सूरज कुमार– एक नाम, एक कहानी– कहानी उन संघर्षों की, जो एक छोटे से गाँव से शुरू होकर किसी महानगर के फुटपाथों पर रगड़ खाकर धीरे-धीरे अपने परवान चढ़ती है। इस कहानी में दुःख भी है, खुशियाँ भी हैं, प्यार भी है और अलगाव भी है। नालंदा, बिहार के एक बेहद पिछड़े गाँव में पैदा होकर, वहीं की माटी में पले बढे सूरज के हौसले बुलंद थे और इरादे ठोस थे। देश की शीर्षस्थ संस्था जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय में ज़िंदगी की लोरियाँ सुनकर भारतीय जन-संचार संस्थान में अपने इरादों को सूरज ने पंख लगाया और उड़ चले अपने सपनों के संसार में।
चिर-कुंवारे सूरज की ज़िंदगी के कई राज होंगे– वाजिब सी बात है, लेकिन इनके संघर्षों की कहानी बेहद रोचक है, प्रेरणादायी भी किसी हद तक। किसी हद तक इसलिए क्योंकि आज की पीढ़ी को इतने समझौते करने आते नहीं– अपने स्वाभिमान की कस्तूरी को कुचलकर अपमान का तिलक सूरज ने लगाया और नतीजा आज सामने है।
अपने प्रेम और प्रेम की दुखदायी परिणति को भूलकर आज सूरज टैगोर और उनकी एक खास प्रेयसी की नीली-गुलाबी और ककरेजी रंगों की कहानी को सिल्वर स्क्रीन पर उतारने में मशगूल हैं सूरज, अर्जेंटीना के प्रख्यात फिल्म निर्माता पाब्लो सीजर के संग। सच ही कहा है, सब कुछ जुगाड़ से नहीं मिलता बबुआ–मैदान-इ-जंग में अपनी मिहनत और ज़िद्द के साथ नैसर्गिक प्रतिभा भी जरूरी है। सच में अपनी इस नैसर्गिक प्रतिभा को सूरज ने मांज-धोकर इतना चमकाया है कि विश्व मीडिया में हौले-हौले चर्चित हो रहे हैं सूरज– शराब के नशे की तरह।
लेखक अमरेंद्र किशोर पत्रकार और स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं.