स्वच्छ, स्वस्थ, निष्पक्ष, गुणवत्तायुक्त पत्रकारिता सभी की डिमांड है। इसके लिये जवाबदेह हिन्दी मीडिया संस्थानों को सस्ते और सर्वगुण समपन्न पत्रकार चाहिये। पिछले 10 सालों से पत्रकारिता में पाने वाली सेलरी बताऊं, उससे पहले इसकी पढ़ाई का खर्च बताता हूं। 2 लाख खर्च करके पहली पढ़ाई पूरी की तो 3000 रूपये महीने की नौकरी 2007 में मिली। काम 14 घंटे। अच्छे संस्थान में नौकरी की प्रत्याशा में 1 लाख और खर्च कर ट्रेनिंग ली। मेरठ में नौकरी मिली। दाम 4000 रूपये महीने। थोड़े दिन बाद दैनिक भास्कर जैसा बड़ा समूह ज्वाइन किया। पहले 8000 महीना दिया और 2010 तक यह रकम 9500 हो गई। कामकाज ठीकठाक था लिहाजा गोरखपुर हिंदुस्तान में ज्वाइनिंग मिल गई। 2010 में रिपोर्टर पद पर 12000 में ज्वाइन किया और 2013 में सीनियर स्टाफ रिपोर्टर पद से 15000 प्रति माह की पगार के साथ बीमारी के कारण विदाई हो गई।
पुलिस विभाग के एक सिपाही से भी कम वेतन में कार्पोरेट अखबारों ने 14-18 घंटे तक रगड़ा सो बीमार तो होना ही था। ऊपरी कमाई कभी नहीं की लिहाजा पत्रकारिता की पढ़ाई के कर्ज के साथ इलाज का कर्ज भी जुड़ गया। डेस्क वर्क का अनुरोध किया तो सदाशयी सम्पादक व कंपनी ने रिजाइन ले लिया। 2013 के बाद कई जगहों पर फुटकर पत्रकारिता की और स्वतंत्र लेखन जारी है। कहीं से 5000 महीने मिले तो कहीं से 8300। यहां तक की 3500 पर भी काम करना पड़ा। आज भी ऐसे ही फुटकर इनकम से गाड़ी खिसक रही है।
कार्पोरेट हिंदी अखबारों में कुछ अपवादों को छोड़कर तनख्वाह वैसी ही मिलती है, जैसा मैने बताया। उनके लिये टिक पाना आसान है जो घर से मजबूत हैं, शौकिया पत्रकार हैं, पत्रकारिता के कवच में अपने धंधे कर रहे हैं, ठेठ सामान्य जीवनस्तर के साथ ईमानदारी से काम कर रहे हैं, अच्छे लाइजनर हैं या फिर पहुंचे हुये फकीर हैं। मेरे जैसे भी कुछ लोग हैं जो इनमें से किसी श्रेणी में नहीं आते लिहाजा बाहर हैं।
कार्पोरेट हिंदी अखबारों से निकलने के बाद अक्सर मेरे शुभचिंतकों ने सवाल किया कि आपने हिंदुस्तान अखबार क्यों छोड़ दिया। मैं उन्हें क्या-क्या समझाता। मीडिया संस्थान 15000 में सुबह 8 बजे से लेकर रात 12 बजे तक का समय हमसे छीन लेते है। इस समय में दौड़िये, समाज-नेताओं और अफसरों को झेलिये, संस्थान के उल्टे-सीधे काम करवाइये, पद पर बैठा आदमी कितना भी गंदा हो उससे संबंध बेहतर रखिये। अगर कोई चूक हुई तो गाली, मार और मुकदमा खुद झेलिये। साप्ताहिक अवकाश तय तो है लेकिन मिलेगा की नहीं गारंटी नहीं। शोषण के ढेर सारे उपबन्ध अखबार प्रबन्धन के पास होते हैं जिनको पत्रकार 24 घंटे झेलते हैं लेकिन इस दर्द को बाहर लाने से बचते हैं, हालांकि ये हालात सभी पत्रकारों पर लागू नहीं हैं।
अब प्वाइंट पर आते हैं। जब सुप्रीम कोर्ट की एक बेंच ने फैसला दे दिया कि मजीठिया वेज बोर्ड के हिसाब से वेतन और एरियर दिया जाए, तब भी मीडिया संस्थान नंगा नाच दिखा रहे हैं। कोर्ट के आदेश का हवाला देकर जिस पत्रकार ने भी वेतन बढ़ाने की मांग की उसे गेट आउट कर दिया गया। जिन पत्रकारों की नौकरी का नेचर ऐसा हो वे कंपनी की नीतियों के खिलाफ नागरिक हितों के लिये कितना लड़ पाएंगे, यह यक्ष प्रश्न है। मीडिया हाउसेस, समाज और सिस्टम पर भारी हैं।
हालत यह है कि माननीय सुप्रीम कोर्ट की दूसरी बेंच 2 सालों की सुनवाई में अपनी ही सर्वोच्चता की खिल्ली उड़ाने के खिलाफ इन हाउसेज पर एक्शन नहीं ले सकी। देश के पीएम, राज्यों के सीएम, केंद्रीय श्रम विभाग, राज्य श्रम विभाग, समूचा पुलिस तंत्र आज मीडिया मालिकानों के साथ खड़ा है। यहां तक की समाज के कुछ खास विशिष्ट वर्ग भी मीडिया समूहों के साथ हैं। सब चाहते हैं कि पत्रकारिता टाप क्लास की हो लेकिन बहुत कम लोग चाहते हैं कि पत्रकारों का पारिश्रमिक भी सम्मानजनक हो। यह दोहरा चरित्र खतरनाक है। न्याय व्यवस्था, सत्ता और समाज, सबल को कुछ नहीं बोल पा रहा है और निर्बल हमेशा कोसे जा रहे हैं।
मैं समाज से अपील कर रहा हूं कि मजीठिया की लड़ाई सिर्फ हम 1000-500 लड़ रहे चंद पत्रकारों की लड़ाई नहीं है। यह एक सामाजिक परिवर्तन की भी लड़ाई है। पत्रकारिता को दोषमुक्त करने की पहल है। सत्ता और समाज, मीडिया समूहों पर दबाव बनावें कि योग्यतम पत्रकार सम्मानित पारिश्रमिक के साथ रखे जाएं और ब्लैक शिप्स को हतोत्साहित किया जाए। यह दबाव इन लड़ने वाले पत्रकारों के साथ खड़ा होकर बनाया जा सकता है। आप एक छोटा सा कदम उठाकर पत्रकारिता और समाज को बचा सकते हैं। मीडिया हाउसेज को संदेश दें कि वे भी समाज का हिस्सा हैं। वे समाज से हैं न कि समाज उनसे।
आपको करना कुछ नहीं है। बस इस पोस्ट को शेयर करिये और आप जिस भूमिका में हैं (अफसर, जज,वकील, नेता, व्यापारी, पुलिसकर्मी, नेता, सामाजिक कार्यकर्ता, श्रम विभाग से जुड़े हैं), उसी तरीके से अपनी भूमिका के हिसाब से अपनी इच्छानुसार इन मजीठिया क्रांतिकारियों की मदद करें। इस पोस्ट को वायरल करावें ताकि मीडिया घरानों का सड़ांध सच सबके सामने आये। आज अगर समाज हमारी मदद को चूक गया तो कल इसकी कीमत समाज को ही चुकानी है। आज जिस मनमानी का हम शिकार हो रहे हैं, कल आपको भी होना है , इस बात की मैं गारंटी ले सकता हूं।
वेद प्रकाश पाठक
स्वतंत्र पत्रकार
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Satish
October 19, 2016 at 5:30 am
Supreme Court khud apne faisale per date de rahi hai.
Aisa kaun aa kathin kaam hai court ke liye paisa dilwana.
Ek order nikal de ya Kisi Malik ko bula ke fatkar laga de bas.dekhna agle din hi Malik daud ke majithiya denge.per court aisa kuch nahi karegi ye case supreme Court me bhi lamba chalega.aur iska bhagwan hi Malik hai.
ajeet
December 25, 2016 at 12:55 pm
res. सुप्रीम कोर्ट plz mention