[अयोध्या सिंह की किताब ‘भारत का मुक्ति संग्राम‘ ब्रिटिश सत्ता के ख़िलाफ़ भारतीय जनता के संघर्ष का एक शानदार दस्तावेज़ है. यह क़िस्सा इसी किताब के पेज 331 से.]
ग्वालियर राज्य की जनता और सेना विद्रोह करना चाहती थी, लेकिन उसका कायर राजा जयाजीराव सिंधिया अपने मंत्री दीवान दिनकर राव रजवाड़े की मुट्ठी में था, और दीवान अंग्रेज़ों की मुट्ठी में।
इसके बावजूद सिपाहियों ने 14 जून 1857 को विद्रोह किया। अंग्रेज़ों को मार भगाया। उनकी औरतों को क़ैद कर लिया गया। सेना ने सिंधिया से नेतृत्व करने और आगरा, कानपुर तथा दिल्ली चलने को कहा, लेकिन वह ग़द्दार वादे करके टालता रहा।
अगर इतिहास की उस निर्णायक घड़ी में सिंधिया ने विद्रोह का साथ दिया होता तो क्या होता?
खुद एक अंग्रेज़ जी बी मैलसन के शब्दों में सुनिए
मूल स्रोत, किताब यहाँ पढ़ी जा सकती है।
अपने खोए हुए अधिकार को फिर से हासिल करने के लिए वह सबसे ज़्यादा अनुकूल क्षण था। ज़रूरत सिर्फ़ विद्रोही फ़ौजों के प्रस्तावों को मान लेने और अंग्रेज़ों से बदला लेने की थी। अगर उसने मान लिया होता, उनका नेतृत्व किया होता और इसी तरह अपने विश्वस्त मराठों के साथ युद्ध-क्षेत्र की तरफ़ प्रस्थान किया होता, तो परिणाम हमारे लिए सबसे ज़्यादा विनाशकारी होते।
वह हमारे कमज़ोर स्थानों पर कम से कम 20 हज़ार सैनिक लेकर चढ़ आता जिनमें आधे को यूरोपियों ने क़वायद और अनुशासन की शिक्षा दी थी। आगरा और लखनऊ का तुरंत पतन हो जाता। हैवलाक इलाहाबाद में बंद हो जाता और या विरोधी उसे बगल में छोड़कर बनारस होकर कलकत्ता पर चढ़ जाते। उन्हें रोकने के लिए न सेना थी न क़िलेबंदी। [ G.B.Malleson, Red Pamphlate, Page-194]
गवर्नर जनरल कैनिंग ने विलायत तार भेजा था
अगर सिंधिया विद्रोह में शामिल हो जाता है, तो कल ही हमें बोरिया-बिस्तर बांधकर चले आना होगा।
लेकिन सिंधिया ने साथ अंग्रेज़ों का दिया और परिणाम हम सब जानते हैं।
*G.B.Malleson ब्रिटिश सिविल सेवा का अधिकारी था जो 1857 के विद्रोह के समय भारत में ही था।
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साभार Ashok Kumar Pandey