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सुख-दुख

नाकारा सरकारें और आत्महन्ता किसान

अनेहस शाश्वत

लाख दावों प्रति दावों के बावजूद आज भी भारत की अर्थव्यवस्था की रीढ़ खेती ही है। आधुनिक अर्थव्यस्था में इस स्थिति को पिछड़ेपन का द्योतक मानते हैं। बावजूद इसके अपने देश के किसानों ने देश के अनाज कोठार इस हदतक भर दिये हैं कि अगर तीन साल लगातार देश की खेती बरबाद हो जाये तो भी अनाज की कमी नहीं होगी। गौर करें यह तब जब भारत की आबादी लिखत-पढ़त में 125 करोड़ है यानी वास्तविक आबादी इससे ज्यादा ही होगी।

अनेहस शाश्वत

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लाख दावों प्रति दावों के बावजूद आज भी भारत की अर्थव्यवस्था की रीढ़ खेती ही है। आधुनिक अर्थव्यस्था में इस स्थिति को पिछड़ेपन का द्योतक मानते हैं। बावजूद इसके अपने देश के किसानों ने देश के अनाज कोठार इस हदतक भर दिये हैं कि अगर तीन साल लगातार देश की खेती बरबाद हो जाये तो भी अनाज की कमी नहीं होगी। गौर करें यह तब जब भारत की आबादी लिखत-पढ़त में 125 करोड़ है यानी वास्तविक आबादी इससे ज्यादा ही होगी।

साथ ही गौरतलब यह भी है कि ऐसा करने वाला भारत का किसान लगभग रोजाना स्वतंत्र भारत में आत्महत्या करने के लिए मजबूर है। यही दोनों आंकड़े यह बताने के लिए पर्याप्त हैं कि सदियों पुराने खेतिहर संस्कारों की वजह से किसान आज भी तमाम विपरीत परिस्थितियों के बावजूद भरपूर मात्रा में अनाज पैदा कर रहा है। लेकिन नाकारा सरकारें किसान को मानवोचित गरिमा के अनुरूप जीवन देने में लगातार असमर्थ हो रही हैं जो कि सरकारों का संवैधानिक दायित्व है।

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इस समस्या की जड़ें बहुत गहरी हैं लेकिन अफसोस की बात यह है कि देश के स्वतंत्र होने के बावजूद देश की खेती-किसानी पर उतना ध्यान नहीं दिया गया जितना दिया जाना चाहिए था। वह तो भला हो 1965-66-67 में पड़े अकाल, का जिसने सरकारों को खेती-किसानी पर थोड़ा बहुत ध्यान देने पर मजबूर किया। उस थोड़ी बहुत सरकारी कृपा और अपने सदियों पुराने संस्कारों की मदद से किसानों ने न केवल विशाल आबादी का पेट भरा बल्कि आपातकाल के लिए भी कोठारों में अनाज भर दिया। यह अवधि भी हालांकि थोड़े दिन ही रही, कुल करीब ड़ेढ दशक तक यानी 1965 से 1980 तक।

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1980 का साल भारत में निर्याणक परिवर्तन का साल रहा। इंदिरा गांधी काफी धूम-धड़ाम के साथ फिर से प्रधानमंत्री बनीं। साथ ही उनके नहीं चाहने के बावजूद देश की अर्थव्यवस्था पर पूंजीपतियों व वर्ल्ड बैंक का शिकंजा मजबूत होने लगा। इनकी प्रमुख मांग उद्योगों और उद्योगपतियों को अधिक से अधिक सुविधा देने की थी। दूसरी तरफ आकार ले रहा देश का विशाल मध्यम वर्ग था जिसकी जरूरतों को पूरा करने की सरकार की मजबूरी थी। क्योंकि उस समय सबसे बड़ा और संगठित वोट बैंक वहीं था। जाहिर सी बात है गाज खेती और किसानों पर गिरनी थी और गिरी। बाजार ने किसान को कभी भी उसकी उपज का लाभप्रद मूल्य नहीं दिया। उसकी भरपाई के लिए कृषि उपज को सरकारों ने खरीदना शुरू किया लेकिन इतना ध्यान रखा कि सरकारी खरीद की वजह से मूल्य इतना नहीं हो जाय कि मध्यम वर्ग की रसोई का खर्च उसको खटकने लगे।

आज भी आप चाहे तो खुद ही गणना करके देख लें, एक सामान्य मध्यम वर्ग परिवार की रसोई का खर्च माहवारी 8-10 हजार रुपये से ज्यादा नहीं होता जबकि आमदनी 60 हजार से एक लाख रुपये प्रति माह होती है। बहरहाल किसान इस समस्या से जूझ ही रहा था कि देश में उदारीकरण का दौर शुरू हो गया। इसने किसानों की मुश्किलें और बढ़ा दी। आमदनी बढ़ाने के चक्कर में देश का किसान परम्परागत खेती के साथ ही तमाम नई तकनीकों और बहुराष्ट्रीय कम्पनियों के द्वारा शुरू की गई नई योजनायें अपनाने लगा। जैसा कि अपने देश का रिवाज है, किसानों को नये सिरे से प्रशिक्षित करने के लिए न तो सरकारी एजेंसियां थीं और न ही बहुराष्ट्रीय कम्पनियों  ने प्रशिक्षण में कोई दिलचस्पी ली। वे केवल अपना माल और तकनीक बेचने में व्यस्त रहीं। फलस्वरूप बाजार की विवशताओं और बैंकों के कर्जों की वजह से कई बार किसान को फसल का लागत मूल्य मिलना भी दूभर हो गया। नतीजे में अब आत्महत्या के सिवाय किसान के पास कोई चारा भी नहीं रहा।

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यह सब तो हुआ ही, यह भी हुआ कि भारतीय उद्योगपतियों और सरकारी अमले की  अयोग्यता और धूर्तता के कारण भारतीय अर्थव्यवस्था उद्योगों और सेवा क्षेत्रों में इतने रोजगार पैदा नहीं कर पाई जिसमें बढ़ी हुई कृषि आबादी को समायोजित किया जा सके। इस वजह ने भी खेती पर अतिरिक्त बोझ डाला जो किसानों की आत्महत्या का कारण बना। ऐसा नहीं है कि सरकारे इस वजह को जानती नही है लेकिन जान बूझकर आंखे मूंद रखी हैं क्योंकि उदारीकरण के इस दौर में प्रभुवर्ग के स्वार्थ और अधिकारो में किसी तरह की कटौती नही कर सकतीं। मध्यम वर्ग से सबसे ज्यादा वसूली के बाद अगर इस वर्ग की रसोई का खर्च भी बढ़ गया तो जीत के 30-35 फीसदी वोटों के सहारे सरकार बना पाना किसी भी राजनैतिक दल के लिए मुश्किल होगा।

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अब रह गयी विशाल निर्धन आबादी तो वह तो पहले से ही मनरेगा के हवाले है और वैसे भी यह आबादी फिलहाल राजनैतिक जागरूकता के लिहाज इस हद तक बिखरी हुई है कि कोई भी राजनैतिक दल जिसे राष्ट्रीय स्तर पर सरकार बनानी है इस आबादी पर जोखिम मोल नहीं लेगा। इस आबादी का एक पहलू और भी है, इसके तहत वे अकुशल मजदूर और खेतिहर मजदूर आते है जिनकी समाज में कोई हैसियत नहीं है। यह तो लोकतांत्रिक व्यवस्था की मजबूरी है कि उनका न्यूनतम ध्यान रखा जाये, वही हो रहा है। ऐसे में यह कड़वा सच है कि भारतीय किसान की त्रासदी अभी रुकने वाली नहीं, बल्कि बढ़ने की आशंका ज्यादा है। साथ ही भारतीय राजनीति और अर्थव्यवस्था अब ऐसी जगह जाकर फंस गयी है, जहां उद्योग-धन्धे हैं नहीं, खेती नष्ट हो रही है और सेवा क्षेत्र भी बेहतर नहीं कहा जा सकता। नतीजे में सरकारी आंकड़ों के मुताबिक अकुशल मजदूरों और डिग्रीधारी अप्रशिक्षित बेरोजगारों की भरमार है। ऐसे में सरकारें मर रहे किसानों पर ध्यान देगी, ऐसा लगता तो नहीं, खासतौर से तब जब इस विकराल समस्या से निपटने की कोई इच्छाशक्ति और योजनाएं भी सरकारों के पास नहीं हैं।

लेखक अनेहस शाश्वत सुल्तानपुर के निवासी हैं और उत्तर प्रदेश के वरिष्ठ पत्रकार हैं. मेरठ, बनारस, लखनऊ, सतना समेत कई शहरों में विभिन्न अखबारों में वरिष्ठ पदों पर काम कर चुके हैं.

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