वेद रत्न शुक्ला-
‘दलित दस्तक’ के सम्पादक अशोक भाई को शुभकामना पहुंचे। वह एक फेलोशिप के तहत स्कैंडिनेवियाई देश ‘स्वीडन’ जा रहे हैं। इससे पहले भी वह दो दफे विभिन्न सेमिनार्स में विदेश बुलाए जा चुके हैं। वह विदेश गए या जा रहे हैं महत्व इसका नहीं है, महत्व इसका है कि भारत स्वतंत्र हो चुका है और यहां ‘दलित दस्तक’ पत्रिका निकालने वाले अशोकजी विदेशों में बुलाए जा रहे हैं और जा भी रहे हैं। यह एक प्रकार का एडवांटेज भी है।
मैं अलीगढ़ में एक अखबार के लिए टीम सहित गया था। तभी आईआईएमसीएन अशोकजी भी आए थे। काम उस समय कुछ था नहीं, सिर्फ भ्रमण ही काम था। परिक्रमण याकि चक्रमण। रात में किसी होटल में खाना खाते वक्त (सभी साथी थे) मैंने पूछा कि आपका नाम अब तक मैं जान न पाया? उन्होंने बताया कि अशोक कुमार त्यागी। लहजे से वह बिहारी थे तो मेरा पूछना स्वाभाविक था कि बिहार में ‘त्यागी’। उन्होंने तुरंत बताया कि मैं दलित हूं। मैं काफी शर्मिंदा हुआ कि क्यों ‘त्यागी’ पर गया। पर असर यह हुआ कि “यह बंदा कुछ खास है”। खैर, हम सब साथी एक साथ फिर धीरे-धीरे सब अपनी सुविधानुसार अलग रहने लगे।
अशोकजी एक बहुमंजिली इमारत में रहने लगे। जहां चढ़ते-चढ़ते मेरा टेंप्रेचर तो जरूर कुछ बढ़ा। वहां लिफ्ट नहीं थी। फिर मैं चैनल में चला गया। उसी दौरान मुम्बई में ठाकरे की कंपनी बिहारियों के साथ दुर्व्यवहार कर रही थी। अशोकजी ने अखबार से छुट्टी लेकर एक यात्रा निकाली उसी के विरोध में। परिणाम वही हुआ जो होना था। ठीक उसी समय श्रीयुत् यशवन्त सिंह ‘भड़ास’ ब्लॉग शुरू किए थे। वहीं अशोकजी जुड़ गए जो जब तक वेबसाइट में बदल गया था। फिर हमारी और अशोकजी की भेंट हो गई। एक चाय की टपरी पर उन्होंने पुकारा बाबा! यशवन्त सिंह और अशोकजी जा रहे थे कार से और मैं चाय पी रहा था। फिर रफ्ता-रफ्ता बात बढ़ी और सारी कहानी यहां समेट ली जाए यह संभव नहीं है।
बहरहाल, यशवन्त सिंह ने उनको और उनकी निष्ठा को देखते हुए महाराष्ट्र बेस्ड एक हिन्दी अखबार में काम दिला दिया। फिर नवाचार तो यशवन्त सिंह कर ही रहे थे तो अशोकजी को सलाह दिए कि इस लाइन पर काम करो। साहसी अशोकजी ने वह काम किया और सफल हुए। उनको शुभकामना पहुंचे फिर से।