पाकिस्तान के पेशावर में तालिबान ने बच्चों को जिस बेरहमी से कत्ल किया है, उसको दुनिया का कोई धर्म, कोई कानून सही नहीं ठहरा सकता। कितना लचर तर्क दिया है तहरीक-ए-पाकिस्तान तालिबान ने कि हमने अपने बच्चों की हत्याओं का दर्द महसूस कराने के लिए बच्चों का कत्ल किया है। दिमाग को सुन्न कर देने वाली इस घटना का कुछ भी पसमंजर हो, लेकिन हकीकत यह है कि इंसानियत का कत्ल हुआ है। इस कत्ल के पीछे हमें जरूर यह लगता है कि इसे उन धर्मांध तालिबानियों ने दिया है, जो अपने आपको इसलाम का सच्चा पैरोकार मानने का दंभ भरते हैं, लेकिन सवाल यह है कि तालिबान को इतना क्रूर बनाया किसने, जिनके हाथ मासूमों का कत्ल करते हुए नहीं कांपते? अपने स्वार्थ के लिए भस्मासुर पालना आसान है, लेकिन जब वह ताकतवर हो जाता है, तो उसे खत्म करना उतना ही मुश्किल होता है। कुछ गलतियां को सुधारा नहीं जा सकता। अमेरिका ने अपने स्वार्थ की खातिर तालिबान को खड़ा किया था।
1978 में जब सोवियत संघ ने अफगानिस्तान पर कब्जा किया तो उससे लड़ने के लिए अमेरिका ने अफगानिस्तान के मदरसों के तलबा (विद्यार्थियों) को जेहाद का ऐसा पाठ पढ़ाना शुरू किया, जिसका वास्तविक जेहाद से कुछ लेना-देना नहीं था। तालिबान का राक्षस खड़ा करने के लिए पाकिस्तान में ट्रेनिंग कैंप खोले गए। उन कैंपों में सोवियत संघ से लड़ने को ही सबसे बड़ा काम बताकर उनमें इतनी धर्मांधता कूट-कूट कर भर दी गई कि उन्होंने अपना ‘इसलाम’ गढ़ लिया, जिसमें इसलामिक मूल्यों की कोई जगह नहीं थी। अफगानिस्तान पर सोवियत हमले को इसलाम पर हमला बताया गया। जिसका नतीजा यह हुआ कि कई मुसलिम देशों के युवा सोवियत सेना के खिलाफ जेहाद करने पहुंचने लगे। अमेरिका की एजेंसी सीआईए ने तालिबान को हथियारों और डॉलर से नवाजा। नतीजा यह हुआ कि पूरा अफगानिस्तान और पाकिस्तान अवैध हथियारों से पट गया। सऊदी अरब, इराक आदि ने भी कई तरीकों से तथाकथित मुजाहिदीनों की मदद की।
अमेरिका अपने मकसद में कामयाब हुआ और 1991 में सोवियत संघ टूट गया। इस कामयाबी के लिए अमेरिका ने तालिबान प्रमुख मुल्ला उमर और शेख ओसामा बिन लादेन को सम्मानित किया। अब अमेरिका को तालिबान की कोई जरूरत नहीं रह गई थी। वह वहां चुनाव कराकर नई सरकार बनाना चाहता था, लेकिन तालिबान अफगानिस्तान पर काबिज हो गया और वहां अपनी सत्ता कायम करके शरीयत कानून लागू कर दिए। इस सरकार को सऊदी अरब ने सर्मथन दिया। पाकिस्तान ने भी तालिबान सरकार को मान्यता दे दी। पश्चिमी देशों ने तालिबान से किनारा कर लिया। अफगानिस्तान में तालिबान ने शरीयत कानूनों की आड़ में जंगल राज चलाया। उनके शासन में न महिलाएं महफूज रहीं न बच्चे। स्कूल तो जैसे तालिबान के सबसे बड़े दुश्मन बन गए।
अमेरिका और अन्य पश्चिमी देशों ने जेहाद का जो बीज अफगानिस्तान में बोया था, उसके पौधे इतने फले-फूले कि उन्होंने पूरी दुनिया में कोहराम मचा दिया। यहां तक कि खुद अमेरिका भी इससे अछूता नहीं रहा। अमेरिका को गलतफहमी थी कि आतंकवाद का डंक उस तक नहीं पहुंच पाएगा, लेकिन 9/11 की घटना ने उसे एहसास कराया कि उसके खुद के पैदा किए भस्मासुर की आग लपटें उसे भी झुलसा गईं। यहीं से शुरू हुआ अमेरिका और पश्चिमी देशों का ‘आतंकवाद के खिलाफ युद्ध’। इसकी चपेट में आए अफगानिस्तान और इराक जैसे देश। इस युद्ध से आतंकवाद खत्म नहीं हुआ, बल्कि उसका दायरा बढ़ता गया। शायद ही कोई पश्चिमी देश बचा हो, जिसमें आतंकवादियों ने कहर न बरसाया हो। समय-समय पर भारत ने भी इसकी कीमत चुकाई। 26/11 तो भारत पर ऐसा हमला था, जिसे कभी भुलाया नहीं जा सकता।
आतंकवाद के खिलाफ युद्ध में पाकिस्तान की नीतियां दोगली रही हैं। वहां की राजनीतिक पार्टियों में तालिबान के लिए हमेशा एक नरम कोना रहा है। हो सकता है कि इसकी सियासी वजह हो, लेकिन क्या महज सियासत के लिए ऐसे लोगों को गले लगाया जा सकता है, जिनका ईमान ही हिंसा हो? ‘अच्छे तालिबान’ और ‘बुरे तालिबान’ बना दिए गए। नवाज शरीफ का तख्ता पलटने के लिए बेचैन इमरान खान के तालिबान से रिश्ते छुपे नहीं हैं। पेशावर में स्कूली बच्चों की हलाकत आतंकवाद का वह घिनौना चेहरा है, जिसे दुनिया ने पहली बार देखा है। क्या अब उम्मीद की जा सकती है कि पाकिस्तान अपनी आंखें खोलेगा और आतंकवाद से वास्तव में लड़ेगा? पाकिस्तान ही क्यों? क्या पूरी दुनिया ईमानदारी से आतंकवाद के खिलाफ खड़ी हो सकेगी? इन सवालों से एक सवाल पैदा होता है कि क्या दुनिया धर्मों का दुराग्रह छोड़कर आतंकवाद को महज आतंकवाद मानकर उसका मुकाबला करने के लिए तैयार हो सकेगी? अभी तक आतंकवाद में कोई ‘रंग’ देखा जाता है। जबकि हकीकत में आतंकवाद का कोई रंग नहीं होता। वह तो सिर्फ अपना वजूद दिखाने के लिए कायरतापूर्ण हरकतें करता है। ऐसी हरकतें, जिससे मानवता कांपे और लोग डरकर चुप बैठ जाएं।
पेशावर में मरने वाले एक स्कूली बच्चे के पिता ने कहा, तालिबान की औकात क्या है? क्या वह सरकार से बड़ा है? खत्म क्यों नहीं कर देते उसे? उसके सवालों से इत्तेफाक नहीं करने का कोई कारण नहीं है। लेकिन जब कोई चीज दिखाई न पड़ने की जगह जेहनों में घुस जाए उससे लड़ना आसान नहीं होता। अलकायदा हो या तालिबान या हो आइसिस, ये अब एक विचारधारा बन चुके हैं। पता नहीं कौन, कब और कहां कोई मेहदी बैठा हुआ वह सब कर रहा हो, जिसकी कल्पना भी नहीं कही जा सकती। उस लड़के के पड़ोसी उसके बारे में सिर्फ इतना जानते हों कि वह एक नेक लड़का है। कोई अरीब न जाने कब चुपके से आइसिस के लिए लड़ने के लिए इराक पहुंच जाए। यह सिर्फ इसलिए हुआ है, क्योंकि दुनिया के पश्चिमी देशों ने दुनियाभर में फैले आतंकवाद को एक रंग दे दिया है। अपनी सभी गलत हरकतों को छिपाने के लिए एक रंग को जिम्मेदार ठहरा दिया है। झूठी-सच्ची खबरों के जरिए ऐसा माहौल बना दिया है कि दुनिया में फैली सभी समस्याओं की जड़ एक रंग है, जो हरा है। आतंकवाद को रंग से जुदा करके ही उसे खत्म किया जा सकता है। क्या इसके लिए दुनिया तैयार है?
लेखक सलीम अख्तर सिद्दीकी दैनिक जागरण, मेरठ में बतौर सब एडिटर पदस्थ हैं. उनसे संपर्क [email protected] या 09045582472 के जरिए किया जा सकता है.
santosh singh
December 19, 2014 at 1:31 pm
JO JIS TRAH KA PHASAL BOAGA WAH USI TRAH KA PHASAL KATEGA……….CHAHE AMERIKA HO YA PAKISTAN KYU N HO
sanjeev singh thakur
December 20, 2014 at 4:04 pm
Well said saleem ji
अंकुश लट्ठ
April 25, 2015 at 9:52 am
सलीम जी! तालिबान के समर्थकों ने इस नृशंस हत्याकांड को अंजाम दिया लेकीन आप आज भी तालिबान की बचाव की मुद्रा में हैं. आमरीका ने पाकिस्तान और अफगानिस्तान के मुसलमानों को इस्तेमाल किया लेकिन उनकी अक्ल कहां घास चरने गई थी जो वे किसी और की जंग के सिपाही बन गए थे. आप भी इस्लामिक कट्टरवादियों को मासूम की तरह दर्शाना बमद कीजिए.