जो अपनी क्लास में ही पांचवे या दसवें नंबर पर हो क्या वह शहर में अव्वल आने का दावा कर सकता है? कर तो नहीं सकता लेकिन हिंदी का एक बड़ा अखबार ऐसा ही करता आया है, आज से नहीं लंबे समय से… भारत का सबसे तेज बढ़ता, सबसे ज्यादा सर्कुलेशन वाला और भी न जाने क्या क्या दावा करने वाला अखबार दैनिक भास्कर… पर समय की गति देखिए कि कल तक खुद के बारे में बड़े बड़े दावे करने वाला यह अखबार अब खुद को मरियल और फिसड्डी बताने की जुगत में है। यहां तक कि ये अखबार अपने कर्मचारियों को अपनी गरीबी की दुहाई भी देने लगा है। है न अचरज की बात? चलिए आपको बताते हैं कि आखिर ऐसा क्या हो गया कि दैनिक भास्कर जैसा दुनिया के सबसे बड़े अखबारों में खुद को शामिल बताने वाला अखबार अब जगह जगह यह दावा सरकारी विभागों में दावा करता फिर रहा है कि वह तो फलां जगह आठवें और अमुक जगह दसवें नंबर का अखबार है।
दरअसल सुप्रीम कोर्ट के निर्देश के बाद भी (भास्कर समेत कई अखबारों पर सुप्रीम कोर्ट में अवमानना का केस चल रहा है) कार्यरत पत्रकारों को मजीठिया वेज बोर्ड के हिसाब से पैसा नहीं दे रहे अखबारों को अब बकाए की भी राशि देना है जो हर कर्मचारी के लिए लाखों रुपए में बन रही है। चूंकि इस वेज बोर्ड की अनुशंसाओं में वर्गीकरण टर्नओवर के हिसाब से है इसलिए अब भास्कर खुद को पिद्दू सा अखबार बताने की चालबाजी कर रहा है। वैसे तो मजीठिया वेतन व बकाया न देने के लिए कई हथकंडे अपनाए जा रहे हैं जिनमें डराने धमकाने से लेकर नौकरी से निकालने और हजारों किलोमीटर की दूरी पर तबादला करना भी शामिल है लेकिन इसके बावजूद बकाया वाला मामला तो सैटल करना ही होगा और यही राशि प्रति कर्मचारी लाखों रुपए तक पहुंच रही है।
ऐसे में अखबार मालिक चाह रहे हैं कि खुद को इतना मरियल, फिसड्डी और कंगाल बता दें कि कम से कम पैसा देना पड़े। वैसे अच्छा था कि अखबार किसी भी दबाव के बिना ही खुद की हकीकत पर नजर डालते लेकिन इसी बिंदु पर नया पेंच आ खड़ा हुआ है जहां भास्कर खुद को श्रम विभाग के सामने दीन हीन बता रहा है वहीं सरकारी विज्ञापन लेने के लिए खुद को इतना बड़ा और फैला हुआ बताता है जितना कि वह हकीकत में है ही नहीं। यानी एक ही सरकार के दो अलग अलग विभागों के सामने खुद को अलग अलग तरह से पेश किया जा रहा है।
यही हाल जनता के सामने भी है जब डीबी कॉर्प लिमिटेड अपने शेयरहोल्डर्स के सामने रिपोर्ट पेश करता है तो करोड़ों के मुनाफे और अरबों के नए प्रोजेक्ट्स दिखाता है लेकिन जब अपने ही कर्मचारियों की बारी आती है तो बार बार यही कहा जाता है कि मंदी का असर हो रहा है और फलां क्वार्टर तो बहुत ही बुरा गया है इसलिए इस बार इंक्रीमेंट भी दिया जा सकेगा या नहीं यह सोचना पड़ेगा। थाेड़ा सा और गहराई में जाएंगे तो पता चलेगा कि भास्कर जितने राज्य और जितने संस्करण बताता है उतने की तो मालिकी ही इनके पास नहीं है, जैसे मध्यप्रदेश के कुछ हिस्सों में मालिकी रमेशचंद्र अग्रवाल के चेयरमेन वाले ग्रुप की है लेकिन वहीं जबलपुर सहित कई बड़े एडिशन मनमोहन अग्रवाल के मालिकी वाले हैं।
महाराष्ट्र को डीबी कॉर्प अपनी मालिकी में बताकर कॉर्पोरेट विज्ञापन लेता है लेकिन पूरे महाराष्ट्र में ‘दैनिक भास्कर’ के नाम से सुधीर अग्रवाल हिंदी अखबार नहीं निकाल सकते क्योंकि टाईटल को लेकर समझौता ही ऐसा हुआ है। अब सवाल यह कि किस विभाग को दी गई जानकारी स्टैंडर्ड मानी जाए और किस विभाग को दी गई झूठी जानकारी के आधार पर इस पर केस लगाया जाए? यदि डीएवीपी, शेयरहोल्डर्स और कॉरपोरेट विज्ञापन के लिए दी गई जानकारी को सही मानें तो उन जानकारियों का क्या जो अखबार श्रम विभाग को उपलब्ध करा रहा है और जिसमें वह खुद को फिसड्डी बताने में कमाल कर रहा है।
हां, एक दूसरा कमाल भी चल रहा है कि सालोंसाल संपादकीय में रहे व्यक्ति को यह दस्तावेज दिए जा रहे हैं कि वह तो मैनेजर या सुपरवाइजर स्तर का है। कुछ मामले तो ऐसे हो गए हैं जिनमें एक ही व्यक्ति यह साबित करने की स्थिति में आ गया है कि वह एक ही समय में संपादकीय दायित्व भी संभाल रहा था और उसे मैनेजेरियल जिम्मदारियां भी दे दी गई थीं। कोई तो इन्हें बताए कि झूठे दस्तावेज पेश करने की सजा क्या हो सकती है। यदि ये दस्तावेज सुप्रीमकोर्ट में पेश कर दिए जाएं तो इनका खुद को मरियल, फिसड्डी और कंगाल बताने वाला झूठ, सच में भी बदल सकता है।
लेखक आदित्य पांडेय वरिष्ठ पत्रकार हैं. उनसे संपर्क [email protected] के जरिए किया जा सकता है.
आदित्य पांडेय की अन्य रिपोर्ट्स भी पढ़ें…
भास्कर, जागरण, पत्रिका जैसे बड़े मीडिया समूहों की समग्र ‘नीच’ कथा पढ़िए
xxx