Shishir Sinha : आज ही का दिन था। साल था 1994। अपने साथी प्रणव प्रियदर्शी (फिलहाल जी हिंदुस्तान में कार्यरत) के साथ वाराणसी से श्रमजीवी एक्सप्रेस से दिल्ली पहुंचा था। पैसे जेब में ज्यादा नहीं थे। इसीलिए बगैर आरक्षण के स्लीपर क्लास के दरवाजे पर सफर किया। रात को नींद आयी तो अखबार बिछाकर दरवाजे के पास ही झपकी ले ली। खैर सुबह-सुबह दिल्ली पहुंचा।
सबसे पहले सामना हुआ ऑटो वाले से। वो हमें पहचान गए। एक शिकार थे हम। दक्षिणी दिल्ली जाना था। मीटर तो तब भी नहीं चलता था। आश्रम के पास घुमते-घुमाते पहुंचे। सौ रुपये वसूल लिए, जबकि कायदे से किराया 30 रुपये से ज्यादा नहीं बनता था। क्या करें, रास्ता तो पता था नहीं और ना ही मीटर का अंदाजा। लूट गए।
दूसरा झटका तो तब लगा जब एक रिश्तेदार के यहां पहुंचे। बहुत करीबी थे। सोचा था कि उनसे आस-पास किराये पर कमरा दिलाने का आग्रह करुंगा, क्योंकि दिल्ली में तो कोई अपना पहचान का तो था नही। उनके घर पर एक भी दिन रुकने का इरादा नहीं था। लेकिन उनके घर पहुंचते ही जिस तरह का व्यवहार मिला, वो बेहद दुखद था। चाय-पानी तो छोड़िए, पहला सवाल था, कब निकलना है। खैर, 10-15 मिनट के भीतर ही वहां से निपट लिए।
अगला पड़ाव चाणक्यपुरी का यूथ हॉस्टल था। बेहद मामूली किराये पर विस्तर मिला, चंद दिनों के लिए। पास में एक ढाबा था। 10 रुपये में चावल-‘मांस’ मिल जाता था। कुछ दिन गुजरें। यहीं से पूरे दिल्ली शहर में चप्पलें चटकानी शुरु की।
अच्छी बात ये हुई कि पीटीआई-भाषा में इंटर्नशिप का मौका मिल गया। कोई पैसा नहीं मिलता था। बाबुजी से मांगने में संकोच होता था, फिर भी वो अपने सामर्थ्य से ज्यादा पैसा भेजने की कोशिश करते थे। इस बीच, दो जगहों पर टयूशन शुरु कर दिया। आकाशवाणी के कार्यक्रमों के लिए स्क्रिप्ट लिखना शुरु कर दिया। साथ ही अखबारों में लेख छपवाने की कोशिश में लगा। नहीं भूल पाता हुं जब एक अखबार में फीचर विभाग के प्रभारी ने आलेख तीन-तीन बार दोबारा लिख कर लाने को कहा और मैने उसी दफ्तर की सीढ़ियों पर तीन बार आलेख लिखा। बाद में वो आलेख छपा और कुछ पैसे भी मिले।
संघर्ष के दिन थे। ना दिन का पता था और ना ही रात का। लेकिन साहस मिलता था बड़े भाई अतानु दा (पीटीआई भाषा वाले) से। हर संभव उन्होंने मेरी मदद की, चाहे इंटर्नशिप की बात हो या फिर आकाशवाणी में काम दिलवाने में। वहीं परम मित्र संदीप की मदद से पालम में कमरा मिल गया। 500 रुपये किराया। लेकिन मकान मालिक इतने अच्छे थे कि जब उन्हे किराया देने जाता था वो पहले पूछते थे कि तुम्हारे पास पैसा है या नहीं। काश, सभी संघर्षशील साथियों को ऐसे ही मकान मालिक मिले।
बहरहाल, इतना पैसा जुट जाता था जिससे मकान का किराया, खाना, बस के किराये वगैरह का खर्च निकल जाए। लेकिन 20 तारीख तक आते-आते हालत खराब हो जाती थी। एक-एक रुपये, सौ-सौ रुपये के बराबर लगते। एक दिन पैंट जेब से बचे हुए कुल 25 रुपये कही गिर गए और शर्ट की ऊपरी जेब में बचा पांच रुपया। महीना पूरा होने में सात दिन का समय बचा था और किसी से उधार मांगने की हिस्मत नहीं होती थी। चूंकि रात के खाने कि लिए महीने भर की रकम पहले ही डिब्बे वाली आंटी को दे चुका था, लिहाजा उसकी चिंता नहीं थी। लेकिन आंटी हफ्ते में सिर्फ छह दिन खाना मुहैया कराती थी, एक दिन का इंतजाम खुद करना होता था। वो सात दिन कैसे गुजरे, बता नहीं सकता।
ये सबकुछ 10 महीने तक चला। 23 जून 1995 को पहली नौकरी मिली। 2000 रुपये महीने की पगार पर, जिसमें से 200 रुपये पीएफ के कट जाते थे, यानी 1800 रुपये का वेतन। बता नहीं सकता, पहली बार 1800 रुपये मिलने पर कितनी खुशी हुई थी और उसे खर्च करने की कितनी योजनाएं बना ली थी। ट्यूशन तब भी जारी रखा। मजे की बात है कि एक ट्यूशन ओल्ड राजिंदर नगर में ही मिला। वही ओल्ड राजिंदर नगर जहां आज अपनी रिहाइश है।
तब से लेकर आज तक दिल्ली ने काफी कुछ दिया। नौकरी दी, पत्नी दी, परिवार बनाया, डेरे को घर में तब्दील कराया। लेकिन पहली सितम्बर 1994 से लेकर पहली सितम्बर 2017 के बीच कई कड़वे अनुभव भी हुई, सीख भी मिली। सबसे बड़ी सीख तो ये कि आप अपने जिस रिश्तेदार को सबसे करीब मानते हैं, उनसे कोई मदद नही मिलती, लेकिन साथ देते है वो जिनसे कोई खून का रिश्ता नहीं होता।
आज दिल्ली मेरे लिए मेरा शहर हो गया है। हालांकि जड़ अभी भी पटना में है और मन वाराणसी में गाहे-बगाहे विचरता रहता है।
शुक्रिया दिल्ली
शिशिर सिन्हा वरिष्ठ पत्रकार हैं और कई न्यूज चैनलों में वरिष्ठ पदों पर कार्य कर चुके हैं. इन दिनों एबीपी न्यूज में सीनियर ओहदे पर पदस्थ हैं. उनका यह लिखा उनके एफबी वॉल से साभार लेकर भड़ास पर प्रकाशित किया गया है.