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सियासत

दो-दो महाशक्तियों को धूल चटाने वाले तालिबान के वजदू को अब तो कुबूल करना ही पड़ेगा!

Yashwant Singh-

कुछ दिनों से रोमांच महसूस कर रहा हूँ। एटम बम धरे बैठे हाईटेक देशों के दौर में एक मुल्क में पाजामा पगड़ी वाले लोगों का कारवाँ फ़तह दर फ़तह हासिल करते हुए चलता चला जा रहा राजधानी की ओर! और, इनके लोग-लड़ाके अंततः हुक्मरानों के पैलेसों की एलीट कुर्सियों पर बैठ फ़ोटू सोटू खिंचाने के बाद हथियार एक तरफ़ रख फ़र्श पर बिछी क़ालीनों पर पसर / पालथी मार लज़ीज़ पकवान उदरस्थ करने लगते हैं।

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दो दो महाशक्तियों से मुक़ाबिल रहने के बाद अब इनके दिन आए हैं।

महाशक्तियां पस्त हैं। टुकुर टुकुर देखने के अलावा कुछ न कर पा रहीं।

वेब सीरिज़ और ott प्लेटफ़ॉर्म्स के दौर की दुनिया आँख फाड़े मुँह बाए विजुअल पे विजुअल देखे जा रही। जैसे कोई ‘नार्कोस’ सीरिज़ चल रही हो। जैसे कोई अर्तगुल ग़ाज़ी और बम्सी अपना लश्कर लिए निर्णायक जंग जीत रहा हो।
ग़ज़ब के साइड सीन हैं।

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उड़ते जहाज़ से लुढ़कते लोग!

भागते सत्ताधारी।

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हंसते सेल्फ़ियाते भकोसते जंगजू।

पहाड़ कन्दराओं के देसी लोग आज सूट टाई वालों के महलों में ठिकाना बना लिए हैं।

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कुछ सेकंड के लिए भूल जाएँ कि तालिबान कौन हैं, क्या विचारधारा है, क्या सोच है। इसे किनारे कर दें।

बस इस बदलाव को पढ़ें बूझें महसूसें।

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जैसे अंग्रेज भागे हिंदुस्तान से, वैसे ही अमेरिकी भागे हैं अफगानिस्तान से।

क्रांति हुई है।

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दशकों के धैर्य हिम्मत ज़मीनी संघर्ष की जीत हुई है।

धरी रह गई सब टेकनालजी। धरे रह गए सब किसिम किसिम के बम।

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जीता वही जिसमें जिजीविषा थी। जिसमें असीम धैर्य था जिसमें एक्सट्रीम कमिटमेंट था।

सपने सरीखा लगता है सब कुछ।

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ये सच है कि प्रकृति के नियम (इसे भदेस शब्दों में जंगल के नियम भी कह सकते हैं) हर नियम हर संविधान हर विकास हर तकनालजी हर ताक़त हर तर्क प्रणाली पर भारी है।

इसके संदेश बहुत गहरे होते हैं।

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बड़े ताकतवर महान अत्याधुनिक वे नहीं होते जो दिखते हैं। वे कोई और होते हैं जो ज़मीनी और जीवट होते हैं।

इसलिए किसी से डरियो नहीं। किसी पर जुल्म करियो नहीं। पर क्या करियो, मनुष्य इससे बाज आएगा नहीं, डराना धमकाना जुल्म करना उसके डीएनए में है। ये आदिम प्रवृत्तियों में से एक है। अब तक अमेरिकी सब डरा धमका रहे थे तालिबान को, अब तालिबान डराए धमकाएगा अफगानिस्तान को।

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जैसे अपन लोग कहते हैं कि गोरे अंग्रेज चले गए तो काले अंग्रेज आ गए उनकी जगह राज करने। पूरा शासन तंत्र और तरीक़ा वही रहा।

अब बात तालिबान की।

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हाँ अफगानिस्तान के लोग इस तालिबान को ही डिजर्व करते हैं। पर उन्हें वह पाने तो दो जो वे चाहते हैं। कोई पराया कोई दूसरा चौधरी काहें बने भाई।

वे जैसे भी हैं, अपने मुल्क के हैं। अब इनका भी एक विपक्ष तैयार होगा। नई पीढ़ी नए मुद्दे नए दर्शन के लिए अड़ेगी लड़ेगी।

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कट्टरता बढ़ेगी तो संभव है फिर अगला चरण उदारता आने की आ जाए।

हम भी तो कुछ कुछ तालिबानी टाइप दौर में ही जी रहे हैं। हम भी तो धार्मिक कट्टरता को सब कुछ के ऊपर रख कर उसे चुन रहे हैं। हां उनकी कट्टरता ग्लोबल है। कई सारे देशों में है। हमारी बस केवल हमारे देश तक है।
और क्या वो पश्चिमी गोरे कट्टर नहीं हैं?

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भयानक हैं।

धर्म या पूँजी या साम्राज्य या तीनों, इनके ग्लोबल चौधरी हैं अमेरिका चीन टाइप देश। बाक़ी सो काल्ड डेमोक्रेटिक कंट्री इनके चेले चपाटे हैं। ये कहते कुछ हैं, सोचते कुछ हैं, करते कुछ हैं। परसेप्शन बनाने बिगाड़ने का सारा यंत्र प्रपंच इनके ही क़ब्ज़े में हैं।

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कम से कम तालिबान इस मामले में ईमानदार हैं कि उनका कोई हिडन अजेंडा नहीं है। वे जो हैं सो हैं। आप बुरा मानिए। आप अच्छा मानिए। वे जो हैं सो हैं।

विविधताओं भरी इस धरती पर भाँति भाँति के शासक हैं। इस विविधता में एक अलग क़िस्म के रंग हैं तालिबान। हम उनसे सहमत हों या असहमत। पर वो हैं। उनके वजूद को क़ुबूल करना पड़ेगा। क्योंकि सबने मिलकर और अलग अलग भी तालिबान के वजूद के बार बार ख़ात्मे का एलान करके भी इन्हें ख़त्म नहीं कर पाए।

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दरअसल सारी समस्या तब पैदा हो जाती है जब हम चीज़ों को बहुत सीमित कालखंड में देखकर फ़ैसले सुनाने लगते हैं।

असल में हम मनुष्य अब भी धरती पर अपने उदय के प्राथमिक स्टेज पर हैं। हम ख़ामख़ा इतिहास को अलग अलग कालखंडों में बाँट कर पढ़ते पढ़ाते हैं। न कोई मध्यकाल रहा है और न कोई आधुनिक काल है। मनुष्य अपने सफ़र के बिल्कुल शुरुआती स्टेज पर है अभी। जैसे एक शिशु बोलने लगा, खुद से चलने लगा और अचानक एक दिन खुद को घर का सबसे समझदार सयाना और ज़िम्मेदार घोषित कर दे! है तो वो बालक ही। उसे बहुत सारी नादानियों, बर्बरताओं, मासूमियत को जीना भुगतना महसूसना झेलना देखना बाक़ी है।

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धार्मिक, जातीय (नस्लीय) और आर्थिक। ये तीन ऐसी ज़बरदस्त विचारधारायें हैं जो दुनिया भर के मनुष्यों को संचालित कर रही हैं। लोकतंत्र, न्याय, समानता आदि की बातें इस त्रिकोण के किसी भी कोण से टकराकर दम तोड़ देती हैं। इसलिए बुद्धि को थोड़ा आराम दें। सहज हो जाएँ। तालिबान एक सच है। तालिबान एक मुल्क का सच है। इसे क़ुबूल कर लें। और, तालिबान से असहमत होते हुए भी उसे चकित कर देनी वाली जीत मिलने की मुबारकबाद दीजिए। उससे अच्छी अच्छी उम्मीदें भी पालिए।

जैसे उनने महाशक्तियों का ग़ुरूर तोड़ा, वैसे ही उनके लोग उनके पथभ्रष्ट होने पर उनसे सिंघासन छीन लेंगे, ये मानकर चलिए।

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प्रकृति के नियम को समझने लगेंगे तो बहुत सारी बेवजह की असहजताओं अचरजों से दो चार होकर हें हो ओ हा हें हो ओ हा करते हुए कनफ़्यूज सेना के सदस्य बनने से बच जाएँगे।

मनुष्य की डोर कहीं और है। भगवान की मर्ज़ी है कि अल्लाह के बंदे ऐसी जीत हासिल करेंगे तो आप क्या कर लेंगे!

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सबक़- कोई कितना भी ताकतवर हो, निडर हो डटे रहे तो जीत ज़रूर होगी। हां, वक्त और पीढ़ियाँ कितनी होम होंगी, इसका हिसाब नहीं लगाया जा सकता।

मेरी तरफ़ से अफगानिस्तान को आज़ादी की ढेरों शुभकामनाएँ!

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भड़ास एडिटर यशवंत की एफबी वॉल से.

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