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सियासत

इमरान ने साबित किया कि वो एवेंई चैंपियन नहीं थे

करतारपुर कॉरिडोर खुलने के मौके पर दोस्ती की दावत देना इमरान खान के लिए आसान हो सकता है, लेकिन मोदी के लिए ये सबसे जोखिम भरा मौका है. जिसके सामने रिस्क लेने के लिए पांच साल पड़े हों वो पब्लिक ओपीनियन के खिलाफ जाकर भले देख ले लेकिन जो अपने पड़ोसी को कोसकर ही चुनाव जीतता रहा हो और एक बार फिर चुनावी मुहाने पर खड़ा हो वो नेतागीरी से उठकर स्टेट्समैनशिप का परिचय कैसे दे दे..

सिख तीर्थयात्रियों को करतारपुर आने का मौका देकर इमरान ने खुलकर दोस्ती के इरादों का इज़हार कर दिया है. ये उस कयास से एकदम उलट है जो उनकी तालिबान और सेना समर्थक छवि के कारण लगाया जा रहा था. उन्होंने आज जो कहा वो उनकी राजनीतिक परिपक्वता का प्रदर्शन भी था. इमरान ने जिस खुले दिल से माना कि अतीत में गलती दोनों मुल्क से हुई हैं और जिस साफगोई से कहा कि इतिहास सीखने के लिए होता है जीने के लिए नहीं, वो बता रहा है कि इमरान पीएम के तौर पर बड़े फैसले लेने को फिलहाल तैयार दिखते हैं.

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करतारपुर कॉरिडोर खोलने का फैसला वाजपेयी काल के बस और रेल सेवा शुरू करने के फैसले जितना ही महत्वपूर्ण है. ये एक दांव है जो इमरान ने खेला है. उन्हें अभी मालूम नहीं कि इसकी कामयाबी और नाकामयाबी के कितने चांस हैं. जिस तरह विदेश मंत्री सुषमा स्वराज ने कॉरिडोर और आतंकवाद साथ ना चलने की बात कह कर इमरान सरकार की कवायद पर तारीफ का एक बोल नहीं कहा उससे तो लगता नहीं कि मोदी सरकार दोस्ती के मूड में है. हां ये सच है कि चुनाव जीतने के बाद किसी भी पार्टी को इमरान से हाथ मिलाकर देखना पड़ेगा. इमरान ने ठीक कहा कि एटमी ताकतें जंग तो लड़ नहीं सकतीं तो फिर दोस्ती क्यों ना हो.

इमरान ने सिद्धू की आलोचनाओं पर भी दुख जताया. उन्होंने कहा कि दोस्ती की चाहत रखने पर तनकीद क्यों होनी चाहिए. वाकई उनका हैरान होना ठीक भी है. वेदप्रताप वैदिक अगर हाफिज़ सईद से मिलें या मोदी बिना न्यौते पाकिस्तान में लैंड कर जाएं तो बीजेपी पचा लेती है लेकिन पंजाब सरकार का एक मंत्री अगर निजी प्रयासों से करतारपुर कॉरिडोर खुलवाने में सफल होता है तो उसके नेता संघ के सिखाए राष्ट्रवाद का सबसे निम्न वर्ज़न पढ़ाने चले आते हैं. पब्लिक ओपीनियन और अपनी ही पार्टी के संघछाप नेताओं के दबाव में ना आकर सिद्धू भी साहस का परिचय ही दे रहे हैं. ऐसे हालात में जब सरकार बिज़नेस से लेकर खेल तक चलने दे रही है तब किसी नागरिक का शांति प्रयास किस तर्क से गलत ठहराया जा सकता है ये सिर्फ बीजेपी के प्रवक्ता ही डिबेट शोज़ में समझा सकते हैं.

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कुल मिलाकर वाजपेयी के शांति प्रयासों को आगे बढ़ाने का काम उनकी विरासत संभालनेवालों को करना चाहिए. वो अगर ऐसा नहीं करते तो मान लेना चाहिए कि मोदी भी उसी पिटी पिटाई पाकिस्तान विरोधी लीक के आम नेता हैं जिसके पास दोस्ती करने का वो हुनर नहीं जो स्टेट्समैन में होता है. तब मेरे जैसे सरकार के आलोचकों को ये कहने के लिए विवश होना पड़ेगा कि बाकी तमाम मोर्चों की तरह ये सरकार पड़ोसियों से रिश्ते सुधारने में भी बुरी तरह फेल रही है और इसे रिपीट करने की एक छोड़िए आधी वजह भी नहीं है.

लेखक नितिन ठाकुर प्रतिभाशाली युवा पत्रकार हैं और टीवी टुडे ग्रुप में कार्यरत हैं। 

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