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सुख-दुख

क्या कोई एक ऐसी स्थिति है जहां मरने की चिंता न हो और जीने का खौफ नहीं!

Abhishek Srivastava-

The Old Guard और After Masks के बीच बोधिसत्त्व…

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जन्म और मृत्यु दो सत्य हैं। दोनों में आकर्षण नहीं, समस्या है। पैदा हुए तो मुश्किल, कि कैसे जियें। मरने का डर अलग से, कि मरने के बाद क्या होगा। इनके बीच की क्या कोई एक ऐसी स्थिति है जो काम्य हो सकती है? जहां मरने की चिंता न हो और जीने का खौफ नहीं? पिछले साल आयी फिल्म The Old Guard और इस साल आयी After Masks को मिला कर देखते हुए समझ आता है कि जीते जी अगर अपने किये-अनकिये के निशानों से, फल-कुफल से मुक्ति मिल जाय, तो जीने में आनंद आ सकता है। बुद्ध के यहाँ यही अवस्था बोधिसत्त्व की अवस्था कहलाती है।

After Masks महामारी के बीच घर में कैद लोगों की कहानी है, एक डॉक्यूड्रामा समझिए। रोज रिश्तेदारों, परिचितों के मरने की खबर आ रही है। वही हाल, जो महीने भर पहले यहाँ था। बुरी खबरों से उपजे अवसाद को झुठलाने के चक्कर में आदमी अनाप-शनाप काम किये जा रहा है, लेकिन मौत का खौफ कलेजे से प्रेत की तरह चिपटा पड़ा है। इस चक्कर में कोई काम मुकम्मल नहीं हो पा रहा। The Old Guard में चार जने हैं जो अमर्त्य हैं, सदियों से जीते आ रहे हैं लेकिन दुनिया के सामने इस बात को जाहिर नहीं कर सकते, खुल कर जी नहीं सकते। बात खुलती है तो एक फार्मा कंपनी का सीईओ उन्हें कैद कर लेता है ताकि अमर होने की दवाई बना सके। इन चारों के जीने का आनंद इसमें है कि ये कुछ भी कर लें, मरेंगे नहीं लेकिन यही उनकी सीमा भी है जिसके चलते ये सामान्य मनुष्यों वाले काम नहीं कर पाते। अपने किये-अनकिये के फुट्प्रिन्ट इन्हें मिटाने पड़ जाते हैं। एक बिन्दु पर अमरता इनका अभिशाप बन जाती है। इस खौफ में ये जी रहे हैं कि अभी जाने कितना जीना है!

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दोनों स्थितियाँ काम्य नहीं हैं। दोनों में सुख नहीं है। दोनों को मिला दीजिए- अमरता की शै को इच्छामृत्यु तक सीमित कर दीजिए, फिर देखिए आनंद! न महामारी का डर, न जीने का संकोच, न मरने का खौफ़! मसलन, आप किसी की हत्या कर दें और हत्या आपके कर्मों में कहीं दर्ज न हो, आप बाइ-डिफ़ॉल्ट बरी होते जाएँ। बस आपको इस बात से कन्विन्स होना है कि आपने किसी वैध और कल्याणकारी सरोकार के चलते हत्या की है। इतना काफी है। आपको लगता है कि एक की हत्या कर के आप हजार को बचा रहे हैं, तो यही सही। फिर हत्या का गिल्ट आपके सिर नहीं, उसके सिर होगा जिसने इतने बुरे कर्म किए थे कि आपके हाथों मारा गया। यह उसके कर्म का फल था। आप तो बोधिसत्त्व ठहरे, इसलिए यह हत्या आपके कर्म में दर्ज होनी नहीं है।

बोधिसत्त्व होने में यही मज़ा है- कर्म-कुकर्म का भेद मिट जाता है। फल-कुफल की चिंता छँट जाती है। ओनस दूसरे के सिर रहता है। मसलन, यहूदियों का, मुसलमानों का, हिंदुओं का, ईसाइयों का या किसी भी धार्मिक पहचान का संहार करने का तर्क उनकी पहचान से निकलेगा और उनका संहार उनके कर्मों का फल होगा। यही बात जातीय पहचानों पर लागू होगी। आप स्टालिन हैं, तो पूँजीपतियों को मार दीजिए क्योंकि वे लुटेरे थे। आप हिटलर हैं तो कम्युनिस्टों को मार दीजिए क्योंकि वे देशद्रोही थे। सब अपने किये से मरेंगे। आपने कुछ नहीं किया। आप कर्म-कुकर्म से पार हैं। आप अपने कारण से कन्विन्स हैं। आप बोधिसत्त्व हैं। बस, जिजेक की थ्योरी में इच्छामृत्यु जोड़ दीजिए, फिर सोचिए कि बुद्ध के यहाँ कितना आनंद है!

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