संजय कुमार सिंह-
मुझे नहीं लगता कि नेहा सिंह राठौड़ के गाने में ऐसा कुछ है कि उन्हें नोटिस देकर वो सवाल पूछे जाएं जिसके जवाब सर्वविदित हैं। या आसानी से जांचे जा सकते हैं। जैसा कि आरोप लगाया जा रहा है, उसके जरिए – सरकार के आरोपों को स्वीकारने या मना करने का मामला तो बनाया ही जा सकता है। बाद में भले यह सामान्य और जायज कार्रवाई बताई जा सकती है और भक्तों को आश्वस्त किया जा सकेगा कि सरकार मनमानी नहीं कर रही है। लेकिन इतने भर से डराने का काम तो हो ही गया। मकसद इतना भी हो तो अनुचित है। पर वह अलग मुद्दा है।
खास बात यह है कि यूपी में का बा – की टैग लाइन ही यूपी के शासकों को नाराज करने के लिए पर्याप्त है। खासकर बुलडोजर राज (कार्रवाई कहना चाहिए), में दो महिलाओं के जिन्दा जल जाने का मामला और उसपर डीएम को रंगबाज कहना। यह बताना कि आग लगेगी तो हिन्दू भी मरेंगे, मुसलमान भी मरेंगे और यूपी में सिर्फ अब्दुल का मकान नहीं है – पार्टी की पूरी राजनीति को चुनौती देना है। लोक कलाकार इसे कहने-बताने लगें तो बात जन-जन तक पहुंच सकती है। और यह डर हो तो प्रतिक्रिया होगी ही। और यह डर की प्रतिक्रिया ही लगती है।
गाने से होने या हो सकने वाले नुकसान को प्रचारक व्हाट्सऐप्प यूनिवर्सिटी के प्रचार से संभाल नहीं पाएंगे। वैसे ही जैसे हिन्डनबर्ग की रिपोर्ट का असर नहीं रुक रहा है। उसे बदनाम करने की पूरी कोशिश के बावजूद। राहुल गांधी के सवाल का जवाब जब सरकार नहीं दे पाई तो नेहा सिंह राठौड़ को मजबूर करना – रणनीति वही है। पर नेहा को रोकना भी तो जरूरी है। मेरे विचार से नहीं, राजनीति के लिए। यह भी ठीक है कि बात बुरा मानने की है और शासकों की सहनशीलता अलग-अलग होती है। जो भी हो, पत्रकार भले ऐसे मामलों से नहीं डरते हों लेकिन एक नवविवाहित युवती के सुसराल में पुलिस का पहुंचना निश्चित रूप से मायने रखता है और नेहा ने इसे स्वीकार भी किया है।
जिस समाज में महिलाओं को घर में, पर्दे में और सात तालों में रखने का रिवाज रहा हो, तमाम सुविधाओं के बावजूद मां, कई मामलों में पत्नी भी गांव पर ही रहती हो, पति के बिना पहचान ही न हो वहां कलाकार के रूप में ही सही, घूंघट में ही सही – सरकार से सवाल करने और ऐसी सत्ता को नाराज करने का अपना महत्व है। और उसे औकात में लाने की सत्ता की अपनी जरूरत। सामान्य तौर पर ऐसे में कोई भी परिवार कहेगा कि छोड़ो-हटाओ ये सब कुछ और करो। मैं नहीं जानता नेहा सिंह राठौड़ का परिवार इसे कैसे देखेगा और आगे पुलिस किस हद तक जाएगी लेकिन यूपी सरकार ने इसके जरिए नेहा को और बाकी लोगों को ये तो याद दिला ही दिया है कि, यूपी में सिद्दीक कप्पन के उदाहरण बा।
आप जानते हैं कि रिपोर्टिंग की अपनी ड्यूटी पर जा रहे केरल के पत्रकार सिद्दीक कप्पन को गिरफ्तार कर उसपर ऐसे मामले बनाए गए कि वह दो साल चार महीने जेल में रहा। सरकार के लिए यह जरूरी नहीं है कि मामले सही हो या साबित हों और ना किसी मुआवजे का रिवाज है। बहुमत की लोकप्रिय सरकार को इन मामलों को देखना चाहिए पर सत्ता है ही ऐसी कि एक बार हाथ लग जाए तो छोड़ने का मन नहीं होता है। ऐसे में सिद्दीक पर पीएफआई से कनेक्शन और हिन्सा फैलाने का आरोप लगा दिया गया और वह बचाव में लगा रहा निकल गए सवा दो साल। बात इतनी ही नहीं है। अर्नब गोस्वामी पर जो आरोप है उसके मुकाबले इसका मामला ऐसा था कि अर्नब को तो छह दिन में जमानत मिल गई पर कप्पन को सुप्रीम कोर्ट से जमानत मिलने के बावजूद महीनों जेल में रहना पड़ा।
वैसे, मामला सिद्दीक कप्पन का ही नहीं है कई हैं और मुसलमानों के भी है। इसलिए लिखकर क्या प्रचार करना लेकिन एक डॉक्टर का जो हाल किया वह भी याद आ जाता है। इसलिए, नेहासिंह राठौड़ के मामले में आगे कार्रवाई हो या नहीं – सरकार ने डबल इंजन की ताकत या लोकप्रियता दिखा दी है। आप कह सकते हैं कि यह उनके तेवर पर निर्भर करेगा और डर जाने पर शायद कार्रवाई आगे नहीं बढ़े। या सिर्फ डराने के लिए किया गया है (था) लेकिन डराने का काम तो हो ही गया है। और यह कत्तई उचित नहीं है। अगर आपको लग रहा था कि पहले दूसरों को डराया जाता था और आप खुश होते थे कि टाइट हो गया या कर दिया तो देख लीजिए और ढंग से रहिए। अपनी बारी का इंतजार कीजिए।