: इंतजार का सिलसिला कब तक…. : दूर दराज के इलाकों से पत्रकार बनने का सपना लिए दिल्ली पहुंचने वाले नौजवान अपने दिल में बड़े अरमान लेकर आते हैं। उन्हे लगता है कि जैसे ही किसी न्यूज चैनल में एन्ट्री मिली तो उनका स्टार बनने का ख्वाब पूरा हो जाएगा. लेकिन जैसे ही पाला हकीकत की कठोर जमीन पर होता है वैसे ही सारे सपने धराशायी होते नजर आते हैं. अभी चंद रोज पहले मेरे पत्रकार मित्र से बात हुई तो पता चला कि उनके संस्थान में पिछले चार महीने से तनख्वाह नहीं दी गई है। हैरानी की बात ये है कि फिर भी लोग बिना किसी परेशानी के न केवल रोज दफ्तर आते हैं बल्कि अपने हिस्से का काम करते हैं। जब बात सैलरी की होती है तो मिलता है केवल आश्वासन या फिर अगली तारीख.
दिल्ली की मीडिया इंडस्ट्री में ऐसे कई छोटे मोटे खबरिया चैनल है जो खुद को सच दिखाने का दावा करते हैं कि लेकिन उनके संस्थान की सच्चाई केवल वही लोग जानते हैं जो हर रोज पत्रकार होने का दर्द भोग रहे हैं। सवाल ये है कि गुनाह किसका है ? उन पूंजीपतियों का का जिन्होने न्यूज चैनल तो खोल लिया लेकिन तनख्वाह देने की क्षमता नहीं है या फिर उन पत्रकारों का जो चार महीने से सैलरी न मिलने के बावजूद याचक की मुद्रा में हैं। वे कहते तो अपने आप को पत्रकार हैं। लेकिन विरोध करना नहीं चाहते। सवाल ये है कि जो अपना हक हासिल नहीं कर पाते वे दूसरों का हक क्या दिला पाएंगे। ऐसा नहीं ये सवाल उनके दिल में नहीं उठता होगा. लेकिन हर बार मन मसोसकर रह जाते हैं। अगर इसी तरीके से चलता रहा तो वे दूसरों के साथ इंसाफ तो दूर की बात है वे खुद का भला भी नहीं कर पाएंगे। जाहिर हैं, कभी न कभी तो वो वक्त आएगा जब उन्हे फैसला लेना होगा. लेकिन वो वक्त कब आएगा इसी का इंजतार सबको है. कहीं ऐसा न हो जाए कि इंतजार करते करते इतनी देर हो जाए कि जिंदगी की गाड़ी पीछे छूट जाए.
कमल दूबे
स्वतंत्र पत्रकार
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