प्रिय श्री श्याम बाबू जी,
आपका 21 दिसंबर का पत्र, हमारे अन्य साथियों के साथ साथ, मुझे भी मिला। आपके नाम पर लिखे गए पत्र पर हँसी भी आई और तरस भी आया कि कम से कम भाषा एवं तथ्यों पर कुछ तो न्याय किया होता। अंग्रेजी में कुछ और हिंदी में कुछ और लिखा है। गलती आपकी नहीं क्योंकि आपने तो बस अपना नाम भर उधार दिया है। मुझे मालूम है कि यह पेट दर्द और आफरा केवल श्रमिकों के लिए मेरी मजीठिया के लिए लड़ाई को लेकर हो रहा है। भाईजान, जिन कई वरिष्ठ साथियों का आपने जिक्र किया है उनमें से एकाध का नाम तो ले लेते लेकिन झूठ के केवल पंख होते हैं पाँव नहीं, इसलिए सच बोलने का साहस नहीं।
इसी नाते तो आपके आका ने आई. एफ. डब्लू. जे. (IFWJ) की ऐसी दुर्गति कर डाली है। अगर आपको विश्वास न हो तो आप दिल्ली के किसी नये पत्रकार से पूछिये तो अव्वल तो वह आई. एफ. डब्लू. जे. को जानता ही नहीं है और कुछ पुराने पत्रकारों से पूछिये तो उनमें इस पर काबिज अध्यक्ष के प्रति घृणा और नफरत साफ झलकती है। मुझे यह बताने में कोई संकोच नहीं है कि मैं तमाम राज्यों के सैकड़ों कर्मचारियोँ का सुप्रीम कोर्ट, हाई कोर्ट, श्रम न्यायलय में केस लड रहा हूँ और मुझे उनसे कितनी फीस मिली है उसका आकलन आप और आपके पत्र लेखक नहीं कर सकते हैं। फिर भी, आपकी बुद्धि और विवेक की दाद देनी पड़ेगी जिसमें एक तरफ आपने यह कहा है कि कर्मचारी पीड़ित, प्रताड़ित, नौकरी से वंचित एवं त्रस्त हैं और दूसरी तरफ आप कह रहें हैं कि मैंने हर कर्मचारी से पचास हज़ार रुपये लिए हैं। आपके इस आकलन पर आपको साधुवाद देता हूँ। शायद आपके ‘वरिष्ट साथी’ को यह गरिष्ट लग रहा है कि मैं कर्मचारियों से फीस लेकर मुकदमा लड़ रहा हूँ? तो आपको यह बता दूँ की मैं आप और आपके ‘वरिष्ठ साथी’ की तरह मालिकों से पैसे नहीं लेता हूँ। आप लोग मालिकों से पैंसे लेकर श्रमिकों से छलावा करते हो। सैकड़ों कर्मचारियों से फीस लेने के बजाय आप लोगों का यह तरीका एक मालिक से लाखों और करोड़ों वसूल लिए जाए, आप लोगों को ही मुबारक हो। आप और आपके ‘वरिष्ठ साथी’ यह भली भांति जानते हैं की कोई भी कर्मचारी आप लोगों पर रंच मात्र भी विश्वास नहीं करता है क्योंकि अखबार मालिकों से आपका और आपके ‘वरिष्ठ साथी’ का याराना रिश्ता रहता है।
न्यायालय में सुनवाई पर आपने जो तरीका बताया है वह आपकी मूर्खता का प्रदर्शन करता है। जिन वकीलों का आपने नाम लिया है वे सभी एकजुट हो कर इस मुकदमें की लड़ाई लड रहें हैं सबका उद्देश्य एक ही है। जहाँ तक मजीठिया मुकदमें की तारीख और आगे न बढ़े, इसके लिए आपके इस “परम पूज्य ” ने ही प्रयास किया था और अगर विश्वास न हो तो 3 दिसंबर 2015 को न्यायमूर्ति रंजन गोगोई और न्यायमूर्ति एन. वी. रमना के आदेश (कांटेम्पट पेटिशन न. 411 / 2014) का सुप्रीम कोर्ट की वेबसाइट से अवलोकन कर लें। मजीठिया वेतन आयोग के खिलाफ जब मालिकों ने सुप्रीम कोर्ट में मुकदमा कर रखा था, तो उसकी सुनवाई चार वर्षों तक चली तब तो न आपने न आपके स्वनामधन्य पत्र लेखक ने यह जानने की जहमत उठाई कि कब तारीख पड़ती है और कितना खर्च आ रहा है? जब हम मुकदमा जीत गए तो वाह वाही लूटने और उगाही करने के लिए आप लोगों ने मथुरा में मुझे एक स्मृति चिन्ह देकर सम्मान किया था। तब तो मेरी वकालत की आप लोगों द्वारा प्रसंशा हुई थी और अब आपको मेरी वकालत से इतनी चिढ क्यों? भगवान आपका भला करे।
अख़बार मालिकों के इशारे पर रेलवे यूनियन का मेरा दफ्तर बंद करने का यह घृणित काम किसने किया था यह सबकी समझ मै आ चूका है। अब आप इस पर पर्दा नहीं डाल सकते हैं। इसमें रेलवे यूनियन का कोई हाथ नहीं था, इसीलिए तो रेलवे यूनियन के लोग मुझे अब भी सम्मान एवं स्नेह देते हैं। जहाँ तक मेरे पत्रकार होने की बात है, तो आपको मैं यह बता दूँ कि मैं ऐसे अखबार में उस समय मुख्य उपसम्पादक था जब उसे पढ़ने में ही लोग गौरवान्वित होते थे और आज भी मैं वकील रहते हुए मैं हर महीने इतना लिखता हूँ कि आप बरसो में भी शायद उतना लिख पाये हों! उससे मुझे मानदेय भी मिलता है। मुझे यह कहने में संकोच नहीं है कि वकालत मेरा पेशा है, पत्रकारिता मेरी हॉबी, ट्रेड यूनियन मेरा नशा और कर्मचारियों के लिए संघर्ष संघर्षरत रहना एक मिशन। पत्रकारिता के नाम पर दलाली और ट्रेड यूनियन के नाम पर उगाही करने वाले लोग इसे नहीं समझ सकते हैं।
IFWJ के कोषाध्यक्ष रहते हुए आप मुझसे हिसाब मांग रहे हैं यह शर्म की बात है, हिसाब तो आपको देना है। आपको यह जानकारी होगी कि रिटर्न सालाना भरा जाता है। अलबत्ता लखनऊ के खातों के बारे में तो किसी को पता भी नहीं है। आप बताते हैं कि लखनऊ का हिसाब आपको मिल गया तो आपने उसे ट्रेड यूनियन के दफ्तर में दिया क्यों नहीं? और आई. एफ. डब्लू. जे. का दिल्ली खाता सेंट्रल बैंक ऑफ़ इंडिया में पिछले पैंसठ साल से है जिसका नंबर (1226730546) सभी सदस्यों को मालूम है। क्या आपके अंदर इतनी भी हिम्मत है कि लखनऊ के हिसाब को तो छोड़िए वहां ‘IFWJ’ और ‘The Working Journalists’ के नाम से कितने बैंको में कितने खाते हैं उनका नंबर भी बता सकें?
नेपाल, भूटान और श्रीलंका यात्रा पर कितने पैंसे मिले इसका हिसाब तो आपको देना है, किस ट्रेवल एजेंट के माध्यम से कितने पैसे लिए गए? इसकी जानकारी तो आपको भी है क्योंकि ज्यादातर वसूली तो इन यात्राओं के नाम पर नकद में हुई थी। हर सम्मलेन में लाखों का शिविर शुल्क और दसियों लाख की उगाही का क्या होता है? मथुरा के अवैध सम्मलेन को ही लीजिये इसमें तो प्रशासन की मदद से बेइंतहा पैंसे इक्कठा किये गए, इसके बारे में मथुरा का हर पत्रकार जानता है फिर आप उस पर चुप क्यों हैं?
फग्गन सिंह कुलस्ते ने सांसद निधि से दस लाख रुपए मुझे और कृष्णा मोहन झा को दिए, ऐसा कहकर आप कुलस्ते जी का अपमान कर रहे हैं। आपको झूठ बोलने में तो कोई संकोच नहीं है लेकिन एक सांसद के बारे में तो झूठ मत बोलिए। कम से कम इसकी जानकारी तो सूचना के अधिकार के तहत प्राप्त कर ली होती।
जिस तीस वर्षों के सम्बन्ध की बात आप करते हैं उसी अध्यक्ष से आप पूछिये की आज तक मेरे ऊपर कोई लांछन क्यों नहीं लगाया? आपको यह बताना आवश्यक है कि जिस अध्यक्ष से लोग बोलना तक मुनासिब नहीं समझते हैं, उस अध्यक्ष का साथ देने के कारण लोग मुझसे कतरा रहे थे तब भी मैं साथ रहा।
आशा है कि आप किसी तीर्थस्थान पर जाने की तैयारी में लगे होंगे, ढ़ेर सारी सुभकामनाओ के साथ,
आपका ‘परम पूज्य भाई’,
परमानन्द पाण्डेय
महासचिव – आई. एफ. डब्लू. जे.