वरिष्ठ पत्रकार और साहित्यकार सुभाष राय जी कि नई किताब आई है. दिगम्बर विद्रोहिणी अक्क माहेश्वरी की कविताओं पर आधारित यह किताब दिल्ली के पुस्तक मेले में हाल नम्बर दो स्थित सेतु प्रकाशन के स्टाल पर उपलब्ध है. सुभाष राय की इस किताब पर दिग्गज कवि-आलोचक, संपादक और संस्कृतिकर्मी श्री अशोक वाजपेयी ने अपनी टिप्पणी दी है. नीचे आप उनकी टिप्पणी उनके ही शब्दों में पढ़िए..
अशोक वाजपेयी-
ज्योतिवसना दिगंबरा : कन्नड़ की भक्त वचन कवि अक्क महादेवी की कविताओं से हम अपरिचित नहीं रहे हैं. अंग्रेज़ी के अलावा हिंदी में ही उनके कुछ भावानुवाद हुए हैं. सुभाष राय के अध्यवसाय और अनुशीलन से कन्नड़ प्रदेश में छानबीन और विशेषताओं से निरंतर संवाद कर ‘दिगंबर विद्रोहिणी अक्क महादेवी’ शीर्षक से जो पुस्तक सेतु प्रकाशन से प्रकाशित की है वह इस अर्थ में अनूठी है कि उसमें लंबा वैचारिक विश्लेषण, मूल कन्नड़ कविताओं के यथासंभव गेय अनुवाद और कवि से प्रेरित छाया-कविताएं संकलित हैं.
किसी कवि द्वारा दूसरे किसी कवि का अनुवाद अच्छा और दिलचस्प तभी हो पाता है जब अनुवादक-कवि, सर्जनात्मक और वैचारिक स्तरों पर, दूसरे कवि को आत्मसात् कर पाता है. अनुवाद की प्रक्रिया, अपने उन्नत क्षणों में, आत्मसातीकरण भी होती है. तभी अनुवाद में चमक और गरमाहट विन्यस्त हो पाते हैं. यह सुखद है कि सुभाष राय ने अक्क महादेवी को अनूदित और आत्मसात् दोनों ही किया है.
एक ऐसे समय में हमारे इतिहास में विक्टोरियन मानसिकता के हस्तक्षेप का हम विलंबित उभार फिर अनुभव कर रहे हैं, महादेवी की कविता हमें अपनी परंपरा में संभव साहस का एक पाठ सिखाती है. उसकी आस्था की गहनता और उत्कटा, कामना और विकलता विलक्षण है. वह अपने समय में प्रतिरोध की और आज के अन्धभक्त समय में भी प्रतिरोध है.
महादेवी यह जिज्ञासा करने के बाद कि ‘रसविहीन पर्वत है/तो फिर पेड़ वहां/कैसे उगते हैं? सत्वहीन कोयला अगर है/ तो वह कैसे पिघला देता/ लोहे को भी’ वे एक कविता में कहती हैं:
जंगल में हर पेड़
मिला सब देने वाला
मिली झाड़ियां जीवन रस
भर देने वाली
पत्थर सारे पारस पत्थर
बन कर आए
सारी भूमि लगी
मुझको ज्यों तीरथ कोई
पानी सारा जैसे
अमृत जल हो सचमुच
मिले हिरण सब
स्वर्ण हिरण बन…
एक और कविता का आरम्भ होता है:
नील पर्वत शिखर पर आरूढ़
पहने चन्द्रमणि निज पांव में
तुरही बजाते दीर्घ सींगों की
ओ शिवा! कब
फोड़ पाऊंगी
समुन्नत स्तनों के घट
तुम्हारी देह पर…
अपनी दिगंबरता का एक तरह से औचित्य बताते हुए एक कविता में वे कहती हैं:
देह पर जो वस्त्र है, वह खींच सकते हो मगर
नग्नता को किस तरह
तन से उतारोगे?
शर्म जिसने फेंक दी
पहने खड़ी जो भोरधर्मी
ज्योति शिव की
अरे मूर्खों! क्या
ज़रूरत है उसे अब
वस्त्र की, आभूषणों की!