अभिषेक श्रीवास्तव-
मैनेजर पांडे: हिंदी के आखिरी गॉडफादर… एक बार विश्व पुस्तक मेले में मैनेजर पांडे एक मंचीय गोष्ठी में आए। प्रोग्राम खत्म होने के बाद जब जाने लगे, तो एक लंबा आदमी उनके पीछे उचक-उचक कर जबरन फोटो में आने की कोशिश करने लगा। वह रह रह कर फोटोग्राफर को इशारे और पांडे जी को टक्कर मार रहा था। पांडे जी खीझ गए। उससे पूछे- आप कौन हैं महाशय?
जैसे बरसों बाद कमलापति त्रिपाठी के अखबार हटा के कनखी से देखने पर सुधाकर पांडे को इमीडिएट मोक्ष मिल गया था, लंबा आदमी वैसे ही तर गया। बोला- सर, मैं मैनेजर हूं। पांडेजी और खिसियाए, बोले- काहे का मैनेजर जी? लंबा आदमी की जीभ दंडवत हो गई- सर, इस प्रोग्राम को मैनेज कर रहा हूं। और कह के वो इतना झुक गया कि उसका मुंह पांडे जी के मुंह के ठीक सामने आ गया।
पांडे जी भड़क गए। उन्होंने अपने चिर परिचित नासिक्य स्वर में उसे डपट दिया- ‘नाम मेरा मैनेजर और हमको ही मैनेज कर रहा है… मूर्ख… कौन है ये आदमी?”
वो लंबा आदमी कहां गया पता नहीं, लेकिन बहुत से लोग उस लंबे आदमी की तरह पांडे जी को मैनेज करने की कोशिश किए जिंदगी भर। समकालीन आचार्यों में पांडे जी लीस्ट मैनेज्ड बने रहे। हां, उन्होंने अपने तईं बहुत कुछ मैनेज किया लेकिन ये तो नामवर जी से लेकर सबने किया। इतना तो चलता है हिंदी में। हिंदी बेचारी अकेले दम पर क्या कर सकती है। उसे गॉडफादरों की आदत है।
कोई लिख रहा था कि विश्वनाथ त्रिपाठी अकेले बच रहे हैं अब। बाबा त्रिपाठी अलग प्रजाति के आदमी हैं। जैसे सतपैते में घी। या घी में सतपैता। नामवर जी, राजेंद्र जी, और मैनेजर पांडे हिंदी के पुराने चावल थे! पेट चावल से भरता है, दाल और घी से नहीं।
हिंदी के आखिरी गॉडफादर को नमन।