देश में कमजोर तबकों दलित, आदिवासी, पिछड़ी जातियों, अल्पसंख्यकों और महिलाओं को दोयम दर्जे की स्थिति में बनाए रखने की तमाम साजिशें रचने तथा उसे अंजाम देने की एक परिपाटी विकसित हुई है। इसमें अल्पसंख्यकों विशेषकर मुस्लिम आबादी को निशाना बनना सबसे ऊपर है। सांप्रदायिक हिंसा से लेकर आतंकवाद के नाम पर बेगुनाह मुस्लिमों को ही प्रताडि़त किया जाता है। इसमें राज्य व्यवस्था की मौन सहमति व उसकी संलिप्तता का एक प्रचलन निरंतर कायम है। राज्य प्रायोजित हिंसा के खिलाफ आंदोलनरत पत्रकार और डाक्यूमेंन्ट्री फिल्म निर्माता राजीव यादव और शाहनवाज आलम राज्य व्यवस्था द्वारा रचित उन्हीं साजिशों का ’ऑपरेशन अक्षरधाम’ किताब से पर्दाफाश करते हैं। यह किताब उन साजिशों का तह-दर-तह खुलासा करती है जिस घटना में छह बेगुनाह मुस्लिमों को फंसाया गया। यह पुस्तक अक्षरधाम मामले की गलत तरीके से की गई जांच की पड़ताल करती है साथ ही यह पाठकों को अदालत में खड़ी करती है ताकि वे खुद ही गलत तरीके से निर्दोष लोगों को फंसाने की चलती-फिरती तस्वीर देख सकें।
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जिन्दगी के बिल्कुल पास की ग़ज़लें : कुमार कृष्णन
समकालीन हिन्दी ग़ज़लों की अभिव्यक्जि और उनकी सम्प्रेषणीयता हिन्दी काव्य को एक नए मोड़ पर उत्साहपूर्वक भविष्य को जन्म देने के लिए अग्रसर है। आज हिन्दी में जो ग़ज़लें लिखी जा रही है, उसका सीधासीधा सरोकार समकालीन आम जीवन से है। भाव, कल्पना और बुद्धि के साथसाथ आक्रोश और ओज का भी मिलाजुला स्वर देखने को मिल जाया करता है। यही स्वर पठनीयता को भी अपनी ओर आकर्षित करता है।
‘ओएमजी’ के आस-पास भी नहीं फटक सकी ‘पीके’
तीन दिन पहले हमने आमिर खान की फिल्म पीके देखी। उसी दिन इस पर लिखने का मन था, पर अचानक हमारे इंटरनेट ने बेवफाई कर दी और तीन के लिए वह मौत के आगोश में चला गया। अब जाकर उनका पुनर्जन्म हुआ है और हमें समय मिला है तो सोचा चलो यार उस दिन की कसर पूरी कर ली जाए। पीके को लेकर लंबा विवाद प्रारंभ हो गया है। वैसे तो इस फिल्म को लेकर पहले से ही आमिर की पहली तस्वीर को लेकर विवाद हुआ है, लेकिन फिल्म देखने के बाद जहां लगा कि उस तस्वीर को लेकर ऐसा विवाद करना बेमानी है, वहीं इस बात को लेकर अफसोस हुआ कि आमिर की यह फिल्म परेश रावल की फिल्म ओ माय गाड के आस-पास भी नहीं फटक सकी।
पीके धरती से तीन चीज़ें सीखकर लौटा: भ्रष्ट भाषा, झूठ बोलना और अपने बचाव में भगवान का इस्तेमाल
Abhishek Srivastava : पीके एलियन था, दूसरे ग्रह का वासी, इस बात को गांठ बांध लीजिएगा। उलट कर कहता हूं:- पीके जैसी बातें करेंगे तो आपको एलियन समझा जाएगा। दूसरे ग्रह पर भेज दिया जाएगा। दुनिया में रहना है तो दुनिया के जीके से चलो, पीके से नहीं।
Subject: Arvind Mohan’s review of My book in your web portal
Dear Yashwantji
Someone pointed out to me about this review and I read. After reading I was shocked. While I have nothing to say about Shri Arvind Mohan or his credibility I strongly object to insinuations and innuendos in his article against my book and my credibility. Not that his review would undermine these, but I wish to set the record straight.
गांधीवादी राजनीति का सपना देखने वाला, आज की जातिवादी और सांप्रदायिक राजनीति से हारता आनंद
दयानंद पांडेय
आज के जमाने में सिद्धांतों और आदर्शों पर चलना हर किसी के वश की बात नहीं। इंसान जीवन के आदर्शों को अपने स्वार्थ की खातिर भेंट चढ़ा देता है, कभी विवशता से और कभी स्वेच्छा से। दयानंद जी के इस उपन्यास ‘वे जो हारे हुए ‘ में राजनीति में उलझे या ना उलझे लोगों का ऐसा जखीरा है जिस में इंसान किसी और इंसान की कीमत ना आंकते हुए दिन ब दिन अमानवीय होता जा रहा है।