Connect with us

Hi, what are you looking for?

सुख-दुख

यूएनआई की हालत बेहद खराब, यहां के मीडियाकर्मी अपने हुक्मरानों के आगे नहीं बोलते

यूएनआई, देश की एजेंसियों में बड़ा नाम लेकिन अंदरूनी हालात काफी बदतर। सैलरी में 19-20 महीने का बैक लॉग। इसके बावजूद न कोई शोर, न शराबा और न ही कोई विरोध। लोग यहां काम नहीं सेवा करते हैं। हां ये भी है कि अपने जुगाड सेट कर चुके लोगों पर कोई खास फर्क नहीं पड़ता लेकिन उनके साथ दूसरे लोग भी पिसते हैं जो सिर्फ एक ही सैलरी पर आश्रित हैं। कमाल तो ये है कि सिर्फ अंदर अंदर घुटते रहते हैं, हुक्मरानों के आगे कोई नहीं बोलता।

<p>यूएनआई, देश की एजेंसियों में बड़ा नाम लेकिन अंदरूनी हालात काफी बदतर। सैलरी में 19-20 महीने का बैक लॉग। इसके बावजूद न कोई शोर, न शराबा और न ही कोई विरोध। लोग यहां काम नहीं सेवा करते हैं। हां ये भी है कि अपने जुगाड सेट कर चुके लोगों पर कोई खास फर्क नहीं पड़ता लेकिन उनके साथ दूसरे लोग भी पिसते हैं जो सिर्फ एक ही सैलरी पर आश्रित हैं। कमाल तो ये है कि सिर्फ अंदर अंदर घुटते रहते हैं, हुक्मरानों के आगे कोई नहीं बोलता।</p>

यूएनआई, देश की एजेंसियों में बड़ा नाम लेकिन अंदरूनी हालात काफी बदतर। सैलरी में 19-20 महीने का बैक लॉग। इसके बावजूद न कोई शोर, न शराबा और न ही कोई विरोध। लोग यहां काम नहीं सेवा करते हैं। हां ये भी है कि अपने जुगाड सेट कर चुके लोगों पर कोई खास फर्क नहीं पड़ता लेकिन उनके साथ दूसरे लोग भी पिसते हैं जो सिर्फ एक ही सैलरी पर आश्रित हैं। कमाल तो ये है कि सिर्फ अंदर अंदर घुटते रहते हैं, हुक्मरानों के आगे कोई नहीं बोलता।

किसी दिन कोई हिम्मत करने की कोशिश भी करता है तो साथी ही उसे चुप कराने की सलाह देते हैं। कोई ये नहीं सोचता कि जो यहां पुराने हैं, वो तो इस तरह अपना हिसाब बैठा चुके हैं कि हर महीने ‘दूसरी सैलरी’ कहीं और से लेते हैं। एक सज्जन हिंदी वार्ता के ब्यूरो में हैं और इस कदर जुगाड़ सेट कर चुके हैं कि हाल में एक नई कार भी ली और फिर प्रेस क्लब ऑफ इंडिया के चुनाव भी लड़ने पहुंच गये। हार गये लेकिन सोचने को मजबूर कर दिया कि जहां हर महीने की सैलरी 50 दिनों के बाद ही आती हो, वहीं यूनियन का सदस्य होने के बावजूद आवाज उठाने के बजाय आप अपनी गोटी सेट कर रहे हैं। ऐसे एक नहीं, कई हैं लेकिन जब कोई बोलता ही नहीं, विरोध नहीं करता तो वहां तो शोषण होना तय ही है।

Advertisement. Scroll to continue reading.

जीबीएम में भी सिर्फ बहस और सैलरी को लेकर कोई चर्चा नहीं। सिर्फ इतना ही कहना है कि जब तक एकजुट नहीं होगे तो कोई न तो सुनेगा आपकी और न ही कभी टाइम पर सैलरी ही मिलेगी। तीन लोगों पर तो कानूनी मुकदमे चल रहे हैं जिसमें से हिंदी वार्ता और अंग्रेजी यूएनआई के अधिकारी भी हैं। इंग्लिश यूएनआई में तो ज्यादातर अब कॉन्ट्रैक्ट पर हैं और वार्ता में हालात ये हैं कि मन मर्जी से काम हो रहा है। लोग छुट्टी लेते हैं तो फोन पर बढ़ा लेते हैं। काम पर फिर फर्क पड़ता है तो भी क्या। डेस्क से जो लोग पहले आपसी रंजिश में ट्रांस्फर करके इधर उधर भेज दिये गये थे, उन्हें वापिस बुलाया जा रहा है। ऐसा करने से बेहतर है कि एक बार अपनी आवाज बुलंद करो। आलम यह है कि कॉन्ट्रैक्ट वालों की सैलरी टाइम पर आती है और परमानेंट वालों को कोई पूछता भी नहीं।

इस एजेंसी में मजीठिया लगाया भी गया दिखावटी और कानूनी डंडे से बचने के लिए लेकिन जब सैलरी ही 19-20 महीनों के बैकलॉग में फंसी हो तो फिर उसका क्या फायदा। नए लोगों की भी 5-6 महीने बैक कर दी गई है। पीएफ का कुछ अता पता नहीं और पुराने लोगों पर इसका कोई फर्क नहीं। सबसे ज्यादा नए लोग पिस रहे हैं।

Advertisement. Scroll to continue reading.
Click to comment

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *

Advertisement

भड़ास को मेल करें : [email protected]

भड़ास के वाट्सअप ग्रुप से जुड़ें- Bhadasi_Group

Advertisement

Latest 100 भड़ास

व्हाट्सअप पर भड़ास चैनल से जुड़ें : Bhadas_Channel

वाट्सअप के भड़ासी ग्रुप के सदस्य बनें- Bhadasi_Group

भड़ास की ताकत बनें, ऐसे करें भला- Donate

Advertisement