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साहित्य

कहानीः मेट्रो की अनोखी यादें

रोज की तरह आज भी मैं दिलशाद गार्डन मेट्रो स्टेशन से कश्मीरी गेट तक के लिए मेट्रो में चढ़ा लगभग 20 मिनट का छोटा सा सफ़र है. रोज की ही तरह नए-नए चेहरे मेरे सामने थे, मैं दूसरी बोगी के 2 नंबर गेट के पास वाली पहली सीट पर जा बैठा. मेरे बगल वाली सारी सीट खाली थी. आज सुबह भीड़ कुछ कम थी, शायद सप्ताह का आखिर दी होने के कारण लोग अपने घरों में छुट्टी का लुत्फ़ उठा रहे थे. अगले स्टेशन पर कुछ सज्जन आकर मेरे साथ वाली सीट छोड़कर बैठ गए. तीसरा स्टेशन मानसरोवर पार्क आया और अचानक एक व्यक्ति मेरे साथ वाली सीट पर आ बैठा. देखने में तो ठीक-ठाक ही लग रहा था. पर था कुछ अलग. कहने का तात्पर्य है कि बाकी लोगों से कुछ अलग था. दो स्टेशनों तक तो वह शांत मुद्रा में बैठा रहा. पर आकस्मिक ही उसे न जाने क्या हुआ अजीब सी हरकतें करने लगा. अपने जूतों को उतार कर अपनी जैकेट में रखने लगा, मोजों से खिलवाड़ करने लगा. कभी किसी को तो कभी किसी को छेड़ रहा था. अपने में ही मगन हंस रहा था.

<p>रोज की तरह आज भी मैं दिलशाद गार्डन मेट्रो स्टेशन से कश्मीरी गेट तक के लिए मेट्रो में चढ़ा लगभग 20 मिनट का छोटा सा सफ़र है. रोज की ही तरह नए-नए चेहरे मेरे सामने थे, मैं दूसरी बोगी के 2 नंबर गेट के पास वाली पहली सीट पर जा बैठा. मेरे बगल वाली सारी सीट खाली थी. आज सुबह भीड़ कुछ कम थी, शायद सप्ताह का आखिर दी होने के कारण लोग अपने घरों में छुट्टी का लुत्फ़ उठा रहे थे. अगले स्टेशन पर कुछ सज्जन आकर मेरे साथ वाली सीट छोड़कर बैठ गए. तीसरा स्टेशन मानसरोवर पार्क आया और अचानक एक व्यक्ति मेरे साथ वाली सीट पर आ बैठा. देखने में तो ठीक-ठाक ही लग रहा था. पर था कुछ अलग. कहने का तात्पर्य है कि बाकी लोगों से कुछ अलग था. दो स्टेशनों तक तो वह शांत मुद्रा में बैठा रहा. पर आकस्मिक ही उसे न जाने क्या हुआ अजीब सी हरकतें करने लगा. अपने जूतों को उतार कर अपनी जैकेट में रखने लगा, मोजों से खिलवाड़ करने लगा. कभी किसी को तो कभी किसी को छेड़ रहा था. अपने में ही मगन हंस रहा था.</p>

रोज की तरह आज भी मैं दिलशाद गार्डन मेट्रो स्टेशन से कश्मीरी गेट तक के लिए मेट्रो में चढ़ा लगभग 20 मिनट का छोटा सा सफ़र है. रोज की ही तरह नए-नए चेहरे मेरे सामने थे, मैं दूसरी बोगी के 2 नंबर गेट के पास वाली पहली सीट पर जा बैठा. मेरे बगल वाली सारी सीट खाली थी. आज सुबह भीड़ कुछ कम थी, शायद सप्ताह का आखिर दी होने के कारण लोग अपने घरों में छुट्टी का लुत्फ़ उठा रहे थे. अगले स्टेशन पर कुछ सज्जन आकर मेरे साथ वाली सीट छोड़कर बैठ गए. तीसरा स्टेशन मानसरोवर पार्क आया और अचानक एक व्यक्ति मेरे साथ वाली सीट पर आ बैठा. देखने में तो ठीक-ठाक ही लग रहा था. पर था कुछ अलग. कहने का तात्पर्य है कि बाकी लोगों से कुछ अलग था. दो स्टेशनों तक तो वह शांत मुद्रा में बैठा रहा. पर आकस्मिक ही उसे न जाने क्या हुआ अजीब सी हरकतें करने लगा. अपने जूतों को उतार कर अपनी जैकेट में रखने लगा, मोजों से खिलवाड़ करने लगा. कभी किसी को तो कभी किसी को छेड़ रहा था. अपने में ही मगन हंस रहा था.

लग रहा था मानो अपने मन में किसी चीज़ की खुशियाँ मना रहा हो. वह पूरी बोगी का मुख्य बिंदु बन चुका था, जितने भी लोग उस बोगी में मौजूद थे केवल उसी की ओर देख रहे थे. उसने जैसे सब को मोहित कर लिया था. सब उसकी तरफ आकर्षित हो गए थे. अपना सब कुछ भूल कर उसी को जानने कि कोशिश में लग गए थे, तभी अगले स्टेशन पर एक महिला डिब्बे में चढ़ी और आकर उसी के सामने खड़ी हो गई. उससे अनभिज्ञ थी. उसके अलावा लगभग सभी उसका कारनामा देख चुके थे. वह एकटक उस महिला को निहार रहा था, शर्म से उस महिला ने ही अपना सर झुका लिया. पर वो था कि उस महिला से नज़रें हटाने को तैयार नहीं था.

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अचानक उसने उस महिला का दुपट्टा अपने हाथ में लिया और उसके साथ खेलने लगा. महिला कि नज़र जब पड़ी तो वह घबरा गया, सहमा सा अपनी सीट पर जैसे सिमट सा गया. इतना डर गया जैसा उसे किसी ने कोई पिस्तोल दिखा दी हो. लगता था शायद डांट का अनुभव न हो उसे. इस दुनिया से अनजान हो. साफ़ था उसकी मंशा उस महिला को छेड़ने की नहीं थी. डांट खाने के बाद सभी लोग उसे घूरने लगे, अगर पुलिस का डर नहीं होता तो शायद मेट्रो में बैठे लोग उसे इसकी सजा भी दे सकते थे. पर सभी चुप थे, उसे पागल समझ रहे थे, पर मैं था कि उसके प्रभाव में सबसे ज्यादा आ चुका था. उसे समझने कि कोशिश कर रहा था. पर वो समझने लायक शायद था नहीं किसी कि बात सुनने को तैयार नहीं था, अपने मेंही मगन किसी से कोई लेना-देना नहीं.
 
कुछ देर बाद वह फिर से अपनी उसी शैली में आ गया. और फिर से खिलोल करने लगा. सीलमपुर स्टेशन पर गेट खुला और वह अचानक कूद कर ट्रेनसे उतर गया, सबने चैन कि सांस ली. पर मैं अकेला था जिसे उसके उतरने का सबसे ज्यादा दुख हुआ था. जैसे ही मैंने अपनी नज़र घुमाई वो फिर से कूद कर ट्रेन से दरवाजे से भिड़ता हुआ ट्रेन में आ गया. उसकी सीट घिर चुकी थी पर वो महिला उसे देखते ही फिर से खड़ी हो गई शायद वो उसे कुछ और ही समझ रही थी. पर जो वो उसे समझ रही थी वो असल में वैसा था नहीं. अलग जरुर था पर कुछ तो बात थी उसमें, तभी तो उससे हर एक व्यक्ति आकर्षित हुआ. सब में नहीं होती यह क्षमता केवल कुछ विरले ही होते हैं जिनमें ऐसी कला होती है.

कश्मीरी गेट पहुँचने में उस दिन कुछ ज्यादा ही समय लग रहा था, लग रहा था मानों समय ठहर सा गया हो. इसी बीच उसने अपनी हरकतें तेज़ कर दी, वो तेज़ी से हंसने लगा, अपने जूतों को कभी अपने सर से लगा रहा था कभी अपनी पर रखकर खुद खड़ा होकर, उन्हें निहार रहा था, कभी उनकी पूजा करने का स्वांग रचा रहा था, तो कभी किसी के ऊपर गिरते-गिरते अपने को संभाल रहा था, मानो सामने वाले को डरा रहा हो.

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तभी एक व्यक्ति आगे आया और चिल्ला कर कहने लगा…अबे क्या परेशानी है तेरी? तो जवाब तो नहीं दिया उसने पर उस व्यक्ति को सब के सामने एक खिलौना जरुर बना दिया. वो व्यक्ति उस पर चिल्ला रहा था और वो था कि मियाऊं…मियाऊं…की आवाजें निकाल रहा था. उस व्यक्ति को अपनी बेईज्जती महसूस हुई, तभी एक दूसरे व्यक्ति ने आगे आकर कहा अरे जाने दो भाई ये साला तो पागल लगता है, इसे अगले स्टेशन पर धक्का मार कर उतार दो. वहां उसे उतारने की बात कि जा रही थी और यहाँ मेरी धडकनें बढ़ रही थी. न जाने क्यों? पागल सुनने पर भी उसे कोई असर न पड़ा और उनसे मियाऊं…मियाऊं का सुर छोड़कर चलती गाड़ी की आवाजें निकालनी शुरू कर दी…घर्र…घर्र…घर्र…अंहहह…..

एक और सज्जन को वो अपनी व्यवहार से परेशान कर चुका तो उनसे भी न रहा गया वह भी उसके पास आकर बोले…अगर तुन्हें कोई परेशानी है तो उतर जाओ…क्यों लोगों को सुबह-सुबह परेशान कर रहे हो? एक तरह वो सज्जन उसे समझाने की कोशिश कर रहे थे, तो दूसरी ओर लोगों की उसके व्यव्हार और आवाजों के लिए हंसी बंद नहीं हो रही थी. कुछ के लिए वह परेशानी था तो कुछ के लिए हंसी का अच्छा खासा साधन. उस सज्जन की बात तो उसे समझ में नहीं आई पर इतना जरुर था कि उसने इस बार कोई प्रतिक्रया नहीं दी. मैं उसके बगल में ही बैठा था पर मुझे उससे किसी तरह कि कोई तकलीफ नहीं थी. मैं तो मगन था उसकी हर बात पर. पर न जाने दूसरे लोगों को वो कैसे परेशान कर रहा था. मुझे लग रहा था कि वो अपने ही मगन है पर उसे हर उस व्यक्ति बात समझ में आ रही थी जो उसके लिए बुरा या भला कह रहे थे. वह हर आदमी के भावों को भली-भाँती जान पा रहा था. जानबूझ कर भी नहीं कर सकता यह सब. मैं यही सोच रहा था. तो कर क्यों रहा है. यह सवाल भी मेरे जहन से निकलने को तैयार नहीं था.

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कश्मीरी गेट पर दरवाज़ा खुला और सबसे पहले भाग कर लोगों को धक्का देते हुए बाहर कि ओर निकला और कहाँ गुमहो गया किसी को कुछ पता ही नहीं चला, कॉलेज जा रहे लड़के-लड़कियों के लिए वह एक केरेक्टर था, जिसे उन्होंने किसी फिल्म में पहले ही देख रखा था, कुछ घर से लड़ कर आ रहे लोगों के लिए वह आफत था जो अब टल चुकी थी, और वयस्कों के लिए वह सवेरे सवेरे हंसी का एक साधन था पर मेरे लिए वह एक सवाल था, जिसका उत्तर पता नहीं उसके पास था या नहीं!!
 
मैं अपने ऑफिस कि राह पर कश्मीरी गेट से गुडगाँव जाने के लिए हुडा सिटी सेंटर की मेट्रो लेने नीचे उतरा. ट्रेन खड़ी थी, तो मैं भाग कर उसी डिब्बे में चढ़ गया जिसमें मैं रोजाना चढ़ा करता था. ट्रेन भले ही बदल जाती हो पर सीढ़ियों से उतर कर मैं हमेशा उसी दूसरे डब्बे में चढ़ता था. मैं ट्रेन में चढ़ा ही था कि पिछले डिब्बे जैसा ही शोर सुनाई दिया…अबे पागल है क्या. पता नहीं कहाँ-कहाँ से आ जाते हैं. साले मारूं अभी एक थप्पड़…अभी पुलिस को बुला रही हूँ….तेरा दिमाग ख़राब है क्या…पागल को नीचे उतारो??

ऐसे ही तमाम सवाल मुझे सुनाई दिए. मैंने एक सज्जन से सवाल किया. क्या हुआ भाई साहब? अरे क्या बताएं सुबह-सुबह कहाँ से आ जाते हैं, पता नहीं, एक पागल सबको परेशान कर रहा है! दूर से एक आवाज़ आई इसके पास टोकन कहाँ से आया, किसी का चुरा तो नहीं लिया! सब लोग अपना टोकन चेक करने लगे, शायद जानते नहीं थे कि यह बहुत पीछे से आ रहा था, और जब मेट्रो में आया है तो टोकन लेकर ही आया होगा दीवार फांद कर तो कोई आ नहीं सकता. ऊँची-ऊँची तारकशी कर रखी है मेट्रो वालों ने.

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स्टेशन बीतते गए……ट्रेन अपनी राह पर आगे बढ़ती रही, पहला, दूसरा, तीसरा लगभग 26 में से 10 स्टेशन पार हो चुके थे. मैं अपनी यह कहानी गढ़ने लगा था. लोग चिल्ला रहे थे, गाली गलौज कर रहे थे. पर वो था सबसे अंजान न जाने क्यों ऐसी हरकते कर रहा था. उसका व्यवहार किसी को भी रास नहीं आ रहा था. पर उसे कोई उतार भी नहीं सकता था ट्रेन से, क्योंकि वह सच में अजीब था, न जाने कितने दिन से नहाया भी नहीं था. किसी की भी हिम्मत नहीं हो रही थी, उसके पास जाने की. पर मुझे वह दिलकश लग रहा था. उसकी हरकतें मुझे लुभा रही थी अपनी ओर….मेरा स्टेशन आने वाला ही था, मैं अपना बैग काँधे पर उठाये, उसी की ओर निहार रहा था. मुझे नहीं मालूम था कि उसने भी मुझे नोटिस कर लिया है.

स्टेशन आया भीड़ इतनी थी कि मुझे उतरते हुए समय वह दिखाई नहीं दिया. मैं अकेला, अपने सवालों का बोझ अपने सर पर उठाये चल पड़ा, ऑटो लेने के लिए. सीढ़ियों से उतर ही रहा था कि न जाने पीछे कहाँ से आकर उसने मेरे कंधे पर हाथ रखकर मुझसे पूछा…वाट हेपंस मैन? वाट डू यू वांट फ्रॉम मी? मैं….. मैं…. मैं….. मैं… मेरा अचम्भा मुझसे कह रहा था यह क्या हुआ भाई, यह तो कोई और ही निकला. इससे पहले कि मैं उससे कुछ पूछता उसने कहा…जो भी तुमने देखा वह मैं जान बूझकर कर रहा था. फिकर मत करो…….मैं पागल नहीं हूँ. मैं भी तुम्हारी तरह ही एक आम इंसान हूँ. बिलकुल ठीक-ठाक भी हूँ. पर आप तो…मेरे इतना कहने से पहले ही उसने कहा लम्बी कहानी है मेरे दोस्त फिर कभी मिलोगे तो सुनाऊंगा. इतना कहकर वह कूदा और गाड़ियों के बीच से निकलता हुआ दूसरी ओर जाकर मेरी तरह हाथ हिलाकर मुझे और ज्यादा परेशान कर गया. मैं आज तक उसकी तलाश में हूँ पर उसके बाद वह मुझे कभी नहीं मिला. बस उसकी यादें ही रह गई हैं मेरे पास……लिखने और बस लिखने के लिए. To be continued…

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लेखक अश्वनी कुमार। संपर्क [email protected]

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