एक ओर मीडिया की आंखों से देश को दिखाया जा रहा एक लाख करोड़ की बुलेट ट्रेन का सपना। दूसरी ओर एक ही रात में दो दो ट्रेन हादसे, दर्जनों लोगों की मौत। अंग्रेजों के ज़माने के रेलवे पुल, जर्जर पटरियां और लचर परिचालन। इतने बड़े देश के रेलवे की गिनती दुनिया की सबसे घटिया रेल व्यवस्था में। रेल राज्य मंत्री मनोज सिन्हा कह रहे हैं कि हरदा ट्रेन हादसा प्राकृतिक था। ये तो वही बात हुई कि प्राकृतिक आपदा है तो पुल और पटरियां भगवान ने बनाई थीं, वही जाने ? रेल मंत्रालय बुलेट ट्रेन चलायेगा हवा में।
म.प्र. में हरदा के नजदीक कामायनी और जनता एक्सप्रेस की दुर्घटना प्राकृतिक है। दो ट्रेनों की सोलह बोगियां नदी में गिरी हैं और रेलवे कह रहा है कि सिर्फ 25 लोग ही मारे गए हैं. मीडिया भी 35 मौतें सुना रहा है। कयास लगाइए कि मुम्बई से बनारस और पटना से मुम्बई जा रही ट्रेनों के जनरल कोच में कितने लोग होते हैं। उनका आंकड़ा तो खुद रेलवे के पास भी नहीं। एक कोच में कम से कम 400 के लगभग लोग होते हैं। जिनका आरक्षण टिकट, सिर्फ उनकी ही गिनती। मनोज सिन्हा और सुरेश प्रभु जैसे लोगों से जनता को कोई उम्मीद नहीं। सारे देश को कूड़ा घर बना डाला है अन्धविश्वासियों और ढोंगियों ने।
अगर मीडिया चाह जाता तो हरदा रेल हादसे को लेकर, रेलवे के लिए स्पष्टीकरण मुश्किल हो जाता। रेलवे प्रशासन को जवाब देना होगा कि आखिर एक ही ट्रैक पर दो रेलें कैसे डीरेल हो सकती हैं। सीधी सी बात है कि अगर कामायनी एक्सप्रेस, ट्रैक धंस जाने के कारण डीरेल हो चुकी थी, तो रात में उस ट्रैक पर रेल दौड़ाने की अनुमति कैसे दी गई, जिससे उसी ट्रैक पर, लगभग उसी जगह के आस-पास दूसरी रेल भी, लगभग उसी कारण से थोड़ी देर बाद पटरी से उतर गई? साफ है कि डीरेल होने की सूचना के बाद भी उसी ट्रैक पर असावधानी के कारण एक और रेल दौड़ रही थी।
रेल दुर्घटना पर सीपीआई (एम) मध्यप्रदेश राज्य समिति ने अफ़सोस और शोक व्यक्त करते हुए कहा है कि हादसे के बाद ट्वीट कर प्रकृति पर दोष मढ़ा जा चुका है । अब खबरों की बाढ़ आने वाली है जिन के ऊपर नेताओं के रंगीन फ़ोटो तैरेंगे, उतरायेंगे । तीन चार दिन में धीरे धीरे मरने वालों की संख्या सामने आएगी । कुछ के नाम आएंगे, अनेक बेनाम ही रह जाएंगे । ताज्जुब नहीं कि बहुतेक गिनती में ही शुमार न हो पाएं । ज्यादा मौतें बेचैनी पैदा करती हैं, अच्छे दिनों की चुगली खाती हैं, सो क्या जरूरी है कि सारी लाशें गिनी और बतायी जाएँ । इसके बाद एक धमाकेदार घोषणा के साथ एक जांच आयोग का गठन किया जाएगा । एक दो लाइन मैन, दो पीडब्लूआई निलंबित होंगे और इतिहास के भीषणतम रेल हादसों में से एक इतिहास के कूड़ेदान में दफ़्न कर दिया जाएगा । अगले हादसे के इन्तजार में ! न पहली बार पानी बरसा है, न पहली बार कोई रेलगाड़ी इस पुलिया से गुजरी है । जानलेवा पुलिया नहीं थी, जानलेवा हैं वे नीतियां जो पिछले 20 साल से हर रेल बजट में गाड़ियों की संख्या में बढ़ोत्तरी के एलान के साथ ही रेल कर्मचारियों की संख्या घटाने का प्रबंध करती हैं । मालभाड़े की कमाई पर उत्फुल्लित होती हैं, रेलपथ के रखरखाव के खर्च के मामले में मुट्ठी बाँध लेती हैं । हर तीन महीने में बिना बताये किराया बढ़ा देती हैं मगर तीन तीन साल में एक बार भी पुलियों और रेल ट्रैक की दुरुस्ती का इंतजाम नहीं करती ।
रेल विभाग के आंकड़ों को ही देखें तो यह हरदा हादसे की पटकथा लिखने वाला, जानलेवा किन्तु कमाई की चतुराई से भरा अर्थशास्त्र सामने आ जाता है । 2004-05/2010-11 के पांच वर्षों में कुल रोलिंग स्टॉक 267109 से बढ़कर 298307 हो गया । कुल यात्री संख्या 537 करोड़ 80 लाख से बढ़कर 765 करोड़ 10 लाख हो गयी । यात्रियों द्वारा की जाने वाली यात्रा दूरी 575702 मिलियन किमी से छलांग मार कर बढ़ी और 978509 मिलियन किमी हो गयी ।(1 मिलियन=10 लाख) । मगर ठीक इसी दौरान कर्मचारियों की संख्या पूरे एक लाख कम हुयी ।14 लाख 24 हजार से 13 लाख 28 हजार रह गयी । अगले 5 साल में यह अनुपात और अधिक तेजी से बिगड़ा है । इस में भी आनुपातिक रूप से ज्यादा कमी ऑपरेशनल और फील्ड स्टाफ की हुयी । यह कोई विशेषज्ञ विश्लेषण नहीं है, आम जन की निगाह से सरसरी विवेचना है । थोड़ी और तफ़सील में जाएंगे तो पता चलेगा कि इस उदारीकरण के पूरे काल में सर्वाधिक कटौती रेल पटरियों और मार्ग के रखरखाव की मदों में हुयी है । जो बात अर्थशास्त्र के मामले में निरक्षर व्यक्ति भी समझ सकता है वह सत्ताधीशों की समझ में क्यों नहीं आती ? इसलिए कि उनके पैमाने बदल चुके हैं ।
व्यक्ति और जीवन की बजाय मुनाफा और रोकड़ प्राथमिकता पर आ जाती है तो उपलब्धियां जीडीपी आंकड़ों की मीनारों की ऊंचाइयों में नापी जाती हैं । वे मीनारें कितनी लाशों के ढेर पर खड़ी हैं, इसे फिजूल की बात और कालातीत हो गयी समझदारी करार दिया जाता है । हरदा में कितने मरे ? यह सवाल हल करना है तो पहले यह पूछना होगा कि क्यों मरे ? मृतकों के आश्रितों को पर्याप्त मुआवजा मिलना चाहिए । रेल मंत्री को इस्तीफा देना चाहिए । मगर इसीके साथ फ़ौरन से पेश्तर इन जानलेवा नीतियों को उलट कर उन्हें मुनाफे के बर्फीले पानी से बाहर लाकर जीवन की धूप दिखाई जानी चाहिए । विश्वबैंक का त्रिपुण्ड धारे, आई एम् ऍफ़ का जनेऊ पहने, श्राद्द् और तेरहवीं के गिद्दभोजों से तोंद फुलाये राजनेता ऐसा खुदबखुद करेंगे, यह उम्मीद कुछ ज्यादा होगी ।