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सियासत

भाजपा ऐसा जिन्न है जिसकी जान चुनावी जीत-हार में बसती है!

कृष्ण कांत-

जनता से कहा जा रहा था कि पेट्रोल और डीजल के दाम अंतरराष्ट्रीय बाजार तय करता है। सरकार इसमें कुछ नहीं कर सकती। बेतहाशा दाम बढ़ रहे थे, महंगाई बढ़ रही थी, हर राज्य में हाहाकार की स्थिति थी। सरकार कान में तेल डालकर आराम से वसूली कर रही थी।

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फिर उपचुनाव हुए। जनता ने भाजपा के दो मुख्यमंत्रियों का किला ढहा दिया। जहां कोई उम्मीद नहीं थी, वहां भी भाजपा चारों खाने चित्त हो गई। भाजपा के ही ​बड़े नेताओं ने इस हार के लिए केंद्र सरकार की लूट को जिम्मेदार ठहराया। अकल ठिकाने आ गई।

इस हार के बाद फर्जी फकीर को लगा कि वसूली कम करनी पड़ेगी, वरना सियासी फकीरी चली जाएगी। रिजल्ट आने के अगले दिन से ही दाम बढ़ने बंद हो गए। यहां तक कि चुनावी राज्यों में तेल कीमतें घटाने जैसा “बड़ा ​त्याग” भी किया गया, जैसे कि इनके जेब से जा रहा हो।

वह दिन और आज का दिन। अंतरराष्ट्रीय बाजार में तेल की कीमतें बढ़ने के बावजूद देश में पेट्रोल डीजल कीमतें नहीं बढ़ रही हैं। यह चुनाव और हार के डर की महिमा है। इसके साथ यह साबित हो गया है कि जब देश पर महामारी का संकट था, तब ये ठगों का गिरोह देश की जनता से झूठ बोल रहा था कि तेल का दाम अंतरराष्ट्रीय बाजार तय करता है और संकट के समय लगभग 22 लाख करोड़ से अधिक वसूली की गई।

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यह यकीन करना मुश्किल था कि इस देश की सरकार बाजार के आगे लाचार है। दाम कल भी सरकार तय कर रही थी। आज भी सरकार तय कर रही है। यह लुटेरों का गिरोह संकट के समय जनता से वसूली कर रहा था जो अब भी कर रहा है, झूठ यह कल भी बोल रहा था और आज भी बोल रहा है।

कथा का सबक: भाजपा ऐसा जिन्न है जिसकी जान चुनावी जीत-हार में बसती है। बाकी तो आप सब समझदार हइये हैं।

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हेमंत कुमार झा-

आप हिंदुत्व की ‘पुनर्प्रतिष्ठा’ और रोजगार सृजन पर एक साथ ध्यान केंद्रित कर ही नहीं सकते क्योंकि जिन राजनीतिक शक्तियों ने हिंदुत्व को मुद्दा बना कर अपना राजनीतिक अभियान आगे बढ़ाया है उनके आर्थिक चिंतन की दरिद्रता बीते वर्षों में खुल कर सामने आ चुकी है।

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बेरोजगारी से जूझने के लिये जिस आर्थिक विजन की जरूरत है वह इस सरकार के पास है ही नहीं। हो भी नहीं सकती। भारतीय जनता पार्टी, प्रकारान्तर से राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ को उसकी परिभाषाओं के अनुसार सांस्कृतिक संस्कारों में पगा भारत चाहिये जबकि कारपोरेट को इस देश की तमाम सार्वजनिक सम्पत्तियों पर कब्जा चाहिए। संघ का कोई आर्थिक एजेंडा नहीं जबकि कारपोरेट का कोई सांस्कृतिक एजेंडा नहीं। संघ को इससे अधिक मतलब नहीं कि इस देश के रेलवे, बैंक, आयुध निर्माण इकाइयों सहित तमाम सार्वजनिक संस्थान सरकारी नियंत्रण में रहें या निजी संपत्तियों में तब्दील हो जाएं, जबकि कारपोरेट को इससे कोई लेना-देना नहीं कि इस देश की पारंपरिक विविधता पूरी गरिमा के साथ कायम रहे या यहां की तमाम दरो-दीवारें एक रंग में रंगी नजर आने लगें। दोनों ने आपसी सहकार को एक दूसरे के लिये उपयोगी माना और साथ आगे बढ़े।

तो…दोनों की जुगलबंदी से जो नया भारत आकार ले रहा है उसमें भयभीत कर देने वाला सांस्कृतिक कोलाहल है तो साथ में भयानक रूप से बढ़ती बेरोजगारी भी है, विशिष्ट और संकुचित किस्म के राष्ट्रवाद की शोशेबाजी है तो अनाप-शनाप तरीके से कुछ खास निजी हाथों में बेची जा रहीं सार्वजनिक सम्पत्तियों की लंबी फेहरिस्त भी है। कहने को घटती-बढ़ती विकास दर की भरमाने वाली कहानियां हैं लेकिन अब यह साबित हो चुका है कि जिस कारपोरेट केंद्रित विकास प्रक्रिया को इस देश के नीति नियंताओं ने अपनाया है वह रोजगार सृजन के मामले में बांझ है। अर्थशास्त्री जिसे 'जॉबलेस ग्रोथ' कहते हैं। यानी, विकास की ऐसी धारा, जो शीर्ष कारपोरेट प्रभुओं की बरक्कत को किसी परीकथा जैसी बना दे और मध्य वर्ग टैक्सों के बोझ से दबता जाए, निम्न वर्ग झोला लिये फ्री नमक-आटा की लाइन में लगने को अपने लिये बड़ी उपलब्धि मानता रहे। संघ के सांस्कृतिक अभियान और कारपोरेट के आर्थिक अभियान को बेरोकटोक आगे बढ़ाते रहने के लिये जिस राजनीतिक ऊर्जा की जरूरत थी उसके लिये 'प्रोपेगेंडा पॉलिटिक्स' बेहद कारगर हथियार साबित हुआ। इस प्रोपेगेंडा पॉलिटिक्स ने आर्थिक उदारवाद की अनैतिक संतानों के रूप में जन्मे और खाए-मुटियाए नव धनाढ्य वर्ग को अपना प्रथम प्रवक्ता बनाया, आत्मकेंद्रित उपभोक्ता के रूप में तब्दील होते मध्यवर्ग में पसरती विचारहीनता को प्रोत्साहित कर उन्हें अपना मुखर समर्थक बनाया जबकि जातीय ठेकेदारों को लोभ और भय से काबू में करके निचले आर्थिक तबकों का राजनीतिक समर्थन हासिल किया। बीता दशक इस जुगलबंदी के निर्विघ्न सफरनामे के नाम रहा है और फिलहाल कोई कारण नजर नहीं आ रहा कि इसके सामने कोई प्रभावी अवरोध खड़ा हो सके। संघ अपने बृहत्तर सांस्कृतिक उद्देश्यों को हासिल कर सकेगा इसमें गहरे सन्देह हैं। चाहे कितने ही कोलाहल मचा लो, कितने ही छद्म रच लो, कितनी ही भ्रांतियां पसार लो, न इतिहास को बदला जा सकता है न उसके निहितार्थों को। हजारों वर्षों से विकसित होती संस्कृति की प्रवहमान धारा ने जिन द्वीपों और किनारों का निर्माण किया है, जितनी विविधताओं के सुंदर-असुंदर आख्यान रचे हैं उन्हें किसी खास कालखण्ड में पनपी सत्ता-कारपोरेट की दुरभिसन्धि हमेशा के लिये अप्रासंगिक बना ही नहीं सकती। समय के साथ ये दुरभिसंधियाँ खुद ब खुद अप्रासंगिक हो जाएंगी। अधिक वक्त नहीं लगेगा और काल का प्रवाह इस जुगलबंदी को अपने साथ बहा ले जाएगा। किसी देश या समाज के इतिहास में दस-बीस-पच्चीस वर्षों के कालखण्ड की अहमियत ही कितनी होगी। अंधेरों का यह दौर इतिहास के कुछेक पन्नों में सिमट कर रह जाने वाला है। अभिशप्त होंगी वे पीढियां जो इस दौर से होकर गुजरेंगी। वे इस अभिशाप को आने वाली पीढ़ियों के लिये विरासत के रूप में सौंप कर जाएंगी।

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जो पीढियां अपने राजनीतिक दौर पर हावी नकारात्मक और शोषक प्रवृत्तियों का प्रतिरोध नहीं कर अपनी विचारहीनता से उन्हें खाद-पानी मुहैया कराती हैं वे अपनी आने वाली पीढ़ियों को अभिशप्त विरासत ही सौंप कर जाती हैं। दशकों का रिकार्ड तोड़ती बेरोजगारी से जूझते नौजवान जब नौकरी के मुद्दे पर सड़कों पर उतर कर आक्रोश व्यक्त करते हैं और सत्ता के अनुचर लाठियों और बंदूकों के कुंदों से उनकी हड्डियां तोड़ देते हैं तो यह उन नौजवानों के बाप-चाचाओं की पीढ़ी की विचारहीन राजनीतिक प्राथमिकताओं का स्वाभाविक निष्कर्ष ही है जो अभिशाप बन कर उन पर टूटा है।

ये नौजवान जानते हैं कि नौकरियों से जुड़ा स्थायित्व और सम्मान उनसे छीना जा रहा है, उन्हें पता है कि उनके लिये सरकारी नौकरियों के अवसर निरन्तर संकुचित किये जा रहे हैं क्योंकि प्रभावी होती जा रही कारपोरेट संस्कृति की यही मांग है, वे जानते हैं कि प्राइवेट नौकरियों में उनके आर्थिक-मानसिक शोषण के नए-नए प्रावधान जोड़े जा रहे हैं लेकिन तब भी, वे अपने पिताओं और चाचाओं की पीढ़ी से विरासत में प्राप्त वैचारिक दरिद्रता को बड़े ही शौक से ओढ़ने को व्यग्र हैं। अस्पतालों में भर्त्ती घायल नौजवानों में से अधिकतर के मोबाइल और सोशल मीडिया एकाउंट इस अफ़सोसनाक सच्चाई की गवाही देंगे।यह इस दौर का दारुण सच है और फिलहाल तो इस सच के साथ ही सबको जीना है। किसी एक राज्य या कुछ राज्यों के चुनावों में हार-जीत किसी बड़ी उम्मीद की ओर संकेत नहीं करती। जिन्हें वर्षों सत्ता में रहने के बावजूद अर्थव्यवस्था सम्भालने का शऊर नहीं आया वे चुनाव जीतने के लिये तमाम प्रोपेगेंडा रचने में माहिर हैं।

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जिस दिन शिक्षा के लिये, नौकरियों के लिये सड़कों पर हड्डियां तुड़वा रहा नौजवानों का विशाल तबका अपने पिताओं और चाचाओं से विरासत में प्राप्त विचारहीनता के फंदे को खुद के गले से उतार लेगा, जिस दिन उनमें प्रोपेगेंडा पॉलिटिक्स को नकारने का राजनीतिक विवेक विकसित होने लगेगा उस दिन से देश की राजनीति भी खुद को बदलने के लिये विवश होने लगेगी। तब तक...एक एक कर रेलवे, हवाई अड्डे, बैंक, शिक्षण संस्थान सहित बड़ी-बड़ी नवरत्न कंपनियां आदि आदि बिकती रहेंगी, बिकती जाएंगी। कोई पूछने वाला नहीं रहेगा कि कितने में बिकी, न पूछने पर कोई बताने वाला रहेगा। स्थायी की जगह कांट्रेक्ट की नौकरियों का बोलबाला बढ़ता जाएगा, श्रमिकों के श्रम और निर्धनों के सपनों को रौंदने का सिलसिला तेज, और तेज होता जाएगा। शोषण के खिलाफ आवाज उठाने पर अचानक से नौकरी से निकाला गया कोई कांट्रेक्ट कर्मचारी, सड़क पर पुलिस की मार खाया नौकरी मांगता कोई बेरोजगार नौजवान, महंगी हो चुकी शिक्षा के कारण कैम्पस में दाखिला से वंचित कोई मेधावी निर्धन छात्र उन छद्म गर्वों की अनुभूतियों से खुद को आश्वस्त कर सकता है जो सत्ता उनके लिए गढ़ती रहती है। अभी हाल में प्रधानमंत्री ने वक्तव्य दिया है कि उनकी सरकार देश भर में नए गौरव स्थलों के निर्माण को प्राथमिकता दे रही है। बेरोजगारी के दिनों में किसी निजी प्लेटफार्म पर जा कर किसी निजी ट्रेन के द्वारा इन गौरव स्थलों की यात्रा की जा सकती है और अपनी उस "सांस्कृतिक और धार्मिक पहचान" पर गर्व किया जा सकता है जिस पर प्रधानमंत्री के ही शब्दों में, "अब तक बात करने में संकोच किया जाता रहा है।"

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