते थे और उन्हें खाने के लिए शिकार करके ही मारा जाता था.
    3. लेकिन आज के माहौल से हम तुलना करें तो आज मांस खाने के लिए अधिकाँश जानवरों को उनके मूल स्थान जंगल से उठा कर फार्म हाउस में पाला जा रहा है. साथ ही साथ मांस बढ़ाने के लिए उन्हें केमिकल रुपी जहर की खुराक खाने और इंजेक्शन के द्वारा दी जा रही है.
    4. तो आज के परिपेक्ष्य में मांस खाना चरक के तर्क से वैसे भी अनुचित साबित हो जाता है. मेरे विचार से मांस का भक्षण उसी रोगी के लिए उचित है जहाँ शाकाहारी / हर्बल उपाय उसके जीवन को बचाने के लिए सीमित संख्या में उपलब्ध हों.
    5. आयुर्वेद के अनुसार जो प्राक्रतिक तत्व जिस क्षेत्र में अधिक पाए जाते हैं उन प्राकृतिक तत्वों का बाहुल्य भी उस क्षेत्र में पाए जाने वाले जीवों में होता है. उदाहरण के लिए जलीय वातावरण में रहने वाले जीवों का मांस शुष्क क्षेत्र में रहने वाले जीवों के मांस से ज्यादा नम और भारी होगा. चरक के अनुसार अगर कोई जानवर अपने प्राकृतिक वातावरण में नहीं रह रहा है या उस भोगौलिक क्षेत्र का मूल निवासी नहीं है या किसी किसी ऐसे वातावरण में शिकार किया गया है जहाँ का माहौल उस के अनुरूप नहीं है या पशु विषाक्त है तो ऐसे मांस को नहीं खाना चाहिये.
    यदि लोग आयुर्वेद में मांस खाने की बात के मर्म को नहीं समझ कर इस तथ्य के पीछे पड़के मांसाहार को जस्टिफाई करते है तो इसे मांस खाने की आपकी इच्छा को ऊपर बताई गयी कहानी जैसे ही जस्टिफाई करना समझा जाएगा !!!
    मित्रों एक बार सोचिये कि यदि उस निरीह जानवर की जगह आप होते और आपकी गर्दन पकड के कोई काट रहा होता (जैसे कि तालिबान जैसे राक्षस अपने पागलपन को पूरा करने के लिए करते है ) तो आप पर क्या बीतती ?
    इसलिए आइये हम सब भारत की परम्पराओं के अनुरूप जब तक संभव हो शाकाहार अपनाएँ और सिर्फ जीभ के स्वाद के लिए किसी की ह्त्या करके उसका जीवन नष्ट न करें.
    “सर्वे भवन्तु सुखिनः सर्वे सन्तु निरामयाः । सर्वे भद्राणि पश्यन्तु मा कश्चिद्दुःखभाग्भवेत् ॥“

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