दयानंद पांडेय
आज के जमाने में सिद्धांतों और आदर्शों पर चलना हर किसी के वश की बात नहीं। इंसान जीवन के आदर्शों को अपने स्वार्थ की खातिर भेंट चढ़ा देता है, कभी विवशता से और कभी स्वेच्छा से। दयानंद जी के इस उपन्यास ‘वे जो हारे हुए ‘ में राजनीति में उलझे या ना उलझे लोगों का ऐसा जखीरा है जिस में इंसान किसी और इंसान की कीमत ना आंकते हुए दिन ब दिन अमानवीय होता जा रहा है।
सांप्रदायिकता और जातिवाद की बढ़ती जड़ें देश की नीव कमजोर करती हैं। इंसान सारी ज़िंदगी तनाव में जीता रहता है और राजनीतिक गतिविधियां कभी-कभी लोगों के जीवन को उजाड़ तक देती है जैसा कि दयानंद जी के एक और उपन्यास ‘हारमोनियम के हजार टुकड़े’ में भी देखा जा सकता है। इस उपन्यास ‘वे जो हारे हुए’ में मुख्य भूमिका आनंद निभाता है जो कभी राजनीति में रह चुका है। पर उस के अपने आदर्श और सिद्धांत राजनीति से जब टकराए तो वह प्राइवेट कंपनी में काम करने लगा। कालेज के दिनों में छात्र संघ में शामिल हो कर उस में राजनीति के बीज पनपने लगे थे किंतु उस के अपने आदर्श थे। वो गांधीवाद की साफ सुथरी राजनीति का सपना देखता था। कालेज और यूनिवर्सिटी के दिनों में ही राजनीति तमाम लोगों की सांस में घुलने लगती है। वह कालेज में छात्र संघ में होने से युवा समाजवादी छात्रों के उकसाने पर अनशन में भी भाग लेता है। लेकिन जहां अनशन करने वाले अन्य छात्र चुरा कर खाना खाते हैं वहीं आनंद की दृढता उसे उपवास ना तोड़ने पर बाध्य करती है। वह भूखे रह कर अपना आत्मसंकल्प पूरा करता है। पर भूखे प्यासे जब घर जाता है तो जैसा कि अकसर ही होता है कि पढ़ने वाले बच्चों के मां-बाप उन से राजनीति व अन्य ऊल-जलूल बातों से दूर रहने को कहते हैं वही आनंद के पिता ने किया। अपने पिता से वाहवाही की जगह इतनी डांट फटकार मिलती है कि वह उलटे पैरों वापस घर छोड़ देता है। आनंद जैसे नौसिखिए कालेज की राजनीति में पड़ कर धीरे-धीरे पक्के खिलाड़ी बन जाते हैं। और बाद में पढ़ाई पूरी करने के बाद भी राजनीतिक लफड़ों में पड़े रहते हैं। पर इस दुनिया में सिद्धांतों को कायम रखने वाले कम और तोड़ने वाले तमाम होते हैं। कुछ लोग हार कर कम्प्रोमाइज भी कर लेते हैं। पर आनंद न ही सिद्धांतों को तोड़ना चाहता है और न ही उन से समझौता कर पाता है। अगर समझौता किया तो वह अपने जीवन में खुश नहीं रह पाएगा और अगर न किया तो बात-बात में राजनीति को ले कर लोगों की गलतफहमियों का शिकार होना पड़ेगा।
अजीब कशमकश है वो सहकारिता, लोकहित और समाज सेवा के सपने को देश में साकार होते हुए देखना चाहता है। कालेज के दिनों से ही पिता के आगे पैसे के लिए हाथ फैलाना उसे नागवार लगता था। उसे एक जाने पहचाने और उम्र में कुछ बड़े दोस्त मुन्नवर भाई की मेहरबानी से कुछ ट्यूशन मिल जाती हैं और पढ़ाई के दिनों का सफर पूरा करता है। जीवन की लड़ाई लड़ते हुए किसी बड़े पद पर पहुंच जाता है। पर बाद में अपने सिद्धांतों की खातिर राजनीति की घुटन से बाहर निकल कर कारपोरेट की नौकरी में ही अपनी भलाई व संतोष करना ठीक समझता है। और एक दिन अचानक उस के बचपन की दोस्त सादिया से मुलाक़ात होती है। उसे आनंद की सहायता की ज़रूरत पड़ती है क्यों कि हर जगह उस के पुराने दिनों का रुतबा होने से तमाम जगह लोग उसे जानते हैं और उन पर उस का प्रभाव भी रहता है। सादिया की नन्ही बेटी का शरीर जला हुआ है और उस के इलाज के वास्ते जब अपने पति मुनव्वर के साथ आनंद के शहर आती है तो डाक्टर आदि को जल्दी से दिखाने के लिए वे लोग आनंद का सहारा लेते हैं। और आनंद अपने बचपन की दोस्त सादिया के साथ बचपन का ज़माना याद करने लगता है और साथ में मुनव्वर भाई के तमाम अहसान भी। वह तुरंत अपना कर्तव्य निभाने के लिए सब काम-धाम भूल कर उन की परेशानियों और उलझनों में शरीक हो जाता है। खाने, पैसे और हर प्रकार की मदद के लिए भागदौड़ करते हुए आनंद और मुनव्वर के बीच राजनीति की बातें होती रहती हैं जिन में कुछ बिरोधाभास की झलक मिलती है। मुनव्वर भाई की सांस-सांस में राजनीति बसी हुई है। और आनंद का भी जैसे खाना नहीं पचता बिना राजनीति की बातें किए हुए। और ऐसे लोग मुसीबत के समय भी राजनीतिक बातों से अपने को अलग नहीं रख पाते। सद्दाम हुसैन की मौत के बारे में जब बात छिड़ती है तो मुनव्वर भाई उस की मौत पर सहानुभूति दिखाते हैं और अमरीका के साथ व अन्य 35 देशों को दोषी ठहराते हुए अपनी बातों में सांप्रदायिकता का पुट देने लगते हैं। इन दोनों के दिमाग में राजनीति इस बुरी तरह घुसी हुई है कि हर बात को मौका पाते ही राजनीति से जोड़ लेते हैं। जब आनंद को पता चला कि मुनव्वर की बेटी खौलते पानी से जली है तो तुरंत उस के दिमाग में राजनीति का पहलू आ गया और मुनव्वर से बोला, ”कहीं हम लोग भी तो इस राजनीति में, इस समाज में चलना सीख लेने की सज़ा ही तो नहीं भुगत रहे? ठुमक-ठुमक कर चले और खोखले सिस्टम के खौलते पानी वाले टब में बैठ कर जल गए। जल कर अनफिट हो गए। इतने कि अब हाशिए की राजनीति के काबिल भी नहीं रह गए। इतना कि अब परिचय बताने पर भी लोग पहचानते नहीं। पहचानते हुए भी अपरिचित हो जाते हैं लोग।” देश के सिस्टम में, लोगों के दिमागी सिस्टम में राजनीति का कीड़ा इस तरह घुसा हुआ है कि वो हर समय उन्हें कचोटता रहता है। और अस्पतालों का सिस्टम भी इतना बिगड़ा हुआ है कि इन में इमरजेंसी के केस में भी हर डिपार्टमेंट में सुस्ती का माहौल दिखाई देता है। एक बार में कोई बात ढंग से पता नहीं चलती। इस रवैये का कारण है लोगों की भ्रष्ट मानसिकता। पैसे के लिए भ्रष्टाचार का राक्षस हर इंसान के अंदर मौजूद दिखता है। मुंह से साफ-साफ पैसा मांगने की बजाय वहां कुछ लोग कागजी काम करने में ढीलढाल या टालमटोल करते रहते हैं। फिर जब देखते हैं कि इस तरह नहीं मिलने वाला पैसा तो बड़ी चतुराई से मुंह से उगल ही देते हैं। आनंद इन सभी बातों से झूझता हुआ अपनी भूख-प्यास सब छोड़ कर उन लोगों के लिए लगातार भागदौङ करता है पर फिर भी कोई डाक्टर उस बच्ची को ना बचा सका। वो बच्ची मौत का शिकार हो जाती है। फिर उस की मौत के बाद भी भ्रष्टाचार व अमानवीयता का खेल जारी रहता है। लाशों को ले कर मेडिकल संस्थाओं का सिस्टम कितना भयावह हो चुका है इस का कच्चा चिटठा दयानंद जी ने उपन्यास में जिस तरह प्रस्तुत किया है उसे पढ कर मन कांप उठता है। जल कर मरने के बाद उस बच्ची के शरीर की लेथन होने लगती है। वो अस्पताल के लोगों के लिये कूड़ा समान हो जाती है। वहां तो रोज ही ऐसी घटनाएं घटित होती हैं पर मरने वाले से कोई रिश्ता ना होने पर क्या दिल इतने कठोर हो जाते हैं? मरने वाले के रिश्तेदार के लिए यह सब देखना कितना मुश्किल होता है। फिर लाश के पोस्मार्टम करने की बात उठती है तो उस में भी कितनी झंझट होती है। कोई कुछ कहता है कोई कुछ। पोस्टमार्टम जहां होना है वहां लाश ले जाने पर मेडिकल सर्टिफिकेट मांगा जाता है। और जिस के हाथ भेजा जाता है सर्टिफिकेट उस के अलग नखरे। वो काम करने में देर लगाता है। इंसान की इंसानियत कितनी मर रही है। अगर उसे पैसे पकड़ा दिए होते तो वह फटाफट काम कर देता। मानवीय मूल्यों और किसी की परेशानी से ऐसे लोगों को कोई मतलब नहीं होता। छोटे से लेकर बड़ा कर्मचारी तक चाहें अस्पताल हो या आफिस पैसे की रिश्वत लेने में जुटा है। कोई साफ-साफ बेशर्मी से मांगता है। और कोई बिन मांगे शालीनता से लेना चाहता है। वरना लोगों का काम हिलगा रहता है। और वो लोग उन से लगातार चक्कर कटवाते रहते हैं। आनंद को इतने लोग जानते थे उस पर भी मुनव्वर मियां के साथ बच्ची की लाश की कागजी कार्यवाही के बारे में एक जगह से दूसरी जगह न जाने कितने चक्कर उन लोगों को काटने पड़े। सारा सिस्टम ही कितना लापरवाह और भ्रष्ट है। और सबसे पहली लापरवाही तो मुनव्वर के शहर के नर्सिंग होम वालों ने की थी जब उन्होंने ये नहीं बताया कि मुनव्वर और सादिया की बेटी कितनी अधिक जली हुई है। वहां उस का इलाज नामुमकिन था किंतु फिर नर्सिंग होम वाले पैसे बनाने के चक्कर में बच्ची के घर वालों से झूठ बोलते रहे। पैसे के लालच में किसी की ज़िंदगी से खेलने में भी लोग नहीं हिचकते. उसे एक हफ्ते तक वहां रखे रहे और जब बताया तब तक केस और बिगड़ चुका था। उस के बाद उन्हों ने दिल्ली के अस्पताल जहां बिगड़े हुए बर्न केस लिए जाते हैं वहां के लिए ना कह कर लखनऊ ले जाने को कहा। वो छोटी सी बच्ची शायद मरने से बच जाती अगर उसे समय पर वहां के अस्पताल में ले जाया जाता। खैर, अब उस नन्हे से बेजान शरीर की चीड़-फाड़ होनी है। और पोस्टमार्टम आदि के कागजात तैयार करवाने के लिए , फिर उस का पोस्टमार्टम होने के लिए सब जगह रिश्बतखोरों की भीड़ लगी है। और उस की वजह से देर होती रहती है। आनंद की जान पहचान होने से व उस की घुड़कियों से लोग सहमे हुए हैं तो रिश्बत तो नहीं देनी पड़ती पर सब कागजी कार्यवाही होने में देर ज़रूर लग जाती है। और अब इंसान की हैवानियत देखिये जहां एक लाश ला कर थमाने वाला भी पैसे के लिए हाथ बढाता है। जीवन में इस तरह की बातें देख व सहकर इंसान पस्त होता रहता है। और तभी शायद कुछ लोग हार कर खुद के उसूलों को बदल लिया करते हैं।
लेकिन इंसान पत्थर दिल होता जा रहा है, उस के लिए मानवीय मूल्यों की मान्यता मर रही है या फिर वो खुद उसे मार रहा है। इंसान ही इंसान की अब कदर नहीं करता। उस के संस्कार और आदर्श सब मर रहे हैं। और जब आनंद उस मुसलमान बच्ची के अंतिम संस्कार में कुछ मुसलमान दोस्तों को बुलाना चाहता है। तो यहां भी दिक्कत होती है। यानि एक ही धर्म में शिया और सुन्नी का भेदभाव होता है। क्या अलग-अलग वर्ग होने से अलग-अलग स्वर्ग भी बन जाते हैं? मौत होने के बाद भी शिया और सुन्नी होने की झंझट। क्या इंसान के मरने के बाद भी उस का शिया या सुन्नी होना ज़रूरी है? उस लाश को जैसे लोग इधर-उधर धकेल रहे हों। इंसानों की एक ही दुनिया में पैदा होने पर भी ये धर्म, जाति और सांप्रदायिकता के झगड़े इंसान के जीवन का चैन छीन लेते हैं। यहां हर इंसान आनंद जैसे अच्छे उसूलों वाला नहीं होता जिसने भ्रष्ट राजनीति का साथ देने की वजाय और जगह नौकरी कर ली ताकि उस की नैतिकता का पतन ना हो। किंतु दूसरी तरफ मुनव्वर जैसे लोग हैं जो जीवन में तमाम कड़वाहट सहने के बाद खीझ जाते हैं और अपने सिद्धांतों, मूल्यों, उसूलों और आदर्शों को त्याग कर या उन का गला घोंट कर अपनी लीक बदल देते हैं। वो अपनी लियाकत और सादगी के लिए जाने जाते थे और अपने चुने हुये आदर्शों और नैतिकता के रास्ते पर ही चलते थे। बिना स्वार्थ या लालच के दूसरों के बुरे दिनों में काम आना उन की आदत थी। बाद में वह बेटी के मरने के पहले ही वह बदलने लगे थे किंतु उस की मौत के बाद वो और कठोर हो गए। उन के आदर्शों और सिद्धांतों की नीव खोखली पड़ने लगी। दुनिया की हरकतें सहते-सहते मुनव्वर मियां अंदर से टूट से गए और नर्सिंग होम वालों को बेटी की मौत का ज़िम्मेदार ठहराते हुए उन पर केस कर देते हैं। उन के जैसे लोग जमाल के जैसे शातिर तो नहीं होते पर जिंदगी की हार में कुछ समय के लिए अपने सिद्धांतों के स्तर से नीचे आ जाते हैं। जैसे मुनव्वर मियां का कहना, ”एक गलती और हो गई कि डाक्टर या दाई को ही पैसे दे कर बेटी को ले लिए होते। या फिर पोस्टमार्टम हाउस में ही किसी दलाल को पकड़ कर मामला रफा-दफा करवा लिए होते।” आनंद ने उन्हें उन के आदर्शों की याद दिलाई तो मुनव्वर मिया का जबाब होता है, ”आइडियालाजी ने, नैतिकता और मूल्यों ने मेरा इतना नुकसान किया है कि क्या बताऊं ? साली जवानी गारत हो गई। ना इस ओर रहा, ना उस ओर। शुरू ही से जो बेशर्म, भ्रष्ट और बेगैरत रहा होता तो जिंदगी में इतनी असुविधा, इतनी किल्लत, इतनी जिल्लत ना उठानी पड़ती।” वह बोले, ”आप जानते हैं कि अगर आइडियालाजी, नैतिकता, मूल्य जैसे खोखले शब्दों की आमद मेरी जिंदगी में नहीं हुई होती तो मैं भी एक कामयाब नेता होता आज की तारीख में। और जो मैं कामयाब नेता होता तो आज जो यह मेरी बेटी मरी है न, नहीं मरी होती।” वह आनंद की ओर मुड़ कर बोले, ‘बोलिए मरी होती? आप ही बताइए ?” आए दिन ही इंसान कितने वादों पर विवाद करता रहता है लेकिन अपने लिए वही रास्ता अपनाता है जो उसे माफिक आए। उस समय उन की आइडियालाजी आड़े नहीं आती। पर यही लोग दूसरों की आलोचना करने से पीछे नहीं रहते। राजनीति सब के जीवन में कैसे-कैसे ताना-बाना बुनती है जिसके दांव-पेंच में फंस कर आम आदमी अकसर बेकार हो जाता है। जो इस उपन्यास से साफ प्रतीत होता है। लेकिन आनंद जैसे लोग जो अपने सिद्धांतों को बेचना नहीं चाहते वह उन पर अटल रह कर अकसर जिंदगी की कशमकश में पड़ जाते हैं फिर भी अपने आदर्शों की लीक नहीं छोड़ते। जब बातों के बीच आनंद के पर्सनल लाइफ के खर्चों की बात मुनव्वर मियां ने की तो उस के जबाब में आनंद का कहना होता है, ”हां मुनव्वर भाई, राजनीति छोड़ कर नौकरी की ही इसी लिए कि आइडियालाजी, मूल्य, नैतिकता को तिलांजलि दिए बिना या कहूं कि बिना पतन के परिवार की जिम्मेदारियां पूरी कर सकूं।” आनंद मुनव्वर को बरसों से जानता है और ये भी कि उन्हों ने बरसों अपने मूल्यों, सिद्धांतों व आदर्शों का साथ निभाया है। और अगर वो कभी डिगते भी हैं तो किन्हीं परिस्थितियों के कारण। समाज में जमाल जैसे जहरीले सांप मुनव्वर मियां जैसे लोगों का फायदा उठा कर उन्हें सीढ़ी बना कर ऊपर चढ़ जाते हैं और बाद में काम निकलते ही मौका पा कर उन्हें डस लेते हैं। कभी उन के पद के आड़े आ जाते हैं तो कभी उन की चुगली खा कर उन का विरोध करते हैं। लेकिन खुद के गिरहबान में नहीं झांकते। और सर झुका कर समझौतावादी राजनीति को अपना लेते हैं। बात अपनी-अपनी समझ की है।
जमाल जैसे कुछ जातिवादी मुसलमान सिर्फ़ मुसलमानों का नेता बन कर उन का ही भला सोचते हैं। पर मुनव्वर जैसे लोग सारे समाज और देश के लोगों का नेता बन कर उन सभी लोगों का भला चाहते हैं। लेकिन सिद्धांतों को व्यवहार में बदलने की बात राकेश प्रताप और आनंद जैसे लोग ही कहते हैं। राकेश जैसे उच्च शिक्षा ग्रहण किया इंसान कहीं भी बड़े पद पर काम कर सकता था पर उसे लगता है कि राजनीति में पढ़े लिखे लोगों का होना ज़रूरी है। लेकिन लोकसभा में होने पर भी उस के सिद्धांत आनंद की तरह हैं। वह पाखंड और भ्रष्टाचार से दूर रहता है। वह भी आनंद की तरह देश में साफ सुथरी राजनीति के सपने देखता है। लेकिन मुनव्वर जैसे लोगों की आपबीती उन्हें बदलने को मजबूर कर देती है और उन के आदर्श और मानवीय मूल्य धुंधले हो जाते हैं। अच्छी राजनीति की बातें सिर्फ़ ड्राइंगरूम में बैठ कर करने से कोई फायदा नहीं, बाहर निकल कर उन सिद्धांतों व उसूलों पर अमल करने से समाज को अच्छा बनाने में होती है। खाली बातें करने से कुछ नहीं होता। आनंद के जाने पहचाने लोगों के साथ अमानवीय बातें हो रही हैं। हैवानियत और बेइंसाफी की भयानक लपटों में आनंद भी घिर जाता है। ससुराल में जल कर मरने वाली एक बेटी का पिता भी आनंद की सहायता मांगता है। पर जिस तरह मुनव्वर की बेटी नहीं बची उसी तरह इस पिता की शादी-शुदा बेटी, जो ससुराल में जली है, मर जाती है। ससुराल वालों पर शक होने पर भी ये बूढ़ा असहाय पिता कायर है जिसने अपना मुंह बंद रख कर और बेटी के जलने की असलियत जानने के बाद भी पुलिस में शिकायत नहीं लिखवाई। पर मुनव्वर जैसे हिम्मती लोग चुप नहीं बैठते जिस की बेटी नर्सिंग होम की लापरवाही से सही इलाज में देर होने से मर गई। उन्हों ने अपनी चीख-पुकार से पच्चीस लाख न सही पांच लाख रुपए तो अपनी बेटी के मरने का मुआवजा नर्सिंग होम से ले ही लिया। अब इसे सिद्धांतों का गला घोंटना कहिए या हारे हुए एक इंसान का आक्रोश। वरना मुनव्वर मियां ऐसे तो नहीं थे। उन की बेटी तो अब वापस नहीं आ सकती पर इस तरह के नर्सिंग होम वालों के लिये ये एक सबक है ताकि आगे से किसी भी सीरियस केस आने पर पैसे बनाने के लालच में किसी को गुमराह ना करें। इस समाज में एक ही नहीं सभी के रंग बदल रहे हैं। औरतों को ले कर खुले आम निर्लज्जता, पत्रिकाओं में उनके शरीरों की नग्नता, खुलेतौर पर सेक्सुआलिटी की बातें, सब कुछ बहुत फास्ट हो रहा है। और एक तरफ तो जातिवाद है पर दूसरी तरफ चुनाव के समय जब वोटों का समय जब आता है तब उम्मीदवार को मुसलमानों व दलित के हाथों को चूमने में या साथ खाने-पीने में तनिक भी आपत्ति नहीं होती। तो फिर ये जाति और धर्म ढोंग नहीं तो क्या हैं? यही तो गंदी राजनीति है। गांधीवाद ध्वस्त हो गया, हिंसा और आतंकवाद देश को लील रहा है। राजनीतिज्ञों के सिद्धांत आपस में टकराते हैं, लंबी बहसें होती हैं। आनंद एक लंबे समय तक राजनीति में रहा है और राजनीति छोड़ने के बाद भी लोगों में उस की धाक है। अकसर राजनीति पर लोगों से उस की बहस होती रहती हैं। अपने सिद्धांतों को तोड़ कर जीने की बजाय उस ने अपने को उस तरफ से मुक्त कर लिया पर अब भी अकसर जाने पहचाने लोगों से राजनीतिक बहसों में उलझ जाता हैl हर कोई अपने सिद्धांतों का झंडा गाड़ना चाहता है। हर पार्टी में जातिवाद और सांप्रदायिकता घुसी हुई है।
आनंद देश में बढ़ती माफियागिरी, गुंडई और स्मगलिंग के लिए फ़िल्मों को दोषी बताता है। और इस के लिए स्क्रिप्टराइटर और ऐक्टर को जिम्मेदार ठहराता है जिन से जनता प्रभावित रहती है। कोई चाहे इंजिनियर हो या मंत्री हर कोई अपने से बड़ी पहुंच वाले को सीढ़ी बना कर और ऊंचे पहुंच जाना चाहता है। किसी को प्रमोशन चाहिए और किसी को प्रचार चाहे झूठ बोल कर या एक दूसरे का गला काट कर। सब को अपनी-अपनी पड़ी रहती है इस दुनिया में। लोगों में संवेदनहीनता बढ़ती जा रही है। ना दोस्ती ना परिवार कुछ भी अर्थ नहीं रखता ऐसे लोगों के लिए। तमाम राजनीतिज्ञ लोग अपनी फ्रीडम एन्जॉय करने को अपने बीवी बच्चों को अपने से दूर दूसरे शहर में रहते हैं. आनंद का एक पुराना दोस्त भी ऐसा ही है। ऐसे लोग रिश्वत और भ्रष्टाचार की दुनिया में लिप्त होते हैं। जो पैसा और ऊंचा पद दोनों हासिल कर के मौज लूटते हैं। इन के लिए पैसा और पद ही इन की ताकत हैं। फिर चाहे ऐसे इंसान कम पढ़े-लिखे ही क्यों ना हों पर उन के गुणगान गाने वालों की फ़ौज खड़ी रहती है। लोग-बाग ऐसे लोगों की बुराई उन की पीठ के पीछे किया करते हैं। यहां-वहां हुई कितनी ही वारदातें आनंद के इर्द-गिर्द घूमती रहती हैं। हर कोई उस के प्रभाव का अपनी बिगड़ी बात बनाने के लिए इस्तेमाल करना चाहता है। उसने तो राजनीति छोड़ दी पर उस के चारों तरफ जीवन में राजनीति से जुड़े लोगों की भरमार है। उस के पुराने राजनीतिक साथी जिन्हों ने सिद्धांतों को कायम रखने के लिए जीने-मरने की कसमे खाई थीं वो सभी लोभ में बदल रहे हैं ”मुनव्वर भाई का यह बदलना, उनके उसूलों और आदर्शों को फांसी वगैरह सिर्फ मुनव्वर भाई के स्तर पर ही नहीं हो रहा था। आनंद देख रहा था कि समूचा समाज ही आदर्शों-उसूलों को फांसी दे रहा था। पहले जो लोग गुंडों-माफियाओं का विरोध भले नहीं करते थे पर अब उन के साथ रहने में गुरेज तो करते ही थे। एक विभाजन रेखा तो रखते ही थे। कम से कम उन के समर्थन में तो नहीं ही रहते थे। पर अब वही लोग गुंडों-माफियाओं से दूरी रखने की बजाय उन के साथ अपना नाम बड़े फख्र के साथ जोड़ने लगे थे। उन के साथ सट कर, छाती फुला कर फोटो खिंचवाने लगे थे, चौतरफा आलम यही था। रिश्वतखोरों को पहले लोग नफ़रत की नज़र से देखते थे। पर अब वही रिश्वतखोरी उन की योग्यता बन चली थी।”
केवल एक वही था जो राजनीति के बाहर आ कर अपने आदर्शों के साथ दृढ़ता से चिपका हुआ था। उस के जीवन में कितने ही लोगों की दर्दनाक कहानियां हैं। जिन में वह लोगों की सहायता करने में उलझ जाता है। कभी बचपन के सुखई चाचा हैं जिन का पोता कासिम आतंकवाद का दोष लगने से पुलिस के हाथों मारा जाता है। कभी कोई पेंशन पाने वाला वृद्ध अपने परिवार वालों की कुत्सित राजनीति का शिकार होता है। तो कभी ससुराल में जलाई गई बेटी का कायर बाप है जो न्याय नहीं मांगना चाहता क्यों कि अब बेटी तो लौट कर आ नहीं सकती। इस लिए वह कोई बखेड़ा नहीं करना चाहता। और भी पता नहीं कितने लोग व बातें हैं जो आनंद को फुर्सत के क्षणों में भी जीने नहीं देते। साथ में उस की अपनी परेशानियां और झंझटें हैं जो उस के सिद्धांतों से टकराती रहती हैं। उस का फ्रस्ट्रेशन उसे फिर सोचने पर विवश करता है कि जिंदगी की ऊब में कहीं उस का अहंकार तो नहीं छिपा है जिस ने उसे मुख्यधारा की राजनीति से अलग किया। या कहीं पत्नी और बच्चों के मारे तो उस ने नहीं छोड़ रखी राजनीति। मन में तमाम मंथन होने के बाद उसे सोचना पड़ता है कि कोई भी राजनीतिक पार्टी जातिवाद, सांप्रदायिकता , गुंडागर्दी और माफिया से फ्री नहीं है। तो फिर ऐसे वातावरण में उस के आदर्शों की क्या कीमत? पर उसे अपने सिद्धांत उस शान-शौकत की दुनिया से अधिक प्यारे हैं जो उसे राजनीति में रहते हुए मिल सकती थी। उस जैसे कुछ लोग जिन्होंने जे पी आंदोलन में भाग लिया था वह पुराने समाजवादी दोस्त राजनीति में आ कर अपनी विचारधारा बदल बैठे और जीवन की हर सुविधाओं का मज़ा ले रहे हैं। और इस लिए वो लोग आनंद को सनकी समझते हैं कि वह भी राजनीति अपना कर मजे में रह सकता था। उस के मिनिस्टर दोस्त उसे साइकियाट्रिस्ट के पास जाने की सलाह देते हैं। लेकिन आनंद को राजनीति की उस पाखंडी और भ्रष्ट दुनिया के बारे में सोच कर ही घुटन होती है।
कभी मित्रों में, कभी परिचितों में, कभी अकेले में और कभी काफी हाउस में बैठे हुए वह राजनीतिक बातों में फंसा रहता है। सिगरेट के कशों में अपनी व दूसरों की उलझनें सुलझाने का उपाय खोजता रहता है. और टेंशन उस का पीछा नहीं छोडती। औरों का दर्द महसूस करना, देखना और उस में घुटना उस के जीवन का हिस्सा बन गए हैं। यहां तक कि देश में होने वाले हिंसक कार्य व नई पीढ़ी की बदलती विचारधारा के लिए सेमिनार में आए हुए जावेद अख्तर से भी बहस कर बैठता है। उन की लिखी फिल्में शोले, दीवार और जंजीर आदि को दोषी ठहराता है। साफ सुथरी राजनीति का सपना लिए हुए आनंद ना तो लोगों की विचारधारा बदलने में समर्थ है और ना ही घर पर पत्नी से अपने सवाल का जवाब पाने में। क्यों कि वो उसे शराब के नशे में समझ कर उस की बातों का जवाब देती है। और आनंद तब अपने को गौतम बुद्ध सा महसूस करने लगता है कि क्या वह पत्नी और बच्चों सब को त्याग कर कहीं विलुप्त हो जाए , पर कहां ? राजनीति तो छोड़ दी अब क्या पत्नी बच्चों को भी छोड़ना होगा? राजनीति में सक्रिय ना होते हुए भी राजनीति ही उस के जीवन का ववाल बनी हुई है। लोगों के हृदय कितने कलुषित होते हैं कि उन की शराफ़त व नफ़ासत के पीछे कुत्सित भावनाएं पलती रहती हैं। इस बेरहम दुनिया में गरीबों की कोई बिसात नहीं। यहां पूंजीपति और गरीबों की लड़ाई चलती रहती है। भूख, गरीबी, शोषण, नस्ल, जातिवाद, भ्रष्टाचार और राजनीतिज्ञों की लोलुपता आनंद से सहन नहीं होती। पर वह मजबूर और हताश हो कर ये सब देखता रहता है। उस से राजनीति का विकृत रूप सहन नहीं होता। न जाने कितने और सवाल उस के दिमाग में मंथन करते रहते हैं, कभी उस के अपने जीवन व परिवार से संबंधित, कभी देश-समाज को ले कर। इन सब सवालों का जवाब पाने को वह जिमखाना का सहारा लेता है शराब पीते हुए , कॉफी हाउस में सिगरेट के कश खींचता रहता है या मित्रों के ड्राइंगरूम में बातचीत करते हुए राजनीति के सवालों से सताया जाता है। इस से उस के मानसिक संतुलन पर असर पड़ता है। ऐसे में कभी कोई गाना उसे याद आ जाता है जैसे ‘राधा कैसे ना जले’ या कोई उसे अपने जीवन से संबंधित कोई बात बताता है तो आनंद उस से अपनी तुलना करने लगता है कि कहीं वो भी तो वैसा नहीं। कभी अपने को गौतम बुद्ध, कभी राधा, कभी विदुर जो उस की तरह ही सत्ता व्यवस्था के आगे नहीं झुके थे। वो अपने बारे में न जाने क्या-क्या सोच कर अपना दिमाग खराब करता रहता है। ये उस की संवेदनशीलता है अपने व देश-समाज के लिए जो उसे ऐसा करने को मजबूर करती है। पर लोग उस की बातों व हरकतों से उसे सनकी समझ बैठते हैं। उस के सिद्धांत उसे किसी जाने पहचाने के प्रति होती नाइंसाफी के विरुद्ध उकसाते रहते हैं। वह पारिवारिक और सामाजिक समस्यायों के हल खोजने में लगा रहता है। और जितना हो सकता है लोगों की हेल्प करना अपना कर्तव्य समझता है। उस ने खुद तो राजनीति छोड़ दी लेकिन लोग उस का इस्तेमाल करना नहीं छोड़ते। लोग उस की कुछ ऊंचे पद के लोगों तक की पहुंच का फ़ायदा उठाना चाहते हैं। और जब वह ऐसा करने से मना करता है तो वह लोग उस से मुंह फेरने लगते हैं। जाने-पहचाने लोगों में से या फिर कोई दूर का भी इंसान भी उस के पास अपने प्रमोशन के लिए मंत्रियों आदि से सिफारिश करवाने आता रहता है। लेकिन आनंद किसी के लिए अन्याय के विरुद्ध तो लड़ सकता है पर इस तरह के लोगों की सहायता करने से उसे सख्त नफरत है। उस का मन ऊहा-पोह में पड़ जाता है। अपने उपन्यासों में दयानंद जी ने ना केवल देश व समाज की राजनीति का विकृत रूप दिखाया है बल्कि परिवारों की चारदीवारी के अंदर फैली घिनौनी राजनीति तक का उल्लेख किया है। जहां पेंशन पाने वाला वृद्ध भी अपने घर वालों की चालों से परेशान है. और उसे भी आनंद जैसे लोगों की सहायता की ज़रूरत पड़ती है। और जब से दलितों को आरक्षण मिला है वह भी आंख दिखाने लगे हैं। उन्हें स्कूल कालेज के दाखिलों में, सर्विस विभाग में, संसद में हर जगह प्राथमिकता मिलने लगी है। उन की तरफ से कोई गलती हो तो उसे अधिकतर अनदेखा कर दिया जाता है।
सरकार ने उन्हें जो आरक्षण दिया हुआ है तो उस का नाज़ायज़ फ़ायदा उठाने में ये दलित भी कोई कसर नहीं छोड़ते। और उधर पूंजीपति गरीब का खून चूसने में लगे है। राजनीति की होड़ में हर जगह तोड़-फोड़ हो रही है। चाहें किसी की भावनाएं हों, सिद्धांत हों, या घर, देश या समाज हो। सरकारों के रूप बदल रहे हैं पर उन के सिद्धांत नहीं। हर सरकारी महकमे में भ्रष्टाचार फैला हुआ है। विकराल रूप धारण करती हुई राजनीति की बातें सहन कर पाना या लोगों की अपेक्षाओं को पूरा ना कर पाना आनंद से सहन नहीं होता। कभी कोई इंजिनियर तो कभी कोई और जो मंत्रियों को रिश्वत दे कर या उन की सिफ़ारिश से अनैतिक कार्यों में उस का सहारा मांगते हैं। और ऐसे कामों से उसे चिढ़ है। जिस तरह का प्रमोशन होता है उसी तरह से धूर्त मंत्रियों की रिश्वत की मांग के रेट भी लगते हैं। अगर कोई न्याय पाने को सहायता मांगता है तो उस की मदद करने में आनंद को कोई गुरेज नहीं। देश में इतने लोग नौकरियों से निकाले जा रहे हैं। और जो काम कर रहे हैं उन के बीच तनख्वाह की इतनी बड़ी दरार है कि किसी को हज़ारों ही मिल पाते हैं और किसी को लाखों मिलते हैं। देश में ये कैसी बेढब आर्थिक व्यवस्था है? और ये शिक्षा व्यवस्था भी कैसी है? एक तरफ तो शिक्षालय में अंग्रेजी भी सीखनी ज़रूरी है किंतु फिर भी अंग्रेजी के विरुद्ध नारे लगते रहते हैं। देश में हर जगह व्यवस्थाओं के विभिन्न रूप फैले हैं। क्या ठीक है क्या नहीं इसे सोचना लोगों के लिये सिरदर्द बनता जा रहा है। जिसे जो माफिक आता है वही करता है। केवल आनंद जैसे लोग ही सोच-सोच कर परेशान होते रहते हैं। किंतु अब उस का मन कारपोरेट की नौकरी में भी नहीं लगता। लेकिन उसे अपने सिद्धांत तोड़ कर राजनीति से समझौता करना गवारा नहीं। हर तरफ से उस का मन उखड़ा सा रहता है। चेयरमैन बॉस भी अपनी कंपनी के प्रोडक्ट के प्रमोशन के लिए आनंद का सहारा लेना चाहता है। सब की ही उस से अपेक्षाएं हैं और उन्हें पूरा करने में उस के सिद्धांतों का अवमूल्यन होता है। उसे इतनी टेंशन महसूस होती है कि अब वह शांति पाने के लिए गांव में जा कर खेती-बाड़ी करने की सोचता है। लेकिन शहर की तो छोड़ो अब तो उस के में भी माफियागिरी और भ्रष्टाचार फैल रहा था। उस का गांव अब पहले जैसा नहीं रहा जैसा कि उस को वहां जा कर अपने पिता से हालात पता लगते हैं। सीधे-साधे लोगों की सोच अब लालच, स्वार्थ और शातिरपने में बदल चुकी होती है। जहां ग्राम प्रधान से ले कर ज़मीन पर पट्टा लिखवाने वाले लोगों में बेईमानी हो रही हो तो वहां उस के सिद्धांतों की क्या कदर होगी? महंत और प्रधान सभी चालू हैं। ब्राह्मणवाद और ठाकुरवाद आदि के विवादों से गांव ग्रस्त है। महंत और तिवारी पैसे की लोलुपता में भ्रष्ट हो चुके हैं। और दलित लोग भी सर उठा रहे हैं। रहीम की मौत पर गवाही ना देने के लिए उस के परिवारवालों का मुंह दबंग लोग पैसे से बंद कर देते हैं। नई पीढ़ी के कम पढ़े-लिखे बेरोजगार युवा गुंडे मुसलमानों की हेल्प करने वाले आनंद व उस के परिवार के लिए ख़तरा बन सकते हैं। और उस के साफ सुथरे सिद्धांत वहां उस के ही लिए समस्या खड़ी कर सकते हैं। गांवों के वातावरण में माफियापन का खौफ छाया हुआ है। सो अब नौकरी छोड़ कर गांव में भी आनंद का गुज़ारा होना मुश्किल है। जिस गांव में हिंदू मुस्लिम एक दूसरे के दुख दर्द में आ कर साथ देते थे, जहां मोहर्रम और दीवाली दोनों को पूरा गांव मिलकर मनाता था वहां अब हिंदू मुसलामानों के बीच दरार पड़ने लगी। अब मुसलमान होना भी गुनाह है हर मुसलमान को शक की निगाह से देखा जाता है। क्यों कि आतंकवाद का नाम मुसलमानों से जुड़ गया है और इस लिए हर मुसलमान शक के घेरे में आ जाता है भले ही वह निर्दोष हो। गांव के सुखई चाचा जैसे फ़रिश्ते इंसान को वह बचपन से जानता है और उन्हें अब मुसीबत में आनंद की हेल्प की ज़रूरत होती है। उन के पोते कासिम पर आतंकी होने का दोष लगता है और उस का पुलिस से मुठभेड़ होने का डर है। वह उस में मारा जा सकता है। पर आनंद जातिवाद से तमाम दूर है। मुनव्वर और सादिया के यहां खाना खाने या सुखई चाचा को अपने घर में रखने में उसे कोई सोच विचार नहीं करना पड़ता। किसी जान-पहचाने की मदद करने को वह हमेशा तैयार रहता है। राजनितिक पार्टियों में आपसी तनाव और जलवायु प्रदूषण जैसी बातें भी आनंद का मानसिक तनाव बढाती हैं। किसी न किसी तरह राजनीतिक प्रतिक्रियाएं देश की समस्यायों के लिए जिम्मेवार हैं। दलित वर्ग को प्रोत्साहन मिलना, मुसलमानों को आतंक वादी कहना, निर्दोष मुसलमान किसी मुसीबत में फंस कर एनकाउंटर होने के डर से सहायता ढूंढ़ता फिरता है। लगता है कि आनंद राजनीतिक कार्यकर्ता ना होने पर भी हर किसी मुसीबत के मारे की सहायता करने को तैयार है। उस के जीवन में भी समस्याएं हैं, लेकिन उन्हें ताक पर रख कर सब की सहायता करने को तत्पर रहने में उसे एक सुख की अनुभूति मिलती है। अपने सिद्धांतों पर अडिग रह कर लोगों की समस्यायों को अपना सामाजिक कर्तव्य समझ कर सुलझाने वाले आनंद जैसे देवदूत इस दुनिया में अगर हों तो देश का कायापलट ही हो जाए। गांधीवाद पर तमाचा पड़ने की बजाय देश में शांति, अहिंसा और भाईचारा विकसित हो सकता है। लोक हित के लिए सिर्फ़ भाषणों से ही काम नहीं चलता। पानी, बिजली की कमी, प्रदूषण, बाज़ारवाद आदि कितने मसले हैं जिन पर सब का ध्यान जाना चाहिए। मंजिल तय करने को मिल-जुल कर काफिला बनाना होता है। तब समस्याएं सुलझती हैं। एक तरफ तो आनंद राजनीति से बहुत दूर निकल आया है फिर भी उस पर इस का भूत चढ़ा हुआ है। हर मसले और समस्या के बारे में बात करते हुए वह राजनीति का उल्लेख करने लगता है। यहां तक कि प्रदूषित पानी की तुलना भी वह गंदी राजनीति से करने लगता है। कोई भी बात हो उस की आदत उसे राजनीति से जोड़ कर सोचने की है। उपन्यास में आते-जाते कितने पात्रों के बीच आनंद ही ऐसा केंद्र बिंदु है जो हर जगह मौजूद है। और सब के लिए आग में कूद पड़ने को तैयार रहता है। सब की भलाई के लिए संघर्षों से जूझता रहता है। छात्र-संघ दिनों वाला जज्बा तो नहीं रहा उस में पर अब भी लोकहित की समस्यायों में उलझने का जज्बा बरकरार है। सत्ता में लोगों का वीभत्स खेल देश को कैसे खा रहा है उसे रोकने के उपाय में ही वह सेमीनार, काफी हाउस और राजनीतिक मित्रों के यहां चक्कर लगाता रहता है। उस के लेक्चर सुन कर लोग कई बार उसे उकसाते भी हैं कि वह राजनीति में क्यों नहीं दोबारा आ जाता। मित्रों से काफी हाउस या गोष्ठियों में मिलने पर बातों-बातों में फ़िल्मों, स्पोर्ट, अभिनेताओं और मीडिया आदि पर कीचड़ उछाला जाता है उस से पता लगता है कि इन सब का असली चेहरा क्या है। बाहर से कुछ और अंदर से कुछ और। सब लोग देश की नीतियों और कुरीतियों से कुढ़ कर मन की भड़ास आपस में निकालते रहते हैं। उन के समाधान खोजने के लिए केवल बातें ही हो कर रह जाती हैं। आनंद के भरसक प्रयास के बाद भी पुलिस के एनकाउंटर में कासिम मारा जाता है और गांव में बदलाव आ जाता है। एक हिंदू अगर मुसलमान को अपने घर में शरण देता है तो हिंदू समाज उस हिंदू का दुश्मन हो जाता है।
”धर्म के नाम पर, बस्तियां लुट जाती हैं
सरहदें बंट जाती हैं, हस्तियां मिट जाती हैं।”
सालों पहले एक दूसरे के त्योहारों में खुशी जताने वाले यही हिंदू मुस्लिम अब एक दूसरे के प्रति घृणा भाव मन में पैदा कर बैठे। गांव में धर्म को ले कर स्थिति इतनी भयावह हो चुकी है कि अब कोई भी वहां अपने को सुरक्षित नहीं समझता। अखबार वाले पैसे ले कर नैतिक-अनैतिक सभी प्रकार की खबरें छापते रहते हैं। अगर एक हिंदू किसी मुस्लिम के प्रति अन्याय के खिलाफ बोलता है या उस के लिये न्याय चाहता है तो वह हिंदुओं का दुश्मन हो जाता है। आनंद भी ये सब करता रहता है पर तब लोग सोचते हैं और उम्मीद करने लगते हैं कि वह किसी इलेक्शन के चक्कर में है और लोगों की निगाहों में उठ कर उन से वोटों की आशा रखता है। उसे ऐसे लोगों की सोच और उन की बातों से चिढ़ हो जाती है। और उन्हें बताना पड़ता है कि वह अपनी छोटी नौकरी में ही ठीक है लेकिन सक्रिय राजनीति में नहीं आना चाहता। उस के मन में द्वंद चलता रहता है, विचारों का मंथन होता है, मन सवाल-जबाब करता रहता है। वह मुसलमानों को न्याय दिलाने के चक्कर में किसी के लिए अच्छा तो बहुतों का बुरा बन जाता है। लेकिन अपनी मानवीयता और मूल्यों को नहीं बेचता। इस दुनिया में कितने ऐसे लोग हैं जो दूसरों के अधिकारों के लिए या उन की मुसीबत में काम आने के लिए आनंद की तरह भाग-दौड़ करेंगे? प्रशासन में वह कितने ही लोगों को जानता है जिन से हेल्प ले कर वह उन मुसीबत के मारों को बचाता है पर कभी-कभी कुछ बातें ऐसी हो जाती हैं कि वह इतना सब करने के बाद भी अपने को नाकामयाब समझने लगता है। जब इतनी भागदौड़ करने के बाद भी सादिया की बेटी और सुखई चाचा का पोता कासिम नहीं रहा तो वह उसे अपनी असफलता समझ कर खुद को दोष देता रहता है। लेकिन राजनीति में आ कर तो उसे अपने सिद्धांतों को कुचलना होगा इसलिए वह कारपोरेट की नौकरी में ही तसल्ली करता है। कासिम की मौत के बाद उस ने उस की निर्दोषिता प्रमाणित करके सुखिया चाचा को पांच लाख रुपए दिलवाए। इस के लिये प्रेस कांफ्रेंस आदि कर के मीडिया का सहारा ले कर जनता को अपनी तरफ किया। लेकिन किसी हिंसा व गंदी राजनीति का सहारा लेने की नहीं सोची। अकसर ही लोगों में उलझ कर कटाक्ष भरी बातें होती हैं पर आनंद अपने सिद्धांतों पर अडिग रहता है। उसे राजनीति के सब आंकड़े पता हैं साथ में धार्मिक मुद्दों पर भी अच्छा ख़ासा ज्ञान है। स्पीच धडल्ले से देना उस के लिये बड़ी बात नहीं। किसी भी विषय पर आसानी से बहस कर लेता है. उस के संपर्क में आने वाले लोग उस की बात करने की योग्यता के कायल हो कर उसे अपने से जोड़ना चाहते हैं। लेकिन वह अपने सिद्धांतों पर लोगों को, गांव को और देश को बदलना चाहता है जो संभव होना मुश्किल है। उसके बचपन के गांव की इमेज पूरी तरह से बदल चुकी है। गांव में चारों तरफ अब गुंडों का राज है। आनंद को भयानक सपने आने लगते हैं। चारों तरफ से जीवन की भयावहता में घिरा आनंद अपने को अकेला महसूस करता है। उस के दिल में हर दिन उठता हुआ बबंडर और टेंशन उसे शराब और सिगरेट के धुएं में खींच कर ले जाता है फिर भी वह अपनी समस्याओं का हल नहीं खोज पाता। अपने चारों तरफ इंसानों को वह रोबोट बनते हुए देख रहा है। सब को नयापन खींच रहा है. इंसान अब वो कर रहा है जो उसे नहीं करना चाहिए। सिद्धांत बदल रहे हैं, मान्यताएं बदल रही हैं। आनंद और उस के जैसे लोग इस अव्यवस्थित समाज से लड़ रहे हैं। क्या अच्छा है और क्या बुरा इस के बारे में लोग बिना सोचे-समझे दूसरों की नकल करने में लगे हुये हैं। हर कोई अपने चारों ओर नएपन में फंसता जा रहा है। पर आनंद इस प्रलोभन के जाल में नहीं फंसना चाहता। इस बात पर दयानंद जी की एक कहानी ‘सूर्यनाथ की मौत’ याद आ जाती है जिस में कहानी के नायक सूर्यनाथ जी आर्थिक तंगी सहते हुए भी अंदर ही अंदर घुट-घुट कर मरते रहते हैं पर अपने मित्र के इशारा करने पर भी अपने उसूलों की मौत नहीं होने देते। और यहां इस उपन्यास का पात्र आनंद भी अपने सिद्धांतों को बिकने नहीं देता। सारी दुनिया एक तरफ और वो अपने आदर्शों के साथ एक तरफ। कभी-कभी मुनव्वर जैसे लोग अपने आदर्शों के पथ से डिग जाते हैं। समय का फेर, इंसान की नीयत और उस की परिस्थितियां उस के आदर्शों और सिद्धांतों को कमज़ोर कर देती हैं। हर कोई आनंद नहीं हो सकता। आनंद जैसे कितने फ़रिश्ते होंगे इस धरती पर? मुनव्वर भाई भी पहले ऐसे नहीं थे। वह बरसों अपने सिद्धांतों और मूल्यों पर टिके रहे। उन में जो बदलाव आया तो वो उन के मन का असहनीय आक्रोश ही हो सकता है। जिंदगी की तमाम कड़वाहट पीने के बाद वह अब पस्त हो चुके हैं। व्यवस्थाओं से टकराते-टकराते मुश्किलों को झेलते हुए तमाम लोग उन से हार जाते हैं। आनंद जैसे लोग टूट जाते हैं पर अपने सिद्धांतों व उसूलों पर डटे रहते हैं। चारों तरफ बदलती दुनिया के बीच कुछ लोगों का अपने आदर्शों पर टिके रहना कितना मुश्किल होता है इसे आनंद जैसे इंसान ही समझ सकते हैं। जो अपने सिद्धांतों पर आस्था रखे जीवन की ऊहापोह सहते रहते हैं। उन्हें कुचल कर जीना उनके लिए संभव नहीं।
शराब, वासना और भ्रष्टाचार में डूबी राजनीति में आने वाले लोग भ्रष्ट होते रहते हैं। वह अपने पद और पैसे का दुरुपयोग करते हैं। राजनीति में आते ही उन के सारे आदर्श ढह जाते हैं। राजनीति भी जैसे ‘काजल की कोठरी’ हो गई जहां पुरुष व स्त्रियां दोनों ही पर कालिख लग जाती है। आप के एक और उपन्यास ‘हारमोनियम के हज़ार टुकड़े’ में भी एक दलित महिला जब मुख्यमंत्री बनती है तो पद का नशा उस के सिर चढ़ जाता है। वह भी राजनीति की कालिख से बच नहीं पाती। इस उपन्यास में दयानंद जी देश, समाज, राजनीति व अन्य तमाम समस्याओं पर गूढ़ चर्चा करते हुए शब्दों में उस का सही चित्रण करने में पूरी तरह सफल हुए हैं। राजनीतिक बातों पर आप की विद्वता का पता चलता है। तमाम पात्रों को निर्मित कर के उन के माध्यम से आप ने जो भी कहना चाहा उस का सारा चिटठा बखूबी इस उपन्यास में लिखा है, ”यह बाजार, जातीयता, और सांप्रदायिकता हमें कहां ले जाएगी यह हम सभी के लिए यक्ष प्रश्न है। गुंडई, भ्रष्टाचार, और हमारी सम्मानित जनता इससे त्रस्त है। इस का निदान चाहती है, वोट डालना नहीं चाहती। ड्राइंगरूम में बैठ कर चाहती है कि सब कुछ सुंदर-सुंदर सा हो जाए। पूंजीपति कहते हैं कि आदमी अब आदमी न रहे, उन के लाभ के लिए रोबोट बन जाएं। बहुत सारे लोग रोबोट हो भी गए हैं। वह सवाल नहीं पूछते, आदेश सुनते हैं। हमारे जैसे लोग रोबोट नहीं आदमी ही बने रहना चाहते हैं। अब इस आदमी का क्या करें जो रोबोट के साथ ट्यून नहीं हो पा रहा?” आप को आगे भविष्य में भी सार्थक लेखन के लिए मेरी मंगलकामनाएं।
शन्नो अग्रवाल।
[शन्नो अग्रवाल कोई पेशेवर आलोचक नहीं हैं। बल्कि एक दुर्लभ पाठिका हैं। कोई आलोचकीय चश्मा या किसी आलोचकीय शब्दावली, शिल्प और व्यंजना या किसी आलोचकीय पाठ से बहुत दूर उन की निश्छल टिप्पणियां पाठक और लेखक के रिश्ते को प्रगाढ़ बनाती हैं। शन्नो जी इस या उस खेमे से जुडी हुई भी नहीं हैं। यू के में रहती हैं, गृहिणी हैं और सरोकारनामा पर यह और ऐसी बाक़ी रचनाएं पढ़ कर अपनी भावुक और बेबाक टिप्पणियां अविकल भाव से लिख भेजती हैं।]
प्रस्तुत लेख वरिष्ठ पत्रकार और उपन्यासकार दयानंद पांडेय के ब्लॉग सरोकारनामा से साभार लिया गया है। उनसे संपर्क 09415130127, 09335233424 और [email protected] के जरिए किया जा सकता है।