Shashi Bhooshan : एक तस्वीर जिसे देखते देखते आँख भर आई हैं। यह प्रेम की तस्वीर है श्रद्धा से भरी हुई। इस तस्वीर की अवस्था में वही पहुँचता है जिसने रेडियो को जिया हो। जो माईक को सीने में जगह देता हो। जिसके ख़ून में यह एहसास भरा हो कि उस पार अदृश्य अनगिनत कान और दिल-दिमाग़ हैं।
आकशवाणी के स्टूडियो में कुछ साल कंसोल के साथ रहा हूँ। आज भी आकाशवाणी में घुसते ही स्टूडियो की गंध नथुनों में सबसे पहले घुसती है। कुछ पल के लिए आँखे मुँद जाती हैं। समय घूम घूमकर अपने गहरे जल में खींचता है।
रेडियो पर कोई गाना सुनता हूँ तो स्टूडियो याद आता है। कैसे, किन हालात में इसे बजाया था। स्टूडियो से सुनने का विगत जीवन जी उठता है। इस भूमिका से भी मैं समझ सकता हूँ राजेश जी पर क्या बीती होगी। कैसा लगा होगा जब स्टूडियो से आख़िरी बार जाते पलटकर देखा होगा। इस तस्वीर के साथ जब मेरा गला रुँधता है जो केवल श्रोता रहा बीबीसी का तो उन पर क्या गुजरी होगी जो इससे जुड़े रहे होंगे।
मन कहता है यह प्रेम भरी तस्वीर है। बिछोह का मस्तक नत चित्र। मां बाप गुरु को छोड़कर वह प्रेमी क्या जिसका प्रेम श्रद्धेय भी न हो, भले मशीन हो। निः शब्द हूँ। समझ रहा हूँ जो बीत गया वह नहीं लौटेगा। लेकिन जो अतीत हो चुका है वह कभी दिल से नहीं गुजरेगा नहीं मिटेगा यही कसक है। महेंद्र कपूर की आवाज़ का गाना ही याद आता है, ‘बीते हुए लम्हों की कसक साथ तो होगी… ख्वाबों में हो सही मुलाक़ात तो होगी …।’
पत्रकार और साहित्यकार शशि भूषण की एफबी वॉल से.
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