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सुख-दुख

कई मित्रों को आरक्षण की बहुत चिन्ता रहती है!

रंगनाथ सिंह-

कई मित्रों को आरक्षण की बहुत चिन्ता रहती है। मुझे चिन्ता तो कभी नहीं रही लेकिन बालिग होने के बाद आरक्षण का मुद्दा दो बार सामाजिक विमर्श का हिस्सा बना। पहली बार केंद्रीय विश्वविद्यालयों में पिछड़े वर्ग को आरक्षण दिये जाते समय। दूसरी बार उच्च शिक्षा में आरक्षण दिये जाते वक्त। उच्च शिक्षा में आरक्षण दिये जाते वक्त मुझे वह गलत लगा था। मेरा तर्क था कि अगर कोई व्यक्ति ग्रेजुएट होने तक भी खुली प्रतियोगिता के लिए नहीं तैयार है तो फिर उसे कब तक मौका दिया जाता रहेगा?

तब मैं छात्र ही था। कागजी दुनिया में रहता था। ज्यों-ज्यों दुनियावी तजुर्बा बढ़ता गया मुझे समझ आता गया कि मेरा तर्क भी कागजी था। असल दुनिया में वह खोखला साबित हुआ। जातिवाद से नाभिनालबद्ध इस देश में कभी कोई खुली प्रतियोगिता नहीं होती। जिसे हम खुली प्रतियोगिता कहते हैं वह दरअसल ताकतवर द्वारा कमजोर को कुचल देने की खुली छूट है।

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सिस्टम को चलाने वाला वर्ग महापाखण्डी और महाजातिवादी है। वह उस जादूगर की तरह है जो हर बार सैकड़ों की नंगी आँखों के सामने आपके हाथ में खुली प्रतियोगिता का कबूतर पकड़ाकर गायब कर देगा जो बाद में उसकी जेब से निकलेगा। आप प्रतियोगिता का क्या खाक करेंगे? वह प्रतियोगिता के ऐसे प्रतिमान गढ़ेगा जिसमें आपकी योग्यता बुद्धिमत्ता से ज्यादा आपका कल्चरल या सोशल बैकग्राउण्ड अहम हो? वह अपने सारे प्रिविलेज को एक जगह इकट्ठा करके उसे बॉयोडाटा या सीवी या पोर्टफोलियो कहेगा?

हो सकता है कि वो आपसे इंटरव्यू बोर्ड में कह दे कि आपने जो टाई पहन रखी है उसे खोलकर दोबारा उसकी नॉट बाँध कर दिखाओ? इस तरह वह पाँच मिनट में आपको अयोग्य साबित कर देगा? आपका आत्मविश्वास तोड़ देगा। वह अक्सर प्रतिभा और योग्यता की बात करेगा लेकिन उसके काम में ये दोनों चीजें देखने को नहीं मिलेंगी। अपनी प्रतिभा साबित करने के लिए वो अपवाद का सहारा लेगा। उन अपवादों का सहारा लेकर वह अपने सभी कुकर्मों पर चादर चढ़ाता रहेगा।

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जब मैं छात्र था तब मैं “प्रतिभा” शब्द पर बहुत मुग्ध रहता था। बातचीत में इसका काफी प्रयोग करता था। जिंदगी ने सिखा दिया कि प्रतिभा इस जातिवादी सामंती समाज में सबसे बड़ा छलावा है। मैं आज भी प्रतिभा में यकीन रखता हूँ। लेकिन जब कोई पाखण्डी प्रतिभा शब्द का प्रयोग करता है तो ठिठक कर देखता हूँ कि वह किस चीज को प्रतिभा बता रहा है? कहीं वह मेरे हाथ का कबूतर अपनी जेब से तो नहीं निकालने वाला है?

मसलन अभी एक मित्र ने किसी सन्दर्भ में कहा कि फलाँ ‘गोल्डमेडलिस्ट’ है। मन तो किया कि उन्हें बताऊँ कि मेरे पास भी दो गोल्डमेडल हैं। अभी कुछ महीने पहले घर शिफ्ट करते समय एक जूते के खाली डिब्बे में धूल में सने मिले। इसलिए मुझे न समझाएँ कि गोल्डमेडल किस प्रतिभा का प्रमाण है। इस पाखण्डी समाज में किसी के गोल्डमेडल पर भरोसा करना या दूसरे को भरोसा दिलाना जालसाजी है। जिसके अन्दर जरा भी बौद्धिक ईमानदारी होगी वह मानेगा कि गोल्डमेडल पाने वाले उनके क्लास के सबसे मेधावी बच्चे नहीं थे। मेधावी बच्चों को गोल्डमेडल मिल भी जाए तो वो वास्तविक या कामकाजी जीवन में ज्यादा काम नहीं आते।

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जब सिस्टम अन्दर से इतना सड़ चुका हो कि आपको गोल्डमेडल या प्रथम श्रेणी में प्रथम जैसे विशेषणों पर यकीन या उपयोग न बचे तो कम से कम इतना लिहाज तो रखना चाहिए कि उनका इस्तेमाल वंचित-शोषित वर्ग के खिलाफ तो न किया जाए। जिन लोगों को अब आरक्षण की वजह से गुणवत्ता की चिन्ता सताती रहती है उन सबसे मेरा यही अनुरोध रहता है कि आप थोड़ा समय निकालकर उन 50 प्रतिशत लोगों की गुणवत्ता की भी चिन्ता कर लीजिए जो खुली प्रतियोगिता में बहुतों को पछाड़कर टॉप 50 में चयनित हुए हैं। अगर आपको नहीं लगता कि वो सब के सब प्रतिभाशाली मेधावी हैं तो फिर आपको क्यों लगता है कि टॉप 50 जो नहीं डिलीवर कर सके वो बॉटम 50 डिलीवर कर देंगे?

अतः आपसे अनुरोध है कि अपने सामाजिक पूर्वाग्रहों से निकलिए। किसी जाति या वर्ग के प्रति कुंठा मत पालिए। आजाद देश में समाज के सभी वर्गों को लेकर चलने के लिए ये प्रावधान बनाये गये हैं। समाज के सभी वर्ग जब तक उन्नति नहीं करेंगे तब तक सही मायनों में सुखी समृद्ध भारत का निर्माण असम्भव है।

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