सत्येंद्र पीएस-
इलाहाबाद उच्च न्यायालय के न्यायमूर्ति शेखर कुमार यादव ने अपने फैसले में लिखा है कि वैज्ञानिकों का मानना है कि गाय ऑक्सीजन सांस लेती है और ऑक्सीजन ही छोड़ती है।
गाय के घी से यज्ञ में हवन करने से सूर्य की किरण को विशेष ऊर्जा मिलती है जिससे बारिश होती है।
गाय का दूध, दही, मूत, गोबर और घी मिलाकर खाने से तमाम असाध्य बीमारियां दूर हो जाती हैं।
इन वजहों से गाय को राष्ट्रीय पशु घोषित किया जाना चाहिए।
उन्होंने गोकशी के आरोपी की जमानत खारिज करते हुए यह सब हिंदी में लिखा है।
ये सब एक अहीर के हाथ ही लिखवाना था, 2022 के विधानसभा चुनाव के पहले! अफसोस!
बद्री प्रसाद सिंह-
अदालतें राष्ट्रीय पशु-पक्षी घोषित करने जैसे काम विधायिका को करने दें! इलाहाबाद उच्च न्यायालय ने वैदिक, पौराणिक, सांस्कृतिक महत्व एवं सामाजिक उपयोगिता को देखते हुए गाय को राष्ट्रीय पशु घोषित करने का सुझाव दिया है।गौहत्या के एक अभियुक्त की जमानत दिए जाने के प्रकरण पर मा.न्यायालय ने उक्त निर्णय देते हुए कहा कि गाय हिंदुओं की आस्था का विषय है जो गाय को माता मानते हैं और आस्था पर चोट करने से देश कमजोर होता है।गाय भारतीय कृषि की रीढ़ है तथा बूढ़ी बीमार गाय भी कृषि के लिए उपयोगी होती हैं। भारतीय समाज में कुछ समुदाय गोमांस खाते हैं लेकिन गोमांस खाना किसी का मौलिक अधिकार नहीं है।
गोहत्या देश के २९ राज्यों में से २४ में प्रतिबंधित है। हमारे संविधान में भी गो संरक्षण पर बल दिया गया है।गोवंश भारत में सर्वाधिक है ,गोहत्या पर प्रतिबंध के बावजूद गोमांस निर्यात में भारत पहले स्थान पर है।यह विचारणीय है कि भारत हिन्दू बहुल देश है,अधिकांश गो पालक हिंदू ही हैं फिर भी इतनी गायें क्यों कट रही हैं?
बैलों की ग्राम्य जीवन में हल जोतने तथा बैलगाड़ी खींचने में उपयोगिता थी जिसे ट्रैक्टर ने उसे समाप्त कर दिया है।गोबर देने के अतिरिक्त बैल से किसान को अन्य लाभ नहीं है, इसीलिए किसान अब बैल नहीं पाल रहे हैं।गाय जबतक दूध देती है तभी तक उपयोगी है,बूढ़ी होने के बाद गोबर तथा गोमूत्र ही दे सकती है।जब हम सैद्धांतिक रूप में बात करते हैं तो गाय को माता,उसके गोबर, मूत्र की उपयोगी बताते हैं एवं धर्मग्रंथों को उद्धृत कर गोसेवा की महिमा बखानते हैं।गोहत्या को रोकने हेतु साधु-संतों ने इंदिरा गांधी के शासनकाल में संसद घेरते समय शहादत भी दी थी लेकिन उपयोगितावाद के इस युग में जब हम अपने बूढ़े मां-बाप की सेवा नहीं कर रहे हैं तो गौसेवा की बात कैसे करें?
उत्तर प्रदेश में योगी राज से पूर्व गोवंश हरियाणा, उत्तर प्रदेश से ट्रकों में भर भर कर बिहार, पश्चिम बंगाल कटने के लिए बेझिझक भेजे जाते थे।इन मार्गों पर पड़ने वाले थानों, पुलिस चौकियों पर नियुक्ति के लिए बोली लगती थी।RTO भी प्रसन्न रहते थे। बहुत से गो रक्षक भी अपना कमीशन लेते थे और न मिलने पर गोतस्कर को पुलिस से पकड़वा देते थे। नेपाल तथा बिहार सीमा पर प्रभावशाली लोग पशु तस्करी हेतु पशु बाजार लगवाते थे।योगी राज में इस व्यापार पर कड़ाई होने से अब अनुपयोगी गोवंश आपको हर गांव में खेती का चीरहरण एवं वर्ष२०२२ तक किसानों की आय दुगुनी करने के प्रयास करते मिल जाएंगे।
पहले तो किसान अपने गांव के छुट्टे गोवंश पकड़ कर चोरी से ट्रकों से दूर के गांव भेजते थे।यही कार्य दूसरे गांव वाले भी करते थे।इस गांव के पशु उस गांव और उस गांव के पशु इस गांव,यही चलता रहा। अधिक शोर पर सरकार ने हर गांव में गोशाला बनाने की बात की।कुछ जगह बनी तो पशुओं के चारा पानी की समुचित व्यवस्था न होने से पशु दम तोड़ते मिले।जो गोशाला प्रबंधक प्रचंड गोभक्त थे वे चोरी से इन पशुओं को अच्छी कीमत पर तस्करों को सौप कर गोसेवा का पुण्यलाभ भी कमा लिया।
गाय को राष्ट्रीय पशु घोषित करने के संबंध में निवेदन है कि इसी उच्च न्यायालय ने कभी गीता को राष्ट्रीय ग्रंथ घोषित करने का सुझाव दिया था,उसका क्या हुआ? राष्ट्रीय पशु,पक्षी आदि को घोषित करने का दायित्व विधायिका का है,यह अधिकार उसी के पास रहने दिया जाए तो बेहतर होगा।
माननीय न्यायालय इसी निर्णय में यदि बेसहारा गोवंश को पालने का उत्तरदायित्व भी किसी को सौंपता तो बेहतर होता। सरकार आदमी के भोजन, शिक्षा, चिकित्सा आदि की समुचित व्यवस्था कर ले,यही बहुत होगा।गोवंश पालना उसके बश की बात नहीं है। साधु-संत, कारपोरेट घराने , स्वयंसेवी संस्थाएं यदि इस कार्य में निष्ठा के साथ अपना योगदान दें तो श्रेयस्कर होगा।केवल भावना या आस्था के आधार पर गोवंश की रक्षा का सपना साकार नहीं होगा,इसके लिए गोसेवा के तमाम व्यवहारिक पहलुओं को परखना उचित होगा।
जगदीश सिंह-
गाय के बारे में प्रखर हिंदुत्व वादी वीर सावरकर के विचार…
‘गाय की देखभाल करो, उसकी पूजा नहीं’
यह बात 1930 के दशक की है. मराठी भाषा के प्रसिद्ध जर्नल ‘भाला’ में सभी हिंदुओं को संबोधित करते हुए पूछा गया, ‘वास्तविक हिंदू कौन है? वह जो गाय को अपनी माता मानता है!’ इसका जवाब वीर सावरकर ने ‘गोपालन हवे, गोपूजन नव्हे’ में दिया है. इसका हिंदी अनुवाद कुछ इस तरह है, ‘गाय की देखभाल करो, उसकी पूजा नहीं.’ इस निबंध से जाहिर होता है कि वीर सावरकर गाय की पूजा के विरोधी थी. उन्होंने इस निबंध में लिखा, ‘अगर गाय किसी की भी माता हो सकती है, तो वह सिर्फ बैल की. हिंदुओं की तो कतई नहीं. गाय के पैरों की पूजा करके हिंदुत्व की रक्षा नहीं की जा सकती है. गाय के पैरों में पड़ी रहने वाली कौम संकट के आभास मात्र से ढह जाएगी.’
वैज्ञानिक सिद्धांतों पर हो गाय का संरक्षण
वीर सावरकर के लिहाज से गाय एक उपयोगी जानवर तो है, लेकिन उसकी पूजा का कोई मतलब नहीं है. इस बारे में तर्क देते हुए उन्होंने कहा था कि इंसान को उसकी पूजा करनी चाहिए जो उससे बड़ा हो या जिसमें इंसानों से कहीं अधिक गुणों की खान हो. हिंदुओं का पूज्य एक ऐसा जानवर तो कतई नहीं हो सकता है जो मानवता के लिहाज से कहीं पिछड़ा जानवर है. सावरकर ने गाय की पूजा को ‘अज्ञानता से प्रेरित आचरण’ करार देते हुए कहा था कि यह प्रवृत्ति वास्तव में ‘बुद्धि हत्या’ है. ऐसा भी नहीं कि वीर सावरकर गाय के संरक्षण के भी खिलाफ थे, बल्कि उन्होंने गाय के संरक्षण को राष्ट्रीय जिम्मेदारी करार दिया था. हालांकि उनका कहना था कि गाय का संरक्षण आर्थिक और वैज्ञानिक सिद्धांतों के आधार पर होना चाहिए. इस संदर्भ में सावरकर ने अमेरिका का उदाहरण दिया था, जहां अधिसंख्य पशु उपयोगी साबित होते हैं.