साथी Sanjay Sinha ने अमेरिका के ट्विन टावर पर हमले की खबर से संबंधित एक टिप्पणी आज सवेरे फेसबुक पर लिखी और पांच घंटे में 400 शेयर 913 लाइक और 274 कमेंट आए। इनमें ज्यादातर सकारात्मक या पक्ष में हैं। टिप्पणी में उसने मुझे भी टैग किया है क्योंकि उन दिनों हिन्दी में ई-मेल तभी संभव था जब दोनों जगह हिन्दी के एक ही फौन्ट हो। संजय अमेरिका से अपनी खबरें मुझे भेजता था और मैं प्रिंटआउट दफ्तर में देता था जिसे दुबारा कंपोज कर जनसत्ता में छापा जाता था। टिप्पणी मेरी वाल पर भी है और अगर आपने पूरी पोस्ट नहीं पढ़ी तो यह हिस्सा पढ़िए…
”…. लेकिन अमेरिका में इतना बड़ा हादसा हो गया। एक भी लाश नहीं दिख रही थी। टीवी वाले कह रहे हैं कि दस हजार लोग मर गए। दस हजार मर गए तो लाशों को कौन ले भागा? यहां के टीवी वाले मूर्ख हैं। बस दो विमानों के टकराने की खबरें दिखाए जा रहे हैं। एक भी लाश नहीं? कोट-पैंट-शर्ट पर लाल निशान वाली तस्वीरें कहां हैं? लोगों के जूते? वो मातमी धुन? मैं एक-एक कर सारे चैनल बदल चुका। कहीं कुछ नहीं। बस इतनी सी खबर कि अमेरिका पर सबसे बड़ा आतंकवादी हमला हुआ है। बुश ने ये कहा है। इसके अलावा न किसी और का कोई बयान न खून से रंगी कोई तस्वीर।
आपको सिर्फ बताने के लिए बता रहा हूं कि जिस वक्त ट्वीन टावर पर हमला हुआ था, उस वक्त सीएनएन वहां अपनी एक फिल्म शूट कर रहा था। क्योंकि उनकी शूटिंग चल रही थी, इसीलिए ट्वीन टावर से विमान के टकराने की घटना शूट हो गई। वो करीब-करीब लाइव विजुअल था, जिसे आपने यहां टीवी पर बार-बार देखा। लेकिन आपने दस हजार मौत में से एक भी लाश अपने टीवी स्क्रीन पर नहीं देखी होगी।
वहां के लोग खबरों को जुगुप्सापूर्ण नहीं बनाते। वहां खबरों में थ्रिल नहीं पैदा किया जाता। वहां खबरों में मौत का ड्रामा नहीं रचा जाता। वहां खबरों को बेचने के लिए उन्हें झूठ के आंसुओं से नहीं सींचा जाता। वहां किसी बच्चे की कापी पर खून के पड़े छींटों को सनसनीखेज नहीं बना कर उस तरह उन पर कविताएं नहीं गढ़ी जातीं, जिस तरह पाकिस्तान में एक स्कूल में बच्चों पर हुए हमले के बाद हम सबने दिखाई हैं। वहां मौत को थ्रिल नहीं माना जाता। उनके लिए ज़िंदगी थ्रिल है। वो आसमान से कूदते हैं, पहाड़ पर चढ़ते हैं, समंदर में गोते लगाते हैं। ये सब उनकी खबरें हैं। वो ज़िंदगी को लाइव जीते हैं। हमारी तरह मौत को नहीं।
आप अपने दिमाग पर जोर डालिए। मैं भी डाल रहा हूं। मुझे न्यूयार्क में उतने बड़े हमले में मौत की एक भी तस्वीर नहीं दिखी थी। मैं तो वहीं था। जब मुझे नहीं दिखी तो आपको भी नहीं ही दिखी होगी। मैंने उस घटना के बारे में अपने बेटे से उस दिन सिर्फ इतनी बात की थी कि तुम परेशान मत होना। ऐसी घटनाएं हो जाती हैं।”
संजय की खबर उस दिन “अमेरिका को डर है कि बच्चे कहीं डर न जाएं” शीर्षक से प्रकाशित हुई थी। खबर छपने के बाद शीर्षक की चर्चा हुई थी और अमेरिका के रुख की तारीफ भी। मुझे लगा था कि भारतीय मीडिया कुछ सीखेगा पर सब बेकार रहा। अब सोशल मीडिया पर तो लोग और आगे निकल गए हैं। दोष किसे दिया जाए। कोई लाशें बेच रहा है, कोई मनोरंजन कर रहा है और कोई टाइमपास।
वरिष्ठ पत्रकार संजय कुमार सिंह के फेसबुक वॉल से.