Shyam Meera Singh : पत्रकार साथी मुरारी द्वारा फेसबुक पर प्रगतिशील विचार लिखने के कारण Roar Media द्वारा नौकरी से निकाले जाने पर… Murari Tripathi इसी वर्ष IIMC से पासआउट हुए हैं जहां से रोर मीडिया नामक मीडिया संस्थान में उनका केम्पस प्लेसमेंट हुआ था। मैं चूंकि मुरारी का सहपाठी रहा हूँ इसलिए मुरारी को शुरुआत से जानता हूँ। मुरारी हमेशा समाज के स्थापित मूल्यों के खिलाफ लिखते रहे हैं। एक कवि के शब्दों को उधार लेते हुए कहूँ तो पत्थर के विरुद्ध चाकी की आवाज को उठाने वाले सवाल लिखते रहे हैं।
फेसबुक व्यक्तिगत विचार रखने का एक सार्वजनिक मंच है। जहां मुरारी की कलम हल्कू और बुधिया के सवाल उठाते हुए सत्ता की गलेबान खींचती थी। सत्ता की निरंकुशता के विरुद्ध मुरारी का मत हमेशा आलोचनात्मक रहा है। उन्होंने दक्षिणपंथी विचारधारा के हिंसक रवैए पर अक्सर कलम से लकीरें खींची है। ऐसा नहीं है कि मुरारी हमेशा एक पक्ष के लिए ही लिखते थे। मुरारी की कलम ने भारतीय कम्युनिस्टों के खिलाफ भी जमकर आलोचनात्मक रवैया ही रखा है। लेकिन दक्षिणपंथ के हिंसक और पोंगापंथ के खिलाफ लिखना रोर मीडिया के संपादक को नागवार गुजरा। रोर मीडिया के संपादक ने मुरारी को एक लंबा सा ईमेल लिख भेजा और सफाई मांगी।
मुरारी द्वारा अपने विचारों को रखने की आजादी का हवाला देते हुए खुद को गुनहगार मानने से मना कर दिया गया। मुरारी को फेसबुक पर लिखने भर के लिए संपादक द्वारा रिजाइन देने के लिए बाध्य कर दिया गया। एक नौजवान जो पत्रकारिता में कुछ करने के मन से आया था। उसे पांच महीने भी नहीं हुए थे कि विचारधाराओं की भेंट चढ़ा दिया गया।
लेकिन इस पूरे घटनाक्रम को नौकरी से निकालने वाली खबरी नजर से ही नहीं देखा जाना चाहिए। जब मुरारी से संपादक द्वारा सफाई मांगी गई थी मैं उसी समय से इस घटना का साक्षी हूं। मुरारी चाहता तो अन्य की तरह माफी मांग सकता था। आगे न लिखने का आश्वासन देकर अपनी नौकरी जारी रख सकता था। यही सुझाव मैंने भी मुरारी को दिया था लेकिन उसने कलम के घुटनों को झुकाने से मना कर दिया। उसने अपने सिद्धांतों अपने विचारों की पवित्रता को प्राथमिकता देते हुए इस्तीफा देना ज्यादा बेहतर समझा।
“इस्तीफा दे दिया” यह कह देना आसान लगता है इसे सुनना भी बड़ा सहज है लेकिन पांच महीने पहले ही कुछ हजार कमाने वाले नौजवान के लिए वित्तीय अनिश्चितता की स्थिति में इतना बड़ा फैसला लेना कितना मुश्किल होता है इसका अनुमान स्वंयमभोगी ही लगा सकता है। दिल्ली में रूमरेंट, खाने का खर्च यह सब इतना मुश्किल है कि यहां एक महीने भर बिना पैसे के टिकना मुश्किल है। ऐसे में नौकरी को ठुकराने का मतलब है एक बड़े शहर में खुद को बेसहारा छोड़ देने के लिए तैयार रहना।
अपने सिद्धांतों के लिए दिया गया इस्तीफा, मुरारी का अपने विचारों के प्रति निष्ठा की पवित्रता को प्रतिबिंबित करता है। मुरारी को कम्पनी ने निकाला नहीं है बल्कि उसने कलम की गुलामी को स्वीकार करने से मना करते हुए नौकरी को ठोकर मारी है। यह समय इस घटना पर दुख जताने का नहीं बल्कि मुरारी के इस साहस को सेलिब्रेट करने का है। जिंदगी कम ही बार कम लोगों को अपने आस्तित्व को साबित करने का मौका देती है। मुरारी ने अपने फैसले से “होनी” को सही साबित कर दिया कि उसने कलम की कीमत साबित करने के लिए एक सही आदमी को चुना है।
मुरारी का इस्तीफा कर्तव्यपथ पर चढ़ाया एक स्फूर्त पुष्प है। मेरे मन में संपादक के लिए दया और मुरारी के लिए “धन्यवाद, शुक्रिया और आभार ” है कि तुमने एक लीक बना छोड़ी है दोस्त! अगर कोई कम्युनिस्ट संपादक, आरएसएस की विचारधारा मानने वाले अपने किसी कर्मचारी को उसके विचारधारा के आधार पर नौकरी से निकालने का काम करता तो उसके खिलाफ भी हम इसी प्रतिरोध के साथ लिखते। मैं अपनी जमानत पर यह बात कहने की हिमाकत करता हूँ कि उस समय स्वयं मुरारी भी दो चार पोस्ट उस कर्मचारी के पक्ष में जरूर लिखता। यही एक एक नैतिक परंपरा भी है। नौकरी पेट से जुड़ा सवाल है। भौतिक आस्तित्व का सवाल है। उसे ऐसे दफन नहीं किया जाना चाहिए।
दोस्त मुरारी मैं तुम्हारी नौकरी ठुकराने के कदम पर दुखी नहीं हूं। मेरे शब्दकोश में तुम्हारे लिए कोई भी शोकशब्द नहीं है। यह हम सबके लिए फक्र की बात है। यह अभिमान करने की बात है। यह उन तमाम आलोचकों को भी जवाब है जो कहा करते थे कि संस्थानों में तो हक की आवाज उठाते हो ! क्या कंपनियों में भी अपने हक के लिए लड़ जाओगे? तुम्हारे लिए एक पंक्ति ” हम लड़ेंगे, हम जीतेंगे दोस्त”
युवा पत्रकार श्याम मीरा सिंह की एफबी वॉल से.
रोर मीडिया से इस्तीफा देने वाले मुरारी त्रिपाठी ने खुद इस बारे में फेसबुक पर क्या लिखा है, नीचे पढ़ें….
Murari Tripathi
सच कहूं तो मैं अभी अपनी कहानी नहीं लिखना चाहता था। हां, लेकिन आगे इसका लिखा जाना पक्का था। 28 सितंबर ऑफिस में मेरा आखिरी दिन था। नौकरी छोड़ने के बाद मैं बिल्कुल भी दुखी नहीं था, न ही गुस्सा। मैं शाम में करीब 9 बजे रूम पर आया था। आते ही मैंने नहा लिया था। डिनर करने का मन नहीं था, इसलिए बेकरी से मैं एक पेस्ट्री ले आया था। इसके साथ ही मैंने पास की टपरी से दो सिगरेट ली थीं।
पेस्ट्री खाने के बाद मैंने सिगरेट जलाई और यूट्यूब पर एडी वेडर और नुसरत साहब का गाना ‘अ लांग रोड’ सुनने लगा। सुनते ही मेरी आंखों में आंसू आ गए। मुझे अपने पिता जी की याद आ गई थी। उन्होंने भी नौकरी के दौरान बहुत दबाव झेला था। वो मेरे द्वारा झेले गए दबाव से कहीं ज्यादा था। मैं करीब पंद्रह मिनट तक रोया और फिर दूसरी सिगरेट पीकर सो गया।
अगले दिन सुबह मैं काफी देर से उठा। मैंने राहुल सांकृत्यायन की ‘विस्मृति के गर्भ में’ पढ़नी शुरू की। दोपहर में गर्वित का फोन आया कि गांधी प्रतिष्ठान में किशन पटनायक के ऊपर व्याख्यान है, इसलिए मुझे भी वहां होना चाहिए। मैं वहां पहुंचा। लेक्चर सुनकर बोर हुआ लेकिन कुछ बहुत अच्छे लोगों से मुलाकात भी हुई। इसी शाम मुझे पता चला कि पीटीआई ने 300 से ज्यादा लोगों को निकाल दिया है। खैर, मैंने आंध्र भवन में डिनर किया और लौटकर गौरव के फ्लैट पर रुक गया। मैं फिर अगले दिन की शाम में ही अपने रूम पर लौटा।
30 सितंबर की रात में मनदीप का फोन आया। उसने पूरी कहानी पूछी। मैंने बता दी। उसने कहा कि तुम्हें लिखनी पड़ेगी। मैंने कहा कि जाने दो। उसने कहा कि अगर तुम नहीं लिखोगे तो मैं लिख दूंगा। मैंने कहा कि फिर मैं ही लिख देता हूं। ज्यादा बेहतर लिख पाऊंगा।
लिखने से पहले मैंने फ़ैज़ की दो नज़्में सुनीं। फिर यह निश्चय किया कि मैं जो कुछ भी लिखूंगा उसे सहानुभूति या मशहूर होने के उद्देश्य से नहीं लिखूंगा। इसे ऐसे लिखा जाएगा कि इन दोनों बातों का एक अंश भी प्रतिबिंबित न हो। यह लेख पूरी तरह से वैचारिक लड़ाई पर ही केंद्रित रहेगा और इसलिए लिखा जाएगा ताकि बाकी लोगों के मन में कम से कम इस मूल्य की जगह बन सके कि मनुष्य का स्वाभिमान कोई हवाई चीज नहीं है और इसे सहेजा जाना चाहिए। खैर, फिर मैंने लैपटॉप उठाया और करीब पौन घण्टे में ही सबकुछ लिख दिया। इसके बाद मैंने सत्यजीत रे द्वारा निर्देशित फ़िल्म ‘शतरंज के खिलाड़ी’ देखी।
अगले दिन दोपहर में कहानी प्रकाशित हो गई। मुझे सबसे ज्यादा डर इस बात का रहा कि इसे वैचारिक से ज्यादा व्यक्तिगत लड़ाई बना दिया जाएगा। हालांकि, ऐसा हुआ नहीं।
व्यक्तिगत आलोचनाएं मुझे अच्छी नहीं लगती हैं। असल में ये सिर्फ अपनी कुंठाओं को शांत करने के लिए की जाती हैं। इनमें कोई गहराई नहीं होती है। एक मार्क्सवादी के तौर पर मैं वृहद आलोचनाओं में विश्वास रखता हूं। हमारी आलोचनाएं दार्शनिक अवस्थिति, समाज में चल रही राजनीति को देखने के नजरिये और दुनिया के प्रति विचारों पर आधारित होती हैं। हम यह नहीं कहते कि इस आदमी ने आज यह कर दिया और कल इसके विपरीत काम किया था। उदाहरण के लिए अगर हमें गांधी की आलोचना करनी है तो हम यह नहीं कहेंगे कि उन्होंने असहयोग आंदोलन में कुछ और किया और भारत छोड़ो आंदोलन में कुछ और। ढंग का कोई भी गांधीवादी उनके इन अंतर्विरोधों को डिफेंड कर लेगा। हम देखेंगे कि गांधी किन दार्शनिकों से प्रभावित थे और समाज एवं दुनिया के प्रति उनका नज़रिया क्या था। खैर, विषयांतर हो रहा है। इसपर फिर कभी और।
तो कुल-मिलाकर मेरी लड़ाई किसी भी रूप में व्यक्तिगत नहीं है। यह पूरी तरह से वैचारिक ही है। आगे भी ऐसे ही बनी रहेगी। आप सभी लोगों ने इसे आगे बढ़ाया, मुझे साहस दिया, उसके लिए तहे दिल से शुक्रगुज़ार हूं। कॉमरेड Mandeep Punia को स्पेशल धन्यवाद! लाल सलाम.
दीपक पाण्डेय
October 4, 2018 at 11:04 am
भाई तुम दोनों की स्टोरी पढ़कर कई मिनट तक सोचता रह गया… साल 2015 ,से लेकर अब तक का सारा परिदृश्य आंखों के सामने से गुजर गया… समझता हूं.. सब समझता हूं… पर घूटने टेकना अपनी फितरत होनी ही नहीं चाहिए.. मुरारी भाई… सैल्यूट है तुम्हें… बहुत बहुत शुभकामनाएं…