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सियासत

अमेरिका पर भारी रूस, चीन, तुर्की और ईरान का एका

चंद्रभूषण-

भारतीय दूतावास के कर्मचारियों को लेकर वायुसेना के एक जहाज के रातोंरात ईरान के आकाश से होते हुए जामनगर पहुंचने से भारत में आम राय कुछ ऐसी बनी हुई है जैसे काबुल पर तालिबान के कब्जे के बाद वहां मौजूद सारे दूतावास इसी तरह खाली कराए जा रहे होंगे। लेकिन अफगानिस्तान में फौज लगाए बैठे नाटो देशों को छोड़कर बाकी दूतावासों में ज्यादा अफरा-तफरी की सूचना नहीं है। अफगानिस्तान से सटे या उसके नजदीक पड़ने वाले देशों पर नजर डालें तो रूस और चीन के अलावा पाकिस्तान, ईरान, ताजिकिस्तान और उज्बेकिस्तान के दूतावास वहां पहले की ही तरह काम कर रहे हैं जबकि कजाखस्तान ने अपने राजनयिकों और दूतावास कर्मियों की संख्या घटा दी है। नाटो देशों में भी तुर्की ने अपने दूतावास की क्षमता बिल्कुल नहीं घटाई है। तालिबान की ओर से जारी बयान में कहा गया है कि वे सारे दूतावासों की सुरक्षा की गारंटी करेंगे लेकिन इस काम में लगी जो इमारतें पूरी तरह से खाली मिलेंगी उनमें उनके लोग जाएंगे।

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यह एक औपचारिक बयान है और इसके आधार पर यह नतीजा निकालना गलत होगा कि काबुल में राजनयिक गतिविधियां सामान्य हैं और वहां अमन-चैन कायम हो गया है। लेकिन उसी तरह हमें पश्चिमी मीडिया में मची हाय-तौबा को देखकर इस निष्कर्ष पर भी नहीं पहुंचना चाहिए कि अमेरिका, उसके सैन्य-सहयोगी देशों और उसकी कठपुतली सरकार के अफगानिस्तान से निकल जाने से वहां लंबे समय के लिए एक शून्य पैदा हो गया है। अफगानिस्तान में सार्वजनिक महत्व के निर्माण कार्यों में सबसे ज्यादा पूंजी भारत की लगी हुई है लिहाजा पहला मौका देखते ही हमें दोबारा वहां जाने के लिए तैयार रहना चाहिए, और प्रतीकात्मक स्तर का प्रतिनिधित्व अभी की गहमागहमी में भी बनाए रखना चाहिए।

बताया जा रहा है कि अमेरिका और नाटो सहयोगियों द्वारा खाली की गई जगह को फिलहाल चीन और रूस बड़ी तेजी से भरने में जुटे हुए हैं। दरअसल, अफगानिस्तान की भू-राजनीति में पिछले बीस वर्षों में आया यह बदलाव ही तालिबान की सबसे बड़ी ताकत है।तालिबान पहली बार 1996 में सत्ता में आए थे और 2001 तक उसपर काबिज रहे। आपस में लड़ रहे बहुत सारे भ्रष्ट युद्ध सरदारों को हराकर उन्हें सत्ता हासिल हुई थी और इस काम में ढाई हजार आत्मघाती अरबों को साथ लिए ओसामा बिन लादेन का समर्थन भी उन्हें प्राप्त था। बाहर से तब उन्हें टोकने वाला कोई नहीं था और अपने तीन समर्थक देशों पाकिस्तान, सऊदी अरब और संयुक्त अरब अमीरात के जरिये अपनी सत्ता के पहले आधे हिस्से में उन्होंने अमेरिकियों को भी साध रखा था।

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सोवियत फौजें 1989 की शुरुआत में अफगानिस्तान से हटी थीं और इसके कुछ ही समय बाद सोवियत संघ से कम्युनिस्ट सत्ता की विदाई और फिर इस महादेश का विघटन शुरू हो गया था। तालिबान सत्ता के पूरे दौर में रूसी इस लायक भी नहीं थे कि बाकी चौदह गणराज्यों के अलग होने के बाद अपनी सीमा का सटीक निर्धारण करके उसपर चौकियां बिठा सकें। चीन की सक्रियता तब अपने सागर तटीय पूर्वी इलाकों तक सीमित थी। अफगानिस्तान में उसकी भूमिका एक बयान जारी करने की ही हो सकती थी। इस अलगाव के चलते ही वहां 2001 में अमेरिका घुसा भी तो अलकायदा से निपटने के लिए। लेकिन बीते बीस वर्षों में अफगानिस्तान की स्थिति दुनिया के पिछवाड़े जैसी नहीं रह गई है। इस खित्ते में सबसे बड़ा बदलाव रूस की हैसियत में आया है।

चेचेन बगावत से सालोंसाल लड़कर उसे नेस्तनाबूद कर देने के बाद रूस न तो अफगानिस्तान को उसके हाल पर छोड़ सकता है, न ही उसके करीब पड़ने वाले चारों मुस्लिम बहुल पूर्व सोवियत गणराज्यों ताजिकिस्तान, उज्बेकिस्तान, तुर्कमेनिस्तान और कजाखिस्तान को। चीन की तरह उसके लिए इन इलाकों का महत्व कारोबारी किस्म का नहीं है। यह उसकी एकता-अखंडता और संप्रभुता से जुड़ा मामला है। लिहाजा रूस के लिए दोनों बातें जरूरी रही हैं। एक तो अमेरिका और बाकी नाटो देश अफगानिस्तान से उठकर जाएं। दूसरे, वहां ऐसा शून्य भी स्थापित न होने पाए कि अंतरराष्ट्रीय आतंकवाद को फिर से खाद-पानी मिलने लगे। यही कारण है कि 32 साल पहले रूस की फौजें जिन ताकतों से पिटकर निकली थीं, हाल में उन्हीं को अफगानिस्तान के भविष्य निर्धारण के लिए वह बार-बार अपने यहां बिठाता रहा।

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अगला मसला चीन का है, जिसकी अफगानिस्तान को लेकर कुछ चिंता उइगुर बगावत के साथ भी जुड़ी है। उसके शिनच्यांग प्रांत में ईस्टर्न तुर्किस्तान इस्लामिक मूवमेंट (ईटीआईएम) लगभग उतनी ही बड़ी समस्या है, जितनी रूस के लिए कुछ समय पहले तक चेचेन विद्रोह हुआ करता था। अभी अमेरिका से उसकी बातचीत इसी मुद्दे पर चल रही है कि अफगानिस्तान में संगठित सत्ता के ढह जाने का फायदा ईटीआईएम को नहीं मिलना चाहिए। अभी महीना भर पहले तक अमेरिका, कनाडा और यूरोप का सारा फोकस चीन में मानवाधिकारों के हनन पर ही था। शिनच्यांग का फोर्स्ड लेबर और वहां के लोगों की धार्मिक स्वतंत्रता पश्चिमी दुनिया के लिए सबसे बड़ी बनी हुई थी। लेकिन अफगानिस्तान में चीन के संभावित दखल का पैमाना अलग है और यह इतिहास-भूगोल में अपने ढंग का अकेला है।

तालिबान को सबसे ज्यादा आसरा भी चीन का ही है क्योंकि अभी अमेरिकी पहल पर सारे खाते बंद हो जाने के बाद सरकार चलाने के लिए नकदी उसे चीन से ही मिल पाएगी। तालिबान पर अंतरराष्ट्रीय आर्थिक प्रतिबंध पहले से लगे हुए हैं। काफी संभावना है कि अब वे तालिबानी नियंत्रण में चलने वाली सरकारी संस्थाओं पर भी लागू हो जाएंगे। यह सत्तारूढ़ तालिबान के रवैये पर निर्भर करता है कि कुछ देश खुद को इन प्रतिबंधों से अलग कर लेते हैं या नहीं। लेकिन जिस तरह की हलचलें अभी काबुल स्थित चीनी दूतावास में दिख रही हैं, उनसे ऐसा लग रहा है कि अफगानिस्तान की नई सरकार के साथ इंफ्रास्ट्रक्चर और खदानों से जुड़े सौदों को लेकर चीन की बातचीत जल्द ही शुरू हो जाएगी।

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इससे पाकिस्तान में चीन-पाकिस्तान इकनॉमिक कॉरिडोर पूरा होने की उम्मीद भी जगेगी, जो कुछ समय पहले वहां चीनी इंजीनियरों की बस पर हुए जानलेवा हमले से खटाई में पड़ता दिख रहा है। अफगानिस्तान पर काबिज तमाम साम्राज्यों ने वहां के प्राकृतिक संसाधनों के विकास का काम कभी नहीं किया। चीनी यह काम कर देंगे और अफगान इसपर राजी हो जाएंगे, यह खुद में एक चमत्कार ही कहलाएगा। एक तीसरा बदलाव अफगानिस्तान की भू-राजनीति में यह हुआ है कि उसके इर्दगिर्द एक सऊदी अरब-यूएई विरोधी इस्लामी जागरण की राजनीति चल रही है, जिसके बारे में खुलकर बातचीत कम होती है। इसका दूसरा पहलू अमेरिका विरोध का है, पर इसके कुछ भागीदारों की पूंछ अमेरिका के एहसानों तले दबी है, लिहाजा वे इस बारे में चुप्पी साधे रहते हैं।

इस जागरण की धुरी पहले ईरान था, जो तालिबानियों को फूटी आंख नहीं देखना चाहता था। लेकिन इस बार तालिबान ने अपनी शिया विरोध की धुरी को नरम बनाने की कोशिश की है। अफगानिस्तान में शियाओं पर कई भीषण हमले पिछले दो-तीन वर्षों में हुए हैं लेकिन उन्हें आईएसआईएस द्वारा किया गया बताया जा रहा है, जिसके तालिबान से भी टकराव के रिश्ते हैं। ईरान के साथ कतर, तुर्की और पाकिस्तान को मिलाकर यह सऊदी विरोधी-अमेरिका विरोधी गोलबंदी पूरी होती है। कतर एक छोटा सा देश भले ही हो लेकिन उसके पास अलजजीरा जैसा बड़ा मीडिया हाउस है और एक अर्से से तालिबान का इंटरनेशनल ऑफिस वहीं से संचालित हो रहा है।

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इसे एक संयोग ही कहेंगे कि रूस और चीन, उनके पीछे चारों इस्लामिक पूर्व सोवियत गणराज्यों और तुर्की-ईरान-कतर-पाकिस्तान में हित और रुख का एक साझा सा बना हुआ है। यह स्थिति तालिबान के लिए मुफीद है और अगले एक-दो महीनों में कोई बड़ा उत्पात उन्होंने नहीं मचाया तो अमेरिका के लिए उन्हें उतना अलग-थलग कर पाना शायद संभव न हो पाए, जितने की धमकी वह हाल-हाल तक उन्हें देता रहा है। पाकिस्तानी पत्रकार हामिद मीर का यह कहना बिल्कुल सही है कि तालिबान सिर्फ तालिबान है। नया-पुराना नहीं, अच्छा-बुरा नहीं। कुरान के अक्षर पकड़कर चलने वाला एक कट्टरपंथी संगठन। उससे किसी वास्तविक बहुलता या उदारता की उम्मीद करना बेकार है। लेकिन हफ्ते-दस दिन के अंदर अगर वह इतने बड़े देश पर कब्जा कर सकता है और खरबों डॉलर लगाकर खड़ी की गई सरकार के मुखिया को हेलिकॉप्टर में भूसे की तरह डॉलर भरकर भागने को मजबूर कर सकता है, तो बाकी दुनिया उसपर यथासंभव दबाव बनाकर उसके नजरिये और कामकाज में बदलाव आने का इंतजार करने के सिवा और कर ही क्या सकती है?

इस बुरी परिस्थिति में भारत के लिए एक ही अच्छी बात यह है कि तालिबानी शासन वाले अफगानिस्तान में उसके पुराने मित्र देश रूस की हर हाल में अहम भूमिका होनी तय है। उसको मध्यस्थ बनाकर सबसे पहले तो यह सुनिश्चित किया जाए कि सिर्फ बयान में नहीं, हकीकत में भी अफगानिस्तान की धरती का इस्तेमाल भारत विरोधी कृत्यों के लिए नहीं किया जाएगा। इसके आगे अरबों डॉलर लगाकर भारत द्वारा अफगानिस्तान और ईरान में खड़े किए गए इन्फ्रास्ट्रक्चर के सर्वश्रेष्ठ उपयोग का सवाल है। चाबहार बंदरगाह को ईरान-अफगानिस्तान के सीमावर्ती कस्बे जाहिदान से जोड़ने का सबसे ज्यादा फायदा अफगानिस्तान को ही होना है। आखिर कौन समझदार व्यक्ति नहीं चाहेगा कि समुद्र तक उसके देश की पहुंच एक के बजाय दो देशों से हो। मध्य एशियाई देशों के लिए भी भारत का बनाया यह ढांचा बड़े काम का है। लिहाजा शुरुआती झटका गुजर जाने के बाद इस दिशा में बातचीत को पटरी पर लाने के लिए हमें भी अपनी कोशिशें तेज करनी चाहिए।

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