उर्मिलेश
इन दिनों मीडिया से जुड़ा एक जरूरी सवाल गलत ढंग से उठाया जा रहा है. जब से नये सूचना प्रसारण मंत्री प्रकाश जावडेकर ने कहा कि ‘सैद्धांतिक तौर पर वह अपने मंत्रालय को खत्म करने के पक्षधर हैं’, तब से कुछ कॉरपोरेट-गुरुओं और मीडिया-कारोबार से जुड़े लोगों ने ‘संपूर्ण मीडिया-स्वतंत्रता’ का नारा बुलंद करते हुए कहना शुरू किया है कि आज के दौर में ऐसे किसी मंत्रालय या बाहरी रेगुलेटर की कोई जरूरत नहीं है. सब कुछ फ्री कर देना चाहिए! मुङो लगता है, मीडिया से जुड़े एक बड़े सवाल को गलत ढंग से संबोधित किया जा रहा है.
अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के किसी भी रूप पर अगर सूचना प्रसारण मंत्रालय से अंकुश लगता है तो उसे फौरन खत्म करने की जरूरत है. आकाशवाणी-दूरदर्शन की रचनात्मक-स्वतंत्रता और प्रशासनिक स्वायत्तता अगर इस मंत्रालय द्वारा रौंदी गयी है या रौंदी जा रही है तो इस प्रवृत्ति का खात्मा बहुत जरूरी है. ‘प्रसार भारती’ आज भी स्वायत्त नहीं हो सकी तो उसे करने की जरूरत है. अगर इस मंत्रालय या इसकी किसी भी एजेंसी के जरिये अखबारों-चैनलों के बीच विज्ञापन बांटने में भेदभाव हो रहा है, तो उसका अंत भी जरूरी है. लेकिन मीडिया-कारोबार की निगरानी और नियमन के लिए कोई तंत्र ही न रहे, क्या यह धारणा हमारे लोक और लोकतंत्र के हक में है?
बहस में इस बात को नजरअंदाज किया जा रहा है कि मीडिया-कारोबार और पत्रकारिता दोनों एक-दूसरे से संबद्ध तो हैं, पर बिल्कुल एक नहीं हैं. पत्रकारिता पर किसी मंत्रालय की निगरानी या सरकारी-नियमन बिल्कुल नहीं होना चाहिए. लोक-प्रसारकों को भी इनसे मुक्ति चाहिए. पर मीडिया-कारोबार के लिए क्या कहेंगे? अगर सभी तरह के कारोबार के लिए नियम-कानून और उसे देखने-लागू करने-कराने के तंत्र हैं, तो मीडिया-कारोबार क्यों अपवाद हो? जरूरत निगरानी और नियमन के तंत्र को ज्यादा जवाबदेह, सक्षम, पारदर्शी और समावेशी बनाने की है. इस दिशा में अगर सूचना प्रसारण मंत्रालय का रूप, संरचना, नाम या काम बदलता है, तो वह निस्संदेह स्वागतयोग्य होगा.
मीडिया-उद्योग में आज जिस तरह की अफरातफरी, अराजकता और असंतुलन है, उसे सही परिप्रेक्ष्य में समझने और तदनुरूप नीति-निर्धारण की जरूरत है. अनेक विकसित देशों में क्रॉस मीडिया स्वामित्व पर ठोस नियम हैं, पर भारत में आज तक इस पर कभी संजीदा ढंग से पहल नहीं हुई. सूचना प्रौद्योगिकी मंत्रालय से संबद्ध संसद की स्थायी समिति ने पिछले वर्ष अपनी रिपोर्ट में पहली बार मीडिया-कारोबार से जुड़े बड़े मुद्दों पर एक संतुलित नजरिया पेश किया. लेकिन उस पर पिछली और इस नयी सरकार ने भी अब तक कुछ नहीं किया.
क्या यह सच नहीं है कि आज देश के कुछ बड़े मीडिया-घरानों की तेजी से बढ़ती इजारेदारी के चलते छोटे-मझोले ही नहीं, क्षेत्रीय-प्रांतीय स्तर के अनेक बड़े अखबारी समूह और चैनल भी लगातार आर्थिक मुश्किलों में फंसते जा रहे हैं? दुनिया के कई लोकतांत्रिक मुल्कों में मीडिया घरानों के संस्करणों के प्रकाशन या प्रसारण सेवा शुरू करने के कुछ ठोस नियम बने हैं, ताकि अन्य समूहों को नुकसान पहुंचाने वाली किसी एक समूह की इजारेदारी कायम न हो. इससे मीडिया में विविधता भी बनी रहती है.
अगर भारत जैसे देश में मीडिया कारोबार को पूरी तरह मुक्त कर दिया जाता है, तो क्रॉस मीडिया स्वामित्व पर कानूनी पहल, मीडिया में विविधता या न्यायपूर्ण व्यावसायिक प्रतिस्पर्धा जैसे सवालों पर कौन नीति-निर्धारण करेगा? मंत्रालय ऐसे तमाम मुद्दों पर विचार-विमर्श करने और फैसला लेने के लिए स्वतंत्र और समर्थ विशेषज्ञों की उच्चस्तरीय समिति बनाकर उसे अपना काम सौंप सकता है. इससे कामकाज में ज्यादा प्रोफेशनल-पारदर्शिता आयेगी. तब मंत्रालय सिर्फ निगरानी और सुविधा मुहैया कराने तक अपने को सीमित रख सकेगा.
बीते दो दशक के दौरान भारतीय मीडिया का सिर्फ आकार और निवेश ही नहीं बढ़ा है, इसका रूप भी बदला है. आज लोकप्रसारकों के अलावा सैकड़ों निजी चैनल भारतीय मीडिया का हिस्सा बन गये हैं. अखबारों की तरह इनके लिए कोई खास नियम-विधान नहीं हैं. मैंने पहले ही कहा कि आज के दौर में भारतीय मीडिया के पत्रकारिता-पक्ष को सरकारी नियमन की जरूरत नहीं है, इसके लिए एक स्वतंत्र और समर्थ पब्लिक-निगरानी तंत्र की जरूरत से इंकार करना लोक और लोकतंत्र, दोनों के साथ नाइंसाफी होगी. यह तंत्र कैसे विकसित हो, इस पर मीडिया के अंदर-बाहर बहस होनी चाहिए. क्यों न इसके लिए तीसरे प्रेस आयोग का गठन हो, बशर्ते कि उसे पक्षपाती न बनने दिया जाये.
हमारे समाज में न्यूज चैनल कितना ताकतवर माध्यम बनकर उभरे हैं, इसका एहसास सभी को है. 2014 में देश में हुए सर्वाधिक टेलीवाइज्ड संसदीय चुनाव में विजुअल मीडिया और असंतुलित कवरेज का अध्ययन होना बाकी है. पिछले पखवाड़े पर ही नजर डालें, तो विजुअल मीडिया का कवरेज चिंताजनक है. अगर मीडिया इराक घटनाक्रम को लेकर सतर्क और प्रो-एक्टिव होता, तो वहां काम कर रहे 10 हजार से ज्यादा भारतीयों, उनके परिजनों और सरकार को मौजूदा संकट के भड़कने की ज्यादा ठोस जानकारी पहले ही मिल गयी होती. लेकिन जब इराक में संकट तेजी से गहरा रहा था, तब ज्यादातर ‘राष्ट्रीय न्यूज चैनल’ प्रीति जिंटा और नेस वाडिया के बीच झगड़े की कहानियों को मिर्च-मसाले के साथ पेश कर रहे थे.
तब सिर्फ इराक घटनाक्रम की ही उपेक्षा नहीं हुई, प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की भूटान की पहली विदेश यात्र को भी अपेक्षा के अनुरूप कवरेज नहीं मिला. इराक संकट की खबर तब आनी शुरू हुई, जब 40 प्रवासी भारतीय कर्मियों के अगवा होने की खबरें आयीं. पिछले साल अगस्त में इराक के प्रधानमंत्री भारत आये थे, लेकिन उस दौरे को हमारे मीडिया में कोई खास तवज्जो नहीं मिली. अपने पड़ोसियों और मध्य-पूर्व एशिया के भीषण घटनाक्रमों, जिनका हमारी अर्थव्यवस्था और समाज पर असर पड़ना लाजिमी है, के प्रति हमारे न्यूज चैनलों का रवैया अचरज भरा है.
दरअसल, हमारे न्यूज चैनल या तो तमाशाई हो रहे हैं या वे कुछ खास लोगों या समूहों के पक्ष या विपक्ष में राय बनाते नजर आ रहे हैं. आम तौर पर वे आम जन-हित के खिलाफ खास लोगों के हितों के पक्ष में खड़े दिखते हैं. शिक्षा-स्वास्थ्य की तरह वे रेलवे के निजीकरण का भी पक्ष ले रहे हैं. ऐसे में न्यूज चैनल समाज का आईना और लोकतंत्र के रक्षक कैसे बनें, इसे सुनिश्चित करना आज बेहद जरूरी है.
लेखक उर्मिलेश वरिष्ठ पत्रकार हैं.
raza husain
June 25, 2014 at 8:43 am
bhot bari baat uthai hai. mai aapki baat se bilkul sahmat hoo. indian media dunia ka sabse kamzoor network hai. meri nazar mai dd news in sab news channal se behtar hai. iraq ki kavrege kafi dikhai hai.
r bharat
June 25, 2014 at 8:50 am
patrakarita gorakhadhande se bhi bada dhandha ho gaya yeh brahmano ke dwara brahman partiyo ke pakshh me abhiyan chalane ke liye ban gaye