16वीं लोकसभा के लिए देश के सभी सांसदों ने शपथ ले ली है। सत्र आरम्भ हो गया है। अगले पांच सालों तक चलने वाली सदन की कार्यवाई में अभी कई बैठकें होंगी। विभिन्न विधेयकों पर चर्चा होगी। नए विधेयक सदन में पेश किये जायेंगे। पुराने विधेयकों पर चर्चा कर उन्हें भी पारित करने का प्रयास किया जाएगा। संशोधन होंगे। बड़ी-बड़ी बहसे होंगी। हर बार की भांती इस बार भी सांसदों के वेतन और भत्तों से जुड़े विधेयक को निर्विरोध पारित कर दिया जाएगा। यूपीए सरकार के समय से लंबित पड़े विधेयकों पर शायद एनडीए सरकार को आपत्ति हो इसलिए इन पर विचार किये बिना ही इन्हें निरस्त कर दिया जाना है, हम सभी जानते हैं। सदन की कार्यवाही जैसे चलनी है, चलेगी। पर हम तो चर्चा कर रहे हैं महिला आरक्षण विधेयक की जो महत्त्वपूर्ण तो है परन्तु एक लम्बे समय से, या यूं कहें कि बाबा आदम के जमाने से लंबित पड़ा है।
इस विधेयक का जिक्र करना इसलिए भी जरुरी है क्योंकि आज और न जाने कब से संसद से सड़क तक महिलाओं की सुरक्षा और अधिकारों को लेकर एक लंबी बहस चल रही है। सरकार ने इस मुद्दे को ध्यान में रखकर ही संसद में अपराधिक कानून (संशोधन) विधेयक, 2013 पारित किया था। जिसका मकसद महिलाओं को सुरक्षित माहौल देना है, जिससे वो मुख्यधारा में अपनी भागीदारी बढ़ा सकें। परन्तु बढ़ते अपराध महिलाओं की सुरक्षा की पोल खोल रहे हैं। हमारी सरकार की नाकामयाबी को प्रदर्शित कर रहे हैं। जहां हम महिलाओं के लिए एक सुरक्षित समाज की कामना कर रहे हैं वहीं आज महिलाएं अपने ही घर में सुरक्षित नहीं हैं। हम महिलाओं को विधायिका में 33 फीसदी आरक्षण के पक्ष में तो हैं, परन्तु उसे यह अधिकार न जाने कब से और किन कारणों से देने को राजी नहीं हैं।
लंबे समय से लटक रहे महिला आरक्षण बिल की तरफ सभी राजनीतिक दलों का ध्यान तो गया है और जा भी रहा है। परन्तु इसे पास करने के नाम पर हम इस विधेयक में कमियाँ ढूँढने लग जाते हैं। हाल ही में हुए लोक सभा चुनाव और पांच राज्यों में हुए विधान सभा चुनावों में हम देख चुकें हैं कि महिलाओं की भागीदारी विधायिका में कितनी कम है। और अगर हम राजनीतिक क्षेत्र में महिलाओं की भागीदारी बढ़ाना चाहते हैं तो उसके लिए महिला आरक्षण विधेयक का पास होना अतिआवश्यक है।
देश के बाकी हिस्सों से राजधानी दिल्ली का सामाजिक और आर्थिक मिजाज अलग है। यहां की महिलाएं शिक्षित और आत्मनिर्भर हैं, उन्हें अपने अधिकारों और जिम्मेदारियों का अच्छी तरह ज्ञान है। वे अपनी लड़ाई लड़ना जानती हैं, फिर भी दिल्ली विधानसभा चुनावों में मात्र तीन महिला उम्मीदवार ही चुनाव जीत पाईं थीं। जबकि विधानसभा की 70 सीटों के लिए विभिन्न दलों से 69 महिला उम्मीदवार मैदान में थी। मतलब साफ है कि 70 सदस्यों वाली दिल्ली विधानसभा में मात्र तीन महिला विधायक होंगी। क्या इस आंकड़े को देखकर लगता है कि हमारी विधायिका में महिलाओं की भागीदारी की गिनती की जा सकती है? और हम बात कर रहे हैं महिला सशक्तिकरण की?
ऐसी ही हालत बाकी के अन्य राज्यों में भी हैं। मध्यप्रदेश में विधानसभा की 230 सीटें हैं, जिसके लिए लगभग 100 महिला उम्मीदवार मैदान में थी। लेकिन केवल 27 महिला उम्मीदवारों को जीत हासिल हुई। यही हालत बाकी के दो राज्यों राजस्थान और छत्तीसगढ़ में भी देखने को मिला। दोनों राज्यों में सात-सात महिला उम्मीदवारों को जीत हासिल हुई। जबकि 200 सदस्यों वाली राजस्थान विधानसभा के लिए कुल 103 महिला उम्मीदवार मैदान में थी। इसी तरह से 90 सदस्यीस छत्तीसगढ़ विधानसभा के लिए 94 महिला उम्मीदवार चुनाव मैदान में थी।
देश की सबसे बड़ी पंचायत में भी महिलाओं की संख्या बेहद कम है। 2009 के लोकसभा चुनावों में केवल 58 महिलाएं ही संसद पहुंच पाईं थीं। साथ ही अगर इस बार के लोकसभा चुनाव पर नज़र डालें तो इस बार की संसद के लिए कुल 639 महिलाओं ने चुनाव लड़ा था जो कुल उम्मीदवारों का केवल 8 फीसद है। और इस बार भी संसद में पिछली बार के मुकाबले ज्यादा फर्क नहीं है, 62 महिला सांसद हैं, जो केवल 11 फीसद है। मतलब साफ है कि संसद में महिला सांसदों का प्रतिनिधित्व पिछली लोकसभा में 10.68 फीसदी रहा और इस लोकसभा में एक अंक बढ़कर 11 फीसदी हुआ है। राज्यसभा में भी महिला सांसदों की संख्या बेहतर नहीं कही जा सकती है। 2009 के आंकड़ों के मुताबिक राज्यसभा में 22 महिला सांसद थी, जो कि 8.98 फीसदी के करीब है। और इस बार 29 महिला सांसद हैं. साफ है कि संसद और विधानसभाओं में महिलाओं का प्रतिनिधित्व चिंताजनक है। इसके लिए बहस और चर्चा तो होती रहती है, लेकिन इस मामले को लेकर राजनीतिक दल गंभीर नहीं दिखते। जिसका परिणाम है कि महिला आरक्षण विधेयक लंबे समय से अटका पड़ा है।
देश के कई राज्यों मे महिला मुख्यमंत्री हैं। अभी हाल में हुए पांच राज्यों में विधानसभा चुनाव हुए, राजस्थान में महिला को मुख्यमंत्री चुना गया। लेकिन जब आप राजनीति में महिलाओं की भागीदारी को गहराई से आंकते हैं तो पता चलता है कि ये भागीदारी केवल प्रतीकात्मक है। अभी भी मराजनीति में महिलाओं की भागीदारी 10 फीसदी से भी कम है। जबकि देश के प्रमुख राजनीतिक दल विधानसभाओं और संसद में महिलाओं को 33 फीसदी आरक्षण देने की बात कहते रहे हैं। खुद राजनीतिक दल 33 फीसदी टिकट महिला उम्मीदवरों को देने की बात कहते हैं। लेकिन अभी तक किसी भी दल ने ऐसा करने का साहस नहीं दिखाया है।
पंचायतों और नगर निगम के चुनावों में महिलाओं को 33 फीसदी आरक्षण दिया गया है। इसी के तहत चुनाव होते हैं और स्थानीय निकायों का गठन होता है। इन निकायों को महिलाएं प्रतिनिधित्व दे रही हैं, और सफलतापूर्वक संचालन कर रही हैं। फिर भी देश की सबसे बड़ी पंचायत में महिलाओं को आरक्षण देने के मुद्दे पर देश के प्रमुख राजनीतिक दल निर्णय लेने को तैयार नहीं दिखाई देते हैं। आखिर ऐसा क्यों है जनता जवाब चाहती है।
महिलाओं को अधिक राजनीतिक प्रतिनिधित्व देने का मतलब है कि उनकी आवाज सदन तक पहुंचाना है। जब तक महिलाओं से जुड़े रोजमर्रा के मुद्दों को गंभीरता से हल करने का प्रयास नहीं होगा, तब तक महिलाओं को दिए अधिकार केवल कानून की किताबों तक सीमित रहेंगे। अगर हम सही मायने में महिलाओं की सुरक्षा और उनको बराबरी का हक देना चाहते हैं तो उन्हें विधायिका में 33 फीसदी आरक्षण देना ही होगा। जिससे महिलाएं अपने हक की आवाज खुद उठा सकें। और बढ़ रही हिंसा पर लगाम लग सके। अगर इसके बिना हम महिला सुरक्षा की बात कह रहे हैं तो वह व्यर्थ की बात है। सरकारें बदल जाती हैं और उनके साथ मुद्दे भी अगर इस बार भी ऐसा ही हुआ तो लगता है कि महिला आरक्षण दूर की कौड़ी बनकर रह जाएगा।
परन्तु जनता को हमारी नवीन कबिनेट मंत्री और भाजपा सांसद श्रीमती सुषमा स्वराज ने एक विशेष सत्र के दौरान विश्वास दिलाया है और विपक्ष से अपील की है कि इस बार महिला आरक्षण विधेयक को पारित किया ही जाना चाहिए। अगर इस बार इस विषय को गंभीरता से लिया जाता है तो लगता है कि महिलाओं की स्थिति में बदलाव अवश्य होगा। और अगर नहीं तो सरकार घोषणा में पत्र में होता तो बहुत कुछ है पर उसे समय के साथ हम भूल भी तो जाते हैं, तो हमारी भी तो गलती हुई। अब देखना यह है कि क्या होता है। विशेयक पास होता है या ठण्डे बसते में और ठण्डा होता है।
अश्वनी कुमार
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